Friday, 19 September 2025
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वाटर सैस लगाकर संसाधन जुटाने पर लगा प्रश्नचिन्ह

  • केन्द्र ने उपकर को असंवैधानिक करार दिया
  • गारंटीयां पूरी करने के लिये कर्ज और कर एकमात्र सहारा
शिमला/शैल। कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में प्रदेश की जनता को दस गारंटीयां दी हैं। इन गारंटीयों को पूरा करने के लिये आर्थिक संसाधन चाहिये। यह संसाधन जुटाने की दिशा में सुक्खू सरकार ने जल विद्युत परियोजनाओं पर वाटर सैस लगाने का फैसला लिया। सरकार को अफसरशाही से यह फीडबैक मिला की जल उपकर लगाकर चार हजार करोड़ सरकार को प्रतिवर्ष मिल सकते हैं। यह राय मिलते ही सरकार ने बजट सत्र से पहले ही एक अध्यादेश के माध्यम से यह फैसला लागू कर दिया। बजट सत्र में इस आश्य का विधेयक पारित करके पुख्ता काम कर दिया। बजट सत्र में चर्चा के दौरान विपक्ष की ओर से इस पर कई गंभीर सुझाव भी आए थे और उनमें कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु और आशंकायें भी उठाई गयी थी। इस उपकर को एक जल विद्युत परियोजना नन्ती जल विद्युत परियोजना प्रा.लि. ने प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दे रखी है और उस पर संबद्ध पक्षों को नोटिस भी जारी हो गये हैं।
लेकिन इसी बीच भारत सरकार के ऊर्जा मंत्रालय से सभी प्रदेशों और केन्द्र शासित राज्यों के मुख्य सचिवों के नाम 25 अप्रैल को एक पत्र जारी करके कहा गया है कि ऐसा उपकर लगाना एकदम असंवैधानिक है। पत्र में इस विषय के कानूनी और संवैधानिक पक्षों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इस पत्र से स्पष्ट हो जाता है कि राज्य सरकार का यह फैसला असंवैधानिक और गैरकानूनी है तथा उच्च न्यायालय में टिक नहीं पायेगा। इससे जहां सरकार के संसाधन जुटाने के प्रयासों पर गंभीर प्रश्न चिन्ह लग गया है वहीं पर अफसरशाही की गंभीरता पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया है क्योंकि इस फैसले से जल विद्युत उत्पादन प्रभावित होते हैं और वह इसे अदालत में चुनौती देंगे ही। यहां प्रश्न यह उठ रहा है कि जिन संवैधानिक पक्षों को केन्द्र की अफसरशाही ने उठाया है उन्हें प्रदेश की अफसरशाही नजरअन्दाज कैसे कर गयी। अब केन्द्र के पत्र से इस उपकर पर आपत्ति उठाने वाले उत्पादकों का पक्ष पुख्ता हो जाता है।
इस परिदृश्य में यह स्वभाविक सवाल भी उठेगा कि जब सरकार संसाधन ही नहीं जुटा पायेगी तो फिर यह गारंटियां कैसे पूरी हो पायेंगी। निश्चित है की गारंटिया पूरी करने के लिए सरकार के पास कर्ज लेने और कर लगाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता है। ऐसे में कर्ज का जो आरोप कल तक पूर्व की जयराम सरकार पर लगता था अब वही आरोप इस सरकार को भी सहना पड़ेगा। क्योंकि केन्द्र के इस पत्र पर राज्य सरकार की कोई प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आयी है। यह पत्र नगर निगम शिमला के चुनावों के मध्य आया है और इसका प्रभाव चुनाव में भी पड़ जाये तो कोई हैरानी नहीं होगी।
 
यह है पत्र
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

डॉ. राजीव बिन्दल के पुनः प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनने के राजनीतिक मायने

  • निगम चुनावों के लिये उत्तर प्रदेश से प्रभारी लाने का अर्थ क्या चुनावी गंभीरता नहीं है
  • भाजपा की आक्रामकता में कमी आना क्या बदलाव का कारण नहीं है
  • क्या बिन्दल सरकार के खिलाफ आक्रामकता को धार दे पायेंगे?

