Friday, 19 September 2025
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प्रधानमंत्री की मण्डी यात्रा से हिमाचल को क्या मिला पूछा जाने लगा है यह स्वाल

क्या 35 किलो का त्रिशूल भेंट करने और क्या काशी विश्वनाथ में की पूजा का आपस में संबंध है
शिमला/शैल। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मण्डी यात्रा से प्रदेश और भाजपा सरकार को क्या हासिल हुआ है। यह स्वाल अब प्रशासनिक तथा राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय बना हुआ है। क्योंकि मण्डी आयोजन के अवसर पर यह उम्मीद थी कि कर्ज के चक्रव्यूह में लगातार फंसते जा रहे प्रदेश को इससे उबारने के लिए प्रधानमंत्री कोई आर्थिक सहायता देकर जायेंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया है। डबल ईंजन की सरकार का दम भरने वाली जयराम सरकार को इस अवसर पर निराशा क्यों हाथ लगी यह बड़ा सवाल बन गया है। जय राम सरकार ने शिव की संज्ञा से संबोधित हो चुके नरेंद्र मोदी को 35 किलो के वजन का अष्ट धातु से निर्मित त्रिशूल भी भेंट किया लेकिन मोदी फिर भी नहीं पसीजे। यह अलग बात है कि इस त्रिशूल को मोदी मंच पर हाथ में उठाकर जनसमूह को लहरा कर बता नहीं पाये। वैसे कुछ लोग इस त्रिशूल प्रकरण को काशी विश्वनाथ के गर्भगृह में प्रधानमंत्री द्वारा की गयी पूजा-अर्चना के साथ जोड़कर भी देख रहे हैं। चर्चा है कि यहां पर जिस पंडित ने प्रधानमंत्री से यह पूजा-अर्चना करवायी है वह पंडित उस दिन इस पूजा का अधिकारी ही नहीं था। क्योंकि उस दिन वह स्वयं पातक का दोषी था। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार सूतक और पातक से ग्रस्त व्यक्ति के लिए ऐसे काल में पूजा-अर्चना करना तो दूर बल्कि ऐसा व्यक्ति ऐसे समय में मंदिर में प्रवेश करने का भी अधिकारी नहीं होता है।
लेकिन पंडित ने इसका ध्यान न रखकर प्रधानमंत्री से यह पूजा करवा दी। इस अनाधिकारिक प्रयास की शिकायत काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व न्यासी प्रदीप कुमार बजाज ने पी.एम.ओ. और हिमाचल यूके एक न्यूज़ पोर्टल से की है। शिकायत में यह कहा गया है कि ऐसी ही गलती पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी से कमलापति त्रिपाठी ने करवायी थी। इस शिकायत पर भी पी.एम.आ.े द्वारा शायद जांच भी आदेशित हो चुकी है। ऐसे में ज्योतिष और तंत्र के ज्ञाता जब इन दोनों प्रसंगों को एक साथ जोड़ कर देख रहे हैं। तो उनकी प्रतिक्रियाएं सब इस संदर्भ में काफी गंभीर हो रही हैं। यह एक संयोग घटा है कि हिमाचल के मण्डी आयोजन से पहले काशी विश्वनाथ का प्रसंग घट गया और मण्डी में 35 किलो के वजन का त्रिशूल हाथ से नहीं उठाया गया। अब इस सबका प्रदेश और जयराम सरकार पर भी कोई प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है या नहीं यह एक अलग चर्चा का विषय बना हुआ है। हिमाचल को प्रधानमंत्री अपनी यात्रा में कुछ देकर नहीं गये हैं यह सामने है। इसी के साथ यह भी सामने है कि उपचुनावों में हुई शर्मनाक हार के बावजूद सरकार और संगठन में कोई बदलाव देखने को नहीं मिला है। प्रधानमंत्री के मण्डी आगमन से पहले मुख्यमंत्री ने एक साक्षात्कार में यह दावा किया था कि सरकार और संगठन में कुछ बदलाव होना अवश्य हो गये हैं और इस संबंध में हाईकमान से बात कर ली गयी है। लेकिन मुख्यमन्त्री के इस दावे के बावजूद अभी तक कोई बदलाव हो नहीं पाया है।
