Thursday, 18 September 2025
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ससंदीय सचिव क्यों?

दिल्ली की केजरीवाल सरकार द्वारा नियुक्त इक्कीस संसदीय सचिवों के भविष्य पर तलवार लटक गयी है। इन विधायकों की सदस्य रद्द होने की संभावना बढ़ गयी है क्योंकि संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद की परिभाषा से बाहर रखने के आश्य का एक विधेयक दिल्ली विधानसभा से पारित करवाकर राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिये भेजा था। दिल्ली को अभी तक पूर्णराज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है। इसलिये यह विधेयक केन्द्र सरकार के माध्यम से राष्ट्रपति के पास गया। केन्द्र सरकार ने इस पर प्रक्रिया संबधी कुछ तकनीकी टिप्पणीयां के साथ यह बिल राष्ट्रपति को भेजा। लेकिन इन तकनीकी टिप्पणीयों के कारण राष्ट्रपति भवन से इसकी स्वीकृति नही मिली। स्वीकृति न मिलने से यह मुद्दा एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया हैं क्योंकि देश के लगभग राज्यों में वहां के मुख्यमन्त्राीयों ने संसदीय सविच/ मुख्य संसदीय सचिव नियुक्त कर रखें हंै। इसमें हर राजनीतिक दल ने अपनी-अपनी सरकारों में इस तरह की राजनीतिक नियुक्तियां कर रखी हैं।
हिमाचल प्रदेश में नौ मुख्य संसदीय सचिव नियुक्त हंै। विधानसभा में जब माननीयों के वेतन भत्ते बढ़ौतरी के बिल आये हैं उनमें मुख्यसंसदीय सचिवों का उल्लेख अलग से रहा है। इनके वेतन भत्ते मंत्रीयों से कम और सामान्य विधायकों से अधिक रहे हंै। इन्हें सचिवालय में अलग से कार्यालय मिले हुए हंै। सरकार से मन्त्रीयों के समान सुविधायें इन्हें प्राप्त हैं। कार्यालय में पूरा स्टाफ है तथा सरकार से गाड़ी ड्राईवर और उसके लिये पैट्रोल आदि का सारा खर्च सरकार उठा रही है। पदनाम को छोड़कर अन्य सुविधायें इन्हें मन्त्रीयों के ही बराबर मिल रही है। बल्कि प्रदेश के लोकायुक्त विधेयक में तो इन्हें मन्त्री परिभाषित कर रखा है।
स्मरणीय है कि वर्ष 2005 में एक संविधान संशोधन के माध्यम से केन्द्र और राज्यों की सरकारों में मन्त्रीयों की संख्यां एक तय सीमा के भीतर रखी गयी है। हिमाचल में मन्त्रीयों की अधिकतम सीमा मुख्मन्त्री सहित बारह है। दिल्ली में यह संख्या सात तक है। लेकिन राजनीतिक समांजंस्व बिठाने के लिये संसदीय सचिवों की नियुक्तियां हो रखी हैं। नियमों के मुताबिक संसदीय सचिव को किसी विभाग की वैसी जिम्मेदारी नही दी जा सकती है जो एक मन्त्री/राज्य मन्त्री/ उप मन्त्री को हासिल रहती है। संसदीय सचिव का किसी न किसी मन्त्री से अटैच रहना आवश्यक है। उन्हे एक राज्य मन्त्री की तरह स्वंतत्र प्रभार नही दिया जा सकता । संसदीय सचिव जिस भी विभाग के लिये संवद्ध हो वह उस विभाग की फाईल पर संवद्ध विषय पर अपनी राय अधिकारिक रूप से दर्ज नही कर सकता। नियमों के मुताबिक संसदीय सचिव की भूमिका तभी प्रभावी होती है जब विधानसभा का सत्र चल रहा हो। सत्र के दौरान संव( मन्त्री को संसदीय सलाह/ सहयोग देना ही उसकी जिम्मेदारी रहती है। बल्कि सत्र में मंत्री की अनुपस्थिति में संसदीय सचिव संवद्ध विभाग से जुडे़ प्रश्न का उत्तर भी सदन में रख सकता है। लेकिन सामान्यतः ऐसा किया नही जाता है।