शिमला/शैल। पूर्व मंत्री और पांच बार विधायक रह चुके डॉ. राजीव बिन्दल का पुनः प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनना राजनीतिक हलकों में एक बड़ा संकेत और संदेश माना जा रहा है। क्योंकि बिन्दल धूमल मंत्रिमण्डल में मंत्री थे लेकिन जयराम सरकार में मंत्री की जगह विधानसभा अध्यक्ष बनाये गये। परन्तु यह अध्यक्षी भी ज्यादा देर नहीं चली और विपिन परमार के लिये इसे छोड़कर पार्टी की अध्यक्षता संभालनी पड़ी। यह पार्टी अध्यक्षता भी ज्यादा देर टिक नहीं पायी। इसी परिदृश्य में विधानसभा के चुनाव हो गये और बिन्दल हार गये। इस हार को यह मान लिया गया कि अब बिन्दल सक्रिय राजनीति से बाहर हो गये हैं। जब उन्हें शिमला नगर निगम के चुनावों में भी कोई बड़ी भूमिका नहीं मिली तो राजनीतिक सक्रियता से बाहर होने के सन्देश पर एक तरह से मोहर ही लग गयी। ऐसे में इसी नगर निगम के चुनाव में पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया जाना अपने में ही कई अर्थ रखता है। इन अर्थों तक पहुंचने के लिये विधानसभा चुनावों से लेकर अब तक जो कुछ प्रदेश की राजनीति में घटा है उस पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है।
विधानसभा चुनावों में प्रदेश भाजपा के पास सबसे बड़ा हथियार डबल इंजन की सरकार होना था। इसी डबल इंजन के सहारे भाजपा ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में सत्ता में वापसी की थी। इस डबल इंजन का संदेश पुख्ता करने के लिये प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने प्रदेश चुनाव रैलियों के लिये पूरा समय दिया। लेकिन अनुराग के हमीरपुर और बिन्दल के गृह जिला सोलन में भाजपा का खाता भी नहीं खुल पाया। यदि जयराम की मण्डी ने दस में से नौ सीटें भाजपा को न दी होती तो शायद कांग्रेस का आंकड़ा पच्चास पहुंच जाता। भाजपा हाईकमान के लिये यह हार अप्रत्याशित थी क्योंकि हिमाचल राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा का गृह राज्य था। प्रदेश भाजपा अपनी हार के कारणों पर खुलकर चर्चा तक नहीं कर पायी है। प्रदेश भाजपा कि इस स्थिति को सामने रखकर हाईकमान ने अपने स्तर पर हार के कारण तलाशने का काम किया और भीतरी गुटबाजी को इसका कारण माना जो कि नगर निगम शिमला के टिकट आवंटन में भी खुलकर सामने आ गया है।
यही नहीं प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद जिस तरह से पूर्व सरकार के छः माह के फैसले बदलने के नाम पर करीब नौ सौ संस्थान बन्द किये गये। उस पर भाजपा ने बिना कोई समय गंवाये पूरी आक्रामकता अपनाई। प्रदेश के कोने-कोने तक इस मुद्दे को ले गये। उच्च न्यायालय में याचिका तक दायर हो गयी। लेकिन जब सुक्खू सरकार ने मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति की तो भाजपा की आक्रामकता की धार काफी कुन्द हो गयी। उधर सुक्खू सरकार वायदे के बावजूद प्रदेश की आर्थिकी पर श्वेत पत्र नहीं ला पायी। आक्रामकता की धार कुन्द होने से यह संदेश चला गया कि इन हथियारों से नगर निगम शिमला के चुनाव में कोई सफलता मिल पाना कठिन होगा। जबकि कर्नाटक चुनावों से पहले नगर निगम शिमला के चुनाव हो रहे हैं और कर्नाटक चुनावों में भाजपा के कई बड़े चेहरे पार्टी छोड़ कांग्रेस में जा चुके हैं। भाजपा के लिये राष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश घातक है। इसलिये कांग्रेस कमजोर, सक्षम नहीं है यह सन्देश देने के लिये किसी कांग्रेस शासित राज्य में कांग्रेस को छोटी-बड़ी चुनावी हार पहुंचाना आवश्यक है। इसके लिये शिमला नगर निगम के चुनावों से बेहतर और कोई अवसर हो नहीं सकता। इसलिये नगर निगम चुनावों में हाईकमान ने उत्तर प्रदेश के विधायक और पूर्व मंत्री को चुनाव प्रभारी बनाकर भेजा। चुनावों के बीच प्रदेश अध्यक्ष और संगठन मंत्री बदल दिये। यह फेरबदल करके यह सन्देश देने का प्रयास किया गया है कि भाजपा हाईकमान प्रदेश की हर घटना पर अपने तरीके से नजर रख रही है।
इस परिदृश्य में यह देखना रोचक होगा कि डॉ. बिन्दल इतने अल्प समय में भाजपा की आक्रामकता को कैसे धार दे पाते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में अभी चार माह के अल्प समय में ही जो कुछ घट गया है उसी पर सरकार को घेरा जा सकता है। प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर जनता को श्रीलंका जैसे हालात होने की चेतावनी देने वाली सरकार जब पहले बजट सत्र में ही श्वेत पत्र न ला पाये तो उसके वित्तीय फ्रन्ट पर उठाये गये सारे आरोप बेमानी हो जाते हैं। क्योंकि आर्थिकी पर श्वेत पत्र की प्रसंगिकता केवल पहले बजट सत्र में होती है। क्योंकि अगले सत्रों में तो इस मुद्दे पर सरकार के अपने ऊपर सवाल आने शुरू हो जायेंगे। माना जा रहा है कि यदि डॉ. बिन्दल आक्रामकता को धार दे पाये तो सरकार के लिये यह चुनाव भी बहुत आसान नहीं रहेगा।