इसी पूरी वस्तुस्थिति पर नजर रख रहे विश्लेषकों का मानना है कि प्रधानमंत्री और हाईकमान का पूरा ध्यान उत्तर प्रदेश पर केंद्रित होने के कारण किसी भी प्रदेश के बारे में कोई कार्रवाई नहीं की जा पा रही है। इसलिए हिमाचल को लेकर जो भी फैसला लिया जायेगा वह उत्तर प्रदेश की स्थिति के साथ ही जुड़ा होगा। इस समय दिल्ली, हरियाणा पंजाब, उत्तराखंड आदि प्रदेशों में भाजपा की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। हिमाचल में भी उप चुनाव के परिणामों में भाजपा के लिए खतरे के संकेत स्पष्ट दे दिये हैं। उधर आर.एस.एस. ने भी अपना पूरा ध्यान हिमाचल पर केंद्रित कर रखा है। प्रदेश की हर पंचायत में शाखा स्थापित करने के निर्देश जारी कर दिये हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि संघ के लिये हिमाचल कितना महत्वपूर्ण है और संघ का भाजपा में क्या स्थान है। प्रदेश में संघ और जयराम सरकार के रिश्तों को लेकर पिछले दिनों कई सवाल भी उठते रहे हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि उपचुनाव के परिणामों के बाद संघ और हाईकमान दोनों ही कोई भी कड़ा फैसला लेने से कोई गुरेज नहीं करेगा। क्योंकि जहां हिमाचल आर्थिक कठिनाइयों से गुजर रहा है वहीं पर केंद्र द्वारा अब तक प्रदेश को करीब तीन लाख करोड़ दिये जाने के दावां का कोई खंडन तक जारी नहीं किया है। फिर इसी के साथ सीएजी की यह रिपोर्ट सामने आना की जयराम सरकार ने 96 योजनाओं पर एक भी पैसा तक खर्च नहीं किया है। इससे सरकार के वित्तीय प्रबंधन पर कई गंभीर सवाल उठ खड़े हुये हैं। इस सब को एक साथ मिलाकर देखने से राज्य सरकार के बारे में बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है।

प्रधानमंत्री की सभा में लोग लाने की जिम्मेदारी लगी प्रशासन के नाम

लाभार्थियों के नाम पर मुख्य सचिव को लिखना पड़ा पत्र
कांग्रेस के समय की योजनाओं के हो रहे उद्घाटन/ शिलान्यास
सावड़ा कुडू का 19-6-2005 को वीरभद्र ने किया था उद्घाटन
केंद्र द्वारा दी गई 72000 करोड़ और 2,30,000 की सहायता पर उठे सवाल
मंत्रिमंडल की पहली बैठक में किये भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस के वादे का क्या हुआ
कांग्रेस के अंतिम छः माह के फैसलों की समीक्षा कहां रह गयी

शिमला/शैल। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रस्तावित मण्डी यात्रा के अवसर पर जयराम सरकार ने बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करके प्रदेश की जनता को यह जानकारी दी है कि इस अवसर पर 210 मेगावाट की लूहरी, 66 मेगावाट की धौलासिद्ध, 111 मेगावाट की सावड़ा कुडू और 143 मेगावाट की रेणुका सागर पनबजली परियोजना के उद्घाटन/ शिलान्यास करेंगे। इन योजनाओं के लिये जयराम सरकार ने कितना काम किया है और केंद्र की मोदी सरकार ने कितनी आर्थिक सहायता दी है इसका कोई ब्योरा जारी नहीं किया गया। जिसके लिये आज श्रेय लिया जाये। क्योंकि सावड़ा कुडू परियोजना एशियन विकास बैंक के सहयोग से बनी है और जनवरी 2021 से उत्पादन में आकर अब तक 120 करोड़ की बिजली बेच भी चुकी है। इस परियोजना की आधारशिला स्व. वीरभद्र सिंह ने 19 जून 2005 को रखी थी। धौलासिद्ध और लूहरी दोनों का काम एसजेवीएनएल के पास है और एक-एक डायवर्जन टनल तैयार हो चुकी है। इसी तरह रेणुका सागर बांध परियोजना का काम भी काफी समय से चला हुआ है। 