ऐसे में जब किसी संसदीय सचिव किसी भी विभाग की वैधानिक तौर पर जिम्मेदारी नही दी जा सकती है तब उसमें और एक सामान्य विधायक में कोई अन्तर नही रह जाता है। क्योेंकि संसदीय सचिव मन्त्री के समकक्ष नही रखा गया है। लेकिन वह सामान्य विधायक से संसदीय सचिव होने के नाते ज्यादा सुविधायें भोग रहा है। उसके वेतन भत्ते भी सामान्य विधायक से अधिक हंै। लेकिन 2005 में संविधान में संशोधन लाकर मन्त्रीयों की अधिकतम सीमा तय की गयी थी तब संसदीय सचिवोें का कोई प्रावधान नही रखा गया था क्योंकि ऐसा प्रावधान मूलतः संविधान की नीयत के एकादम विपरीत है। ऐसे में अब दिल्ली के संसदीय सचिवों का मुद्दा एक बड़ा सवाल बनकर सामने आ खड़ा हुआ है तो उसके लिये पूरे देश में एक समान व्यवस्था का प्रावधान करना होगा। अलग-अलग राज्यों में आज अलग-अलग प्रावधान नहीं हो सकते। इसके लिये एक बार फिर संशोंधन लाकर मन्त्रीयों की संख्या बढ़ा देना ज्यादा व्यवहारिेक होगा और उसमें संसदीय सचिवों की नियुक्तियों पर विराम लग जाना चाहिए।

रिटैन्शन पाॅलिसी कब तक और क्यों

शिमला/शैल। अवैध भवन निर्माणों को नियमित करने के लिये सरकार फिर रिटैन्शन पाॅलिसी लेकर आयी है। इसके लिये अध्यादेश जारी किया गया है प्रदेश पहली बार 1997 में रिटैन्शन पाॅलिसी लायी गयी थी तब वीरभद्र की सरकार ही थी। इसके बाद 1999, 2000, 2002, 2004, 2006 और 2009 में रिटैन्शन के नाम पर भवन निर्माण नियमों में संशोधन किये गये हैं। 2006 में जून और नवम्बर में दो बार यह पाॅलिसी लायी गयी। रिटैन्शन के नाम पर अब तक प्रदेश में 8198 अवैध भवनों को नियमित किया जा चुका है। इस अवधि में प्रदेश में वीरभद्र और प्रेम कुमार धूमल दोनो की ही सरकारें रही है और दोनो के शासन कालों में बडे पैमाने पर अवैध भवन निमार्ण हुए है। ग्रामीण क्षेत्रों में भवन निमार्ण के लिये किसी तरह के कोई नियम नही है। प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में ही यह नियम लागू हैै। शहरी क्षेत्रों में नगर निगम, नगर पालिका, एन ए सी आदि स्थानीय स्वशासन निकायों को भवन निर्माणो को रैगुलेट करने के अधिकार प्राप्त है। इन नियमों में यदि कोई भवन निर्माता छोटी - मोटी भूल कर जाता है। तो उसे नियमित करने का अधिकार भी इन निकायांे को प्राप्त है। नियमित करने के लिये भी नियम पूरी तरह परिभाषित है। सामान्यतः अवैध भवन निर्माणों को लेकर सरकार के दखल की गुंजाईश बहुत कम रहती है। सरकार का दखल की आवश्यकता तब पडती है जब बडे पैमाने पर अवैध निर्माण सामने आते है जिनमें नियमों में ही संशोधन करना पड़ जाये।