‘‘देश के गद्दारों को गोली मारो’’ प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट से नोटिस जारी

शिमला/शैल। स्मरणीय है कि जनवरी 2020 में यह भाषण एक रैली को संबोधित करते हुये केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और दिल्ली के सांसद प्रवेश वर्मा ने यह भाषण दिया था। उस दौरान नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में केन्द्र सरकार के खिलाफ धरने प्रदर्शन चल रहे थे। ऐसा ही एक धरना शाहीन बाग में चल रहा था। वहीं पर एक भाजपा चुनावी रैली को संबोधित करते हुये इन नेताओं ने यह भाषण दिये थे। चुनाव आयोग ने इसका संज्ञान लेते हुये इनके चुनाव प्रचार में कुछ समय के लिये प्रतिबन्ध भी लगा दिया था। इन भाषाओं का संज्ञान लेते हुए सी.पी.एम. नेता वृंदा करात ने दिल्ली की एक अदालत में इनके खिलाफ अपराधिक मामला दर्ज करने की मांग कर दी। अदालत ने यह मांग यह कह कर अस्वीकार कर दी की एफ.आई.आर. दर्ज के लिये अनुमति चाहिये जो इस मामले में नहीं है। निचली अदालत के इस फैसले के खिलाफ करात दिल्ली उच्च न्यायालय पहुंच गयी। लेकिन उच्च न्यायालय ने भी एफ.आई.आर. दर्ज करने के लिये स्वीकृति चाहिये के तर्क को बहाल रखते हुये वृंदा की याचिका को खारिज कर दिया। उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ वृंदा एस.एल.पी. में सुप्रीम कोर्ट पहुंच गयी। सर्वोच्च न्यायालय की जस्टिस के.एम.जोसेफ और बी.वी. नागरत्ना की खंडपीठ ने इस पर नोटिस जारी कर दिये हैं। उच्च न्यायालय ने प्रथम दृष्टया मैजिस्ट्रेट के अनुमति के तर्क को सही नहीं माना है। हेट स्पीच के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस को ही एफ.आई.आर. दर्ज करने के निर्देश दे रखे हैं। एफ.आई.आर. दर्ज करने के लिये भ्रष्टाचार के मामलों में अनुमति चाहिये अपराधिक मामलों में नहीं। राहुल गांधी के खिलाफ एक मानहानि के मामले में आये फैसले के बाद अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा प्रकरण की गंभीरता बढ़ जाती है। राहुल गांधी के ब्यान से इन नेताओं का ब्यान ज्यादा गंभीर है। राहुल ने भी चुनावी रैली में ही ब्यान दिया था और उसका कोई संज्ञान चुनाव आयोग ने नहीं लिया था। जबकि अनुराग और प्रवेश शर्मा के ब्यानों का संज्ञान लेकर चुनाव आयोग ने इन के प्रचार पर भी कुछ घंटों के लिये प्रतिबन्ध लगा दिया था। फिर इनके ब्यानों के कुछ दिन बाद शाहीन बाग में बंदूक की घटना घट गयी थी। आज जिस तरह का राजनीतिक माहौल बनता जा रहा है उसके परिदृश्य में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी नोटिस के बाद इसकी गंभीरता बढ़ जाती है। अनुराग ठाकुर हिमाचल से सांसद हैं ऐसे में प्रदेश की राजनीति पर भी इसका प्रभाव पड़ने से इन्कार नहीं किया जा सकता है।

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