2018 से ही कई बैठकें हो चुकी हैं। कुल मिलाकर यह सारी योजनाएं ऐसी हैं जिनका कोई उदघाटन/शिलान्यास इस समय नहीं बनता है। लेकिन जयराम सरकार प्रधानमंत्री से यह सब करवाने जा रही है। स्वभाविक है कि प्रधानमंत्री को इस की व्यवहारिक जानकारी न हो और उनसे केवल अपनी पीठ थपथपाना ही इसका उद्देश्य रहा हो। लेकिन प्रदेश की जनता तो यह सब जानती है और वह इस पर किसी भी तरह गुमराह नहीं होगी। राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में चुनावी वर्ष में इस तरह के कामों से कोई लाभ नहीं मिलेगा बल्कि इससे प्रधानमंत्री की छवि को भी ठेस पहुंचेगी।
बल्कि इस अवसर पर यह सवाल पूछा जायेगा कि 2017 के चुनाव से पहले घोषित 69 राष्ट्रीय राजमार्गों का क्या हुआ है। स्मरणीय है कि इन राजमार्गों की जानकारी प्रदेश की जनता को जगत प्रकाश नड्डा ने यह कह कर दी थी कि उन्हें इस आशय का गडकरी के यहां से पत्र मिला है। लेकिन आज यह राजमार्ग प्रदेश की जनता के साथ एक मजाक साबित हुये हैं। 2017 के चुनाव में ही मण्डी की एक जनसभा में प्रधानमंत्री ने स्व. वीरभद्र सिंह से प्रदेश को दिये गये 72000 करोड़ का हिसाब मांगने की बात की थी। यही नहीं 2019 के चुनावांे में गृह मंत्री अमित शाह ने चुनावी रैली में केंद्र से मिली सहायता का आंकड़ा 2,30,000 करोड बताया है। लेकिन आज तक जयराम सहायता के इन आंकड़ांे को प्रदेश की जनता के सामने नहीं रख पायी है। आने वाले विधानसभा चुनाव में यदि प्रदेश के हर मतदाता ने यह सवाल पूछने शुरू कर दिये तो सरकार के सामने एक ऐसी परिस्थिति खड़ी हो जायेगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। क्योंकि 2017 का 46,500 करोड का कर्ज बढ़कर आज 70,000 करोड़ तक पहुंच रहा है। दूसरी ओर 2019-20 की आई कैग रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है की सरकार ने 96 योजनाओं में एक फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की और न ही इसका कोई कारण बताया है। इस खुलासे से यही सामने आता है कि सरकार यही समझती है कि जनता उसकी हर बात पर आंख मूंदकर विश्वास कर लेती है।
इस अवसर पर यह स्मरण करना भी आवश्यक हो जाता है कि जयराम सरकार ने अपने मंत्रिमंडल की पहली बैठक में जनता से क्या वायदे किये थे। उल्लेखनीय है कि जनवरी 2018 की पहली की बैठक में यह वायदा किया था कि भ्रष्टाचार कतई सहन नहीं होगा। इस वायदे की पूर्ति में अपने ही सौंपे किसी आरोप पत्र पर कोई कार्रवाई नहीं कर पायी है। जिस बिवरेज कॉरपोरेशन को लेकर बड़ा आडंबर खड़ा किया गया था उसका क्या हुआ। इसकी कोई आधिकारिक जानकारी बाहर नहीं आयी। पहली बैठक में यह कहा गया था कि कांग्रेस सरकार द्वारा पिछले 6 माह में लिये गये फैसलों की समीक्षा होगी और गलत फैसलों को बदला जायेगा। लेकिन 4 वर्षों में ऐसा कुछ भी सामने नहीं आया है कि कांग्रेस का यह फैसला गलत था और इसे बदला गया है। इसी बैठक में यह भी फैसला लिया गया था कि सरकार हर विभाग को 100 दिन की कार्ययोजना बनाने के लिए कहे और फिर उसकी समीक्षा करेगी। पहली बैठक में उद्योगों को 5 वर्ष के लिए करों में सौ प्रतिश्त छूट की भी घोषणा की गयी थी लेकिन इस घोषणा के बावजूद हर वर्ष कर राजस्व में बढ़ोतरी हुई है जिसका अर्थ है कि आम आदमी पर करों का बोझ बढ़ाया जा रहा है। शायद इन्हीं नीतियों का परिणाम है कि आज प्रधानमंत्री की जनसभा में लोगों को लाने की जिम्मेदारी प्रशासन को सौंपी गई है। और इसके लिए मुख्य सचिव को लिखित में आदेश जारी करने पड़े। लोगों को लाने उनको ठहराने और उनके खाने की व्यवस्था प्रशासन को करनी पड़ रही है। जब इस पर विपक्ष ने सवाल उठाया तो भाजपा की ओर से यह कहा गया कि राहुल गांधी की रैली के लिए कांग्रेस ने भी ऐसा ही किया था। इससे यह सवाल उठना शुरू हो गया है कि क्या भाजपा ने यह वादा किया था कि वह कांग्रेस से भी बड़े भ्रष्टाचार करेगी।