प्रदेश में नौवी बार यह संशोधन होने जा रहा है। 1997 में जब पहली बार यह रिटैन्शन पाॅलिसी लायी गयी थी तब यह दावा किया गया था कि इसके बाद होने वाले अवैध निर्माणों के साथ सख्ती से निपटा जायेगा। लेकिन बाद में हुआ सब कुछ इस दावे के ठीक उल्ट। सख्ती के नाम पर दलाली की फीस अवश्य बढ़ गयी है और यह दलाली बहुत लोगों का रोजगार बन गयी है। 1997 में रिटैन्शन जब पहली बार रिटैन्शन पाॅलिसी लायी गयी थी तो उसके बाद फिर अवैध निर्माण कैसे हो गये? इस अवैधता के लिये उस सरकारी तन्त्रा के खिलाफ क्या कारवाई की गयी जिसे यह सुनिश्चित करना था। कि उसके क्षेत्रा में भवन निर्माण नियमों की अनुपालना ठीक से हो रही या नही। लेकिन जिस तरह से बार-बार रिटैन्शन के नाम पर भवन निर्माण नियमों में संशोधन हुए है। उससे यह संदेश जाता है कि सारी अवैधता एक सुनियोजित तरीके से होती आ रही है। इसक पीछे ऐसे लोग रहे है जा पूरी तरह आश्वस्त रहे है जो यह जानते थे कि निर्माण के दौरान सरकारी तन्त्रा उनका काम रोकने नही आयेगा और बाद मे वह इसे रिटैन्शन के नाम पर नियमित करवा लेगें।
आज अगर शिमला में ही नजर दौड़ायी जाये तो सबसे ज्यादा अवैध निर्माण यहां पर हुए है। यहा पर नगर निगम केे जिम्मे भवन निर्माणों पर निगरानी रखने का काम था। लेकिन यहां पर होटल बिलो बैंक में जिस तरह से अवैध निर्माण ठीक मालरोड़ पर होता रहा और जैसे उसे नियमित किया गया है उसमें सरकार से लेकर नगर निगम तक पूरा संवद्ध तन्त्र की सवालों के घेरे में आ जाता है। सही पर प्रदेश उच्च न्यायालय का अपना भवन अवैध निर्माणों की सूची में शामिल है जब नगर निगम शिमला के क्षेत्रा में अवैध निर्माणों को लेकर विधान सभा में स्थानीय विधायक सुरेश भारद्वाज का प्रश्न आया था तो उसके उतर मे जो सूची में शामिल रखी गयी थी उसे कई सरकारी भवन भी शामिल रहे है। जबकि नियमो के मुताबिक सरकारी भवनों को भवन निर्माण नियमों की अनुपालना न करने की छूट नहीं हैं। आज कोर्ट रोड़ पर जिस तरह के विधायक बलवीर शर्मा का होटल बना है उस पर अवैधता का सबसे बड़ा आरोप है। आज हर व्यक्ति यह कहता सूना जा सकता है कि इस बार रिटैन्शन पोलिसी इन लोगो के लिए लाई जा रही है। बार- बार भवन निर्माण नियमों में संशोधन से स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश में बिल्डर लाॅबी कितनी प्रभावशाली हो चुकी है नगर निगम शिमला और प्रदेश विधान सभा चुनावों से पूर्व हर बार बिल्डर लाॅबी को खुश करने के लिए भू अधिनियम की धारा 118 और भवन निर्माण नियमों में सरकारें संशोधन लाती रही है। हर बार लायी गई रिटैन्शन को आखिरी बार कहा जाता रहा है लेकिन हुआ ठीक उससे उल्टा है। इसलिए बार - बार नियमों में संशोधन लाने की बजाये इन नियमों को ही समाप्त कर दिया जाना चाहिये और एक तय सीमा के बाद हर अवैधता की एक फीस का प्रावधान कर दिया जाना चाहिये।

स्थानान्तरण कोई हल नही है

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह ने प्रदेश के शिक्षा विभाग की जिम्मेदारी इस कार्यकाल मेे अपने पास रखी हैं इस वार प्रदेश के सरकारी स्कूलों के कक्षा दसवीं और बारहवीं के परीक्षा परिणाम इतने निराशाजनक रहे हैं कि मुख्यमंन्त्री ने इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए निराशाजनक परिणाम देने वाले स्कूलों के मुख्याध्यापकों /प्रिसिंपलों को तुरन्त ट्रांसफर करने और खराब परिणाम के कारण बताने के आदेश किये है। इन्ही के साथ संबधित विषयों के अध्यापकों की भी जवाब तलबी की है। मुख्य मन्त्रीे के इन आदेशों पर अमल होना भी शुरू हो गया है। मुख्यमन्त्री की चिन्ता जायज है। लेकिन इस समस्या का स्थायी हल खोजने की आवश्यकता है क्योंकि स्थानान्तरण इसका कोई हल नही है क्योंकि जो लोग एक जगह गैर जिम्मेदार रहें हैं वह दूसरी जगह जाकर सुधर जायेगें इसी कोई गांरटी नही है। इसका कोई स्थायी हल तब तक नही निकाला जा सकता है जब तक की इसे मूल कारणों की जानकारी न मिल जाये।
शिक्षा में सुधार लाने के लिये और इसे हर घर और बच्चे तक पहुंचाने के लिये आप्रेशन ब्लैक बोर्ड तथा प्रौढ शिक्षा केन्द्रों से लेकर आर एम एस ए व रूसा तक के कई कार्यक्रम लागू हो चुके है। स्कूलों में व्यवसायिक शिक्षण कार्यक्रम भी इसी में उठाये गये महत्वपूर्ण कदम रहे है। हर कार्यक्रम के तहत काम हुए हैं। केन्द्र से सभी कार्यक्रमों के लिये पर्याप्त आर्थिक सहयोग भी मिला है। आज राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा और सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रमों में शिक्षा में गुणवता लाने के लिये विशेष बल दिया गया हैं यहां तक की कैग रिपोर्टो में समय-समय पर जो टिप्पणीयां आती रही है उनका भी गंभीरता से कोई संज्ञान नही लिया जाता रहा है। इसलिये सबसे पहले यह आवश्यक है कि इन सारे कार्यक्रमों का सही मूल्यांकन हमारे सामने हो।
शिक्षा संस्थान खोलने के लिये केवल वोट की राजनीति ही आधार नही रहनी चाहिये। इस समय मुख्यमन्त्री दिल खोलकर प्रदेश में सभी जगह स्कूल/काॅलिज बांटते जा रहे हैं इसका कोई अध्ययन नही है। कि कहां पर स्कूल /काॅलिज खोलने के वांच्छित मानक पूरे है। एक संस्थान खोलने के लिये कम बच्चों की संख्या और अन्य आधार भूत सुविधांयों की निश्चितता पूरी तरह परिभाषित है लेकिन इन मानको को पूरी तरह नजर अंदाज किया जा रहा है। एक समय डीपीवीईपी कार्यक्रम के तहत इतने स्कूल खोल दिये गये थे कि आगे चलकर प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेशों पर स्कूलों का युक्तिकरण करते हुए कई स्कूल बन्द करने पडे थे। आज भी दर्जनों स्कूल ऐसे है जहां पर अध्यापकों की संख्या पूरी नहीं है। दर्जनो स्कूल ऐसे है कि जिनमें बच्चों की कम से कम संख्या भी पूरी नही है। अभी निराशाजनक परिणामों का संज्ञान लेेते हुए जो स्थानान्तरण किये गये है उनमें सामने आया है कि कितने स्कूलों में मुख्याध्यापकों/प्रिसिपलों के पद खाली है। इसलिये सबसे पहले इन खाली पदों को भरने के प्रयास किये जाने चाहिये। हर स्कूल में जब तक हर विषय का अध्यापक उपलब्ध नही होगा जब तक अच्छेे परिणामों की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। शिक्षा पर देश /प्रदेश का भविष्य आधारित है और एक लम्बे अरसे से शिक्षा क्षेत्र में ही व्यापारीकरण के आरोप लगते आ रहे है। इसी व्यापारीकरण का परिणाम है कि शिक्षा के क्षेत्र में नियामक आयोग नियुक्त करना पड़ा है। क्या नियामक आयोग अप्रत्यक्षततःसरकारी तन्त्र की असफलता की स्वीकारोक्ति नही हैं फिर यह नियामक आयोग अपने उद्देश्य में कितने सफल हो पाये है। यदि इस पर ईमानदरी से आकलन किया जाये तो इससे व्यापारीकरण के साथ ही भ्रष्टाचार का स्तर भी बढ़ गया है। इसलिये प्रदेश के भविष्य की चिन्ता करते हुए इस व्यापारीकरण को तुरन्त प्रभाव से रोकने की आवश्यकता है। क्योंकि सरकार से बड़ा कोई अदारा नही हो सकता जो शिक्षा और स्वास्थ्य को हर घर तक पहुंचाने की क्षमता रखता है। लेकिन इसमें गुणात्मक सुधार लाने के लिये शिक्षकों और अन्य सरकारी कर्मचारियों के लिये यह अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये कि वह अपने बच्चों को प्राईवेट स्कूलों/कालेजो में न पढायेें। क्योंकि जब तक इस तरह की अनिवार्यता नही ला दी जाती है। तब तक इसमें सुधार नही किया जा सकता। स्कूलों की संख्या बढ़ाने की बजाये स्कूलों में छात्रों और अध्यापकों की संख्या बढ़ाई जाये। संख्या बढ़ाने के लिये कम बच्चों वाले स्कूलों को बन्द करके उन बच्चों को बस सुविधा उपलब्ध करवायी जाये ताकि उन्हे स्कूल पहंुचने में कठिनाई न आये।

मोदी सरकार के दो वर्ष

शिमला। प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी की सरकार को सत्ता में आये दो वर्ष का समय हो गया है। सरकार की सफलता/असफलता के आकलन के लिये यह पर्याप्त समय माना जा रहा है। क्योंकि भाजपा पहले भी केन्द्र में सत्ता में रह चुकी है। कई बडे़ राज्यों में उसकी सरकारें है। मोदी स्वयं पन्द्रह वर्ष तक गुजरात के मुख्य मंत्री रह चुके है फिर 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी ने देश की जनता से साठ महीने का समय सरकार के लिये मांगा था। इस सबको सामने रखते हुए सरकार का एक निष्पक्ष आकलन बनता है। 2014 के चुनावों से पहले यू पी ए सरकार के खिलाफ सबसे बडा आरोप भ्रष्टाचार का था जनता में रामदेव और अन्ना के आन्दोलनों से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ा आक्रोश उभरा और उस आक्रोश में मोदी जनता की उम्मीदों के केन्द्र बन गये थे। लेकिन दो वर्ष के समय में यू पी ए शासन के खिलाफ भ्रष्टाचार के किसी भी मामलें में कोई ठोेस कारवाई अब तक सामने नही आई है। मोदी यह दावा कर रहे हैं कि उनकी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई मामला सामने नही आया है। लेकिन यहां प्रधानमंत्री को यह मानना होगा कि क्या वह अपनी राज्य सरकारों के बारे में भी ईमानदारी से यह दावा कर सकते हैं? केन्द्र में आज भ्रष्टाचार है या नही इसका पता आने वाले समय में लगेगा। प्रधानमन्त्री का यह दावा कि एल ई डी बल्बों, कैरोसीन तेल और फर्जी राशन कार्ड, फर्जी अध्यापक आदि कार्डो में लाख करोड़ से अधिक का पर्दाफाश करके इतने धन को बचा लिया गया है। प्रधानमन्त्री का यह दावा सही हो सकता है लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि इस भ्रष्टाचार के लिये किसे सजा दी गयी? क्या घपला सिर्फ कांग्रेस शासित राज्यों में ही हुआ है या भाजपा शासित राज्योें में भी फर्जीे राशन कार्ड पाये गये?े प्रधानमंत्री ने आधार कार्ड के साथ लिंक करके लाभार्थी को सीधा लाभ पहुंचाने का भी दावा किया है लेकिन मोदी जी को यह भी स्मरण रखना होगा कि यू पी ए शासन काल में इसी योजना पर भाजपा का विरोध कितना था। फिर इन सब दावों से इस सच्चाई को भी नजर अन्दाज नही किया जा सकता कि आज खाद्य पदार्थो की कीमतें पहलेे से ज्यादा बढ़ गयी है और इस मंहगाई को किसी भी गणित से नजर अन्दाज नही किया जा सकता ।

प्रधानमन्त्री ने इन दो वर्षो में जितनी विदेश यात्राएं की हंै और इन यात्राओं में जितने आपसी समझौते हुए हैैं उनसे आम आदमी को कितना लाभ अब तक मिल पाया है। इसको लेकर कोई दावा अब तक सामने नहीं आया है। काले धन का मसला अपनी जगह पहले की तरह ही खड़ा है। यह सही है कि इन विदेश यात्राओं में प्रधानमन्त्री जंहा भी गये हैं वहां रह रहे प्रवासी भारतीयों में उनको लेकर बड़ा उत्साह देखने को मिला है लेकिन आज भारत से बाहर रह रहे भारतीयों का प्रतिशत कितना है? देश की कुल आबादी के एक प्रतिशत से अधिक नही है। ऐसे में क्या सारी योजनाओं का केन्द्र केवल एक प्रतिशत लोगों को ही मान लिया जाना चाहिए? अभी तक मोदी सरकार ने जितनी भी विकास योजनाओं का चित्र देश के सामने रखा है उसका प्रत्यक्ष लाभ पांच प्रतिशत से अधिक के लिये नही है। प्रधानमंत्री ने स्वयं माना है कि गरीब आदमी को जो दो तीन रूपये किलो सस्ता अनाज मिल रहा है। उसमें 27 रूपये प्रति किलो की सब्सिडी केन्द्र सरकार दे रही है लेकिन यह जो 27 रूपये दिये जा रहे है यह धन कहां से आ रहा है? फिर सरकार यह 27 रूपये तो उस व्यापारी को दे रही है जो इस राशन की सप्लाई कर रहा है। इसी राशन में फर्जी बाडा भी हो रहा है। इसलिये इस व्यवस्था से किसी को भी लाभ नही हो रहा है न सरकार को और न ही अन्न उगाने वाले किसान का। इसलिये आज इतना बड़ा जन समर्थन हासिल करने के बाद मोदी सरकार सरकार को इस संद्धर्भ में अब तक जितनी भी योजनांए आम आदमी के नाम पर आयी हंै उनका सीधा लाभ बडे़ व्यापारी को ही हुआ है। क्योंकि वह हर येाजना में सप्लायर की भूमिका में रहा है। इसलिये यदि मोदी सरकार इस सप्लायर के चगंुल से आम आदमी को बचाने का प्रयास करती है तभी वह सफल हो पायेगी। शहरों के नाम बदलने उनको स्मार्ट बनाने और स्कूली पाठयक्रमों में कुछ बदलाव करके केवल समाज के अन्दर एक अलग तरह का तनाव पैदा किया जा सकता है लेकिन उससे आम आदमी का कोई स्थायी लाभ होने वाला नही है इसलिये अभी मोदी सरकार को व्यापक संद्धर्भो में सफल करार नही दिया जा सकता ।

कांग्रेस की हार का अर्थ

शिमला/शैल। चार राज्यों में हुए विधान सभा चुनावों में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा है। केवल केन्द्र शासित पांड़िचेरी में कांग्रेस को जीत हासिल हुई है। इन राज्यों में पहले केरल और असम में कांग्रेस की सरकारें थी। इन राज्यों में कांगे्रस न केवल हारी है बल्कि शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है। इन राज्यों में हुए चुनावों से पूर्व बिहार विधान सभा के चुनाव हुए थे और वहां पर कांग्रेस आर जे डी और जे डी यू मिलकर भाजपा को सत्ता से बाहर रखने में सफल हो गये थे। बिहार में भाजपा को मिली हार के बाद यह राजनीतिक चर्चा चल पड़ी थी कि अब गैर भाजपा दल मिलकर भाजपा का आगे आने वाले चुनावों में सत्ता से बाहर रखने में सफल होते जायेंगे। बिहार की जीत के बाद नीतिश कुमार ने भी राष्ट्रीय राजनीति में आने के संकेत दे दिये। नीतिश के संकेतों के साथ ही कांग्रेस ने उनके चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवाएं लेकर उनको यू पी की जिम्मेदारी सौंप दी है। लेकिन इन चार राज्यों के चुनावांे में भाजपा ने असम में शानदार जीत के साथ सरकार बनाने के साथ ही अन्य राज्यां में अपना वोट बैंक प्रतिशत बढाया है। इस चुनाव में भाजपा की असम जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल है कांग्रेस की हार।
कांग्रेस आज भी भाजपा से बड़ी राष्ट्रीय पार्टी है। देश के हर गांव मंे उसका नाम जानने और लेने वाला मिल जायेगा। क्योंकि देश की अग्रेंजी शासन से स्वतन्त्राता का सारा श्रेय आज भी उसी की विरासत माना जाता है। देश की स्वतन्त्राता के समय यहां की सामाजिक स्थितियां क्या थी और उनसे बाहर निकाल कर आज के मुकाम तक पहुंचाने में कांग्रेस के गांधी-नेहरू पीढ़ी के नेताओं का जो योगदान रहा है उसे आसानी से भुलाया नही जा सकता। भले ही आज नेहरू का नाम स्कूली पाठ्यक्रमों से बाहर रखने का एक सुनियोजित ऐजैन्डा और उस पर अमल शुरू हो गया है लेकिन आज केवल गांधी-नेहरू विरासत के सहारे ही चुनाव नही जीते जा सकते है। देश को आजादी मिले एक अरसा हो गया है। आज सवाल यह है कि इस अरसे में देश पहंुचा कहां है? आज देश की मूल समस्याएं क्या हैं। आज भी सस्ते राशन के वायदे पर चुनाव लडा और जीता जा रहा है। दो रूपये गेहूं और तीन रूपये चावल के चुनावी वायदे अपने में बहुत खतरनाक हंै। इनके परिणाम आने वाले समय के लिये बहुत घातक होंगे। क्योंकि इस सस्ते राशन के लिये धन कहां से आयेगा? फिर क्या किसान इस कीमत पर अनाज बेच सकता है। लेकिन आज इन सवालों पर कोई सोचने तक को तैयार नही है। आज चुनाव खर्च इतना बढ़ा दिया गया है कि आम आदमी चुनाव लड़ने का साहस ही नही कर सकता हैं बल्कि चुनाव की इच्छा रखने वाले हर व्यक्ति को राजनीतिक दलों के पास बंधक बनने के लिये विवश होने जैसी स्थिति बन गयी है। आज जिस तरह के चुनावी वायदे राजनीतिक दल करते आ रहे हैं और उनको पूरा करने की कीमत आम आदमी को कैसे चुकानी पड़ रही है उस पर अभी किसी का ध्यान नही है। लेकिन जब यह सवाल आम बहस का विषय बनेगें तब इसका परिणाम क्या होगा इसकी कल्पना से भी डर लगा है।
इस परिदृष्य में आज कांगे्रस जैसे बड़े दल का यह दायित्व है कि वह इन चुनाव परिणामों की समीक्षा अपनी विरासत की पृष्ठ भूमि को सामने रखकर करे। आज भ्रष्टाचार बेरोजगारी और मंहगाई ही देश की सबसे बड़ी समस्यायें और इनका मूल चुनावी व्यवस्था है। कांग्रेस पिछले लोकसभा चुनावों से लेकर अब तक जो कुछ खो चुकी है उसके पास शायद अब और ज्यादा खोने को कुछ नही रह गया है पंजाब और यू पी के चुनावों में भी कांग्रेस के लिये बहुत कुछ बदलने वाला नही है। ऐसे में यदि कांग्रेस अपने अन्दर बैठे भ्रष्ट नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा देती है तो उसकी स्थिति में बदलाव आ सकता है अन्यथा नही।

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