क्या सामान्य वर्ग आयोग का गठन एक राजनीतिक विवश्ता हो गयी थी

क्या आरक्षण के किसी भी प्रावधान कोई बदलाव राज्य सरकार कर सकती है
क्या स्वर्ण मोर्चा की मांगों को संसद या सर्वोच्च न्यायालय तक ले जायेगी प्रदेश भाजपा
अन्य पिछड़े वर्गों का आरक्षण अभी भी 18% तक ही क्यों लटका है
जनजातीय क्षेत्रों के बजट में 3% की कटौती का प्रस्ताव क्यों

शिमला/शैल। जयराम सरकार को स्वर्ण मोर्चा के दबाव के आगे सामान्य वर्ग आयोग के गठन की अधिसूचना जारी करनी पड़ी है। स्वर्ण मोर्चा लंबे समय से इस आयोग के गठन की मांग कर रहा था। विधानसभा के पिछले सत्र में भी मोर्चा के लोगों ने सदन के बाहर प्रदर्शन किया था। उस समय कांग्रेस विधायक विक्रमादित्य सिंह ने भी इस मांग का समर्थन किया था। मुख्यमंत्री ने भी यह आश्वासन दिया था कि सरकार आयोग का गठन करेगी। इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब आयोग के गठन के लिए सरकार वचनबद्ध थी तो फिर मोर्चा के लोगों का हरिद्वार तक की पदयात्रा, शिमला में एट्रोसिटी एक्ट की शव यात्रा और अंत में धर्मशाला में मोर्चा को उग्र आंदोलन तक ले जाने की राजनीतिक आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या यह आंदोलन प्रायोजित था? क्या इस आंदोलन और आयोग के गठन के पीछे कोई लंबी रणनीति है? यह सवाल इसलिए प्रसांगिक हैं क्योंकि ऐसे आयोग के गठन को किसी भी अधिनियम से बल नहीं मिलता है। इसे आयोग का गठन होने से किसी को लाभ नही मिल पायेगा। क्योंकि स्वर्ण मोर्चा की जो भी मांगे जातिगत आरक्षण हटाने को लेकर है उन पर कुछ भी कर पाना प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र में है ही नहीं। राज्य सरकार केवल केंद्र सरकार को इस तरह के आग्रह की सूचना और सिफारिश ही भेज सकती है। इस व्यवहारिक पक्ष को सामने रखते हुये सामान्य वर्ग आयोग के गठन से आने वाले दिनों में एक ऐसे राजनीतिक वातावरण की परिस्थितियां निर्मित हो जायेंगी जो सरकार और प्रदेश दोनों के ही हित में नहीं होंगी।
यह स्पष्ट है कि स्वर्ण मोर्चा की मुख्य मांग है कि जातिगत आरक्षण समाप्त करके सारा आरक्षण आर्थिक आधार पर किया जाये। पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता शांता कुमार ने भी एक बयान में मोर्चा की इस मांग का समर्थन करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे आंदोलन की आवश्यकता पर बल दिया है। शांता कुमार के इस बयान से यह संकेत उभरते हैं कि इस तरह के किसी आंदोलन की भूमिका तैयार की जा रही है। क्योंकि जातिगत आरक्षण देश की संसद द्वारा आयोगों काका कालेलकर 1953 और वी पी मंडल 1979 तथा विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा आरक्षण के आकार और आधार निर्धारित करने के लिए गठित 17 आयोगों की सिफारिशों के आधार पर लागू किया गया था। इसमें दोनों केंद्रीय आयोगों ने जाति को आरक्षण का आधार माना था। जबकि राज्य स्तर पर 17 में से चार कर्नाटक जम्मू-कश्मीर पश्चिम बंगाल और गुजरात ने आर्थिक स्थिति को आरक्षण का आधार माना था। इस परिदृश्य में जब मंडल आयोग की सिफारिसें 1990 में लागू करने का फैसला वी पी सिंह सरकार ने किया तब देश में किस तरह का हिंसक विरोध हुआ था यह सब जानते हैं। इसी विरोध के परिणाम स्वरूप वी पी सिंह की सरकार गिर गई थी। इसके बाद पी बी नरसिंह राव सरकार आयी। इस सरकार ने 25 सितम्बर 1991 को उंची जातियों के आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबकों के लिए 10% अतिरिक्त आरक्षण देने का फैसला लिया। क्योंकि 1963 में ही सर्वोच्च न्यायालय बालाजी बनाम मैसूर राज्य में यह फैसला दे चुका था कि आरक्षण 50% से कम होना चाहिए। इस पर मंडल आयोग की सिफारिशों का मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया। 16 नवंबर 1992 को इंदिरा साहनी बनाम भारत का सरकार में ऐतिहासिक फैसला आ गया और आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% निर्धारित कर दी गयी। 8 सितंबर 1993 को इस फैसले को लागू करने की अधिसूचना जारी हो गयी। जिसमें अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27%आरक्षण कर दिया गया। इसमें यह महत्वपूर्ण रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उंची जातियों के आर्थिक रूप से दुर्बल वर्गों और पिछड़ी जातियों के सम्पन लोगों के लिए आरक्षण को सामान्य करार दे दिया। इसके लिए संविधान की धारा 16(4) को आधार बनाया गया इसी में पिछड़ी जातियों के संपन्न लोगों को चिन्हित करने के लिए क्रीमी लेयर का मानक रखा गया। उस समय यह क्रीमी लेयर एक लाख आय रखी गयी थी जो अब मोदी सरकार ने बढ़ाकर आठ लाख कर दी है। यही नहीं सर्वोच्च न्यायालय ने जब भी आरक्षण को लेकर कोई व्यवस्था देने का प्रयास किया है तो मोदी सरकार ने ऐसे हर प्रयास को संसद में निरस्त कर दिया है। आज भी हिमाचल प्रदेश में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए तय आरक्षण की 27 प्रतिशत सीमा का व्यवहारिक रूप से पालन नहीं हो रहा है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण अभी 18%से आगे नहीं बढ़ पाया है। अन्य क्षेत्रों में तो यह 10% से भी बहुत कम है। दूसरी ओर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए जो 9% बजट का प्रावधान रखा गया है उसमें से भी 3% काटकर उन जनजातियों को देने का फैसला लिया जा रहा है जो जनजातीय क्षेत्रों से बाहर रह रही हैं। जबकि इन्हीं वर्गों ने पिछले दिनों शिमला में आयोजित एक सम्मेलन यह आरोप लगाया है कि उनके लिए आवंटित बजट का 7% भी खर्च नहीं किया जा रहा है।
इस वस्तु स्थिति में सामान्य वर्ग आयोग स्वर्ण मोर्चा की मांगों पर अमल करने के लिए क्या कर पायेगा। क्योंकि आरक्षण के किसी भी प्रावधान को बदलने या उसमें कुछ जोड़ने घटाने का एक ही मंच है और वह संसद है। दूसरा मंच सर्वोच्च न्यायालय है लेकिन उसके फैसलों को बदलने का अधिकार संसद के पास रहता है। ऐसे में जब आने वाले दिनों में मोर्चा का नेतृत्व सरकार से यह पूछेगा कि उसकी मांगों का क्या हुआ तो सरकार क्या जवाब देगी। क्या सरकार मोर्चा की मांगे केंद्र सरकार को भेजेगी और अपने सांसदों के माध्यम से संसद में उठवायेगी? या सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटायेगी? यह सवाल चुनावी वर्ष में हर रोज उठाने के लिये मंच तो बन ही चुका है। इसी के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी उनके लिये तय आरक्षण कि 27 प्रतिशत सीमा की हर क्षेत्र में अनुपालन की मांग करेंगे। जनजातीय क्षेत्रों के बजट में 3% की कटौती के प्रस्ताव पर यहां के नेतृत्व की प्रतिक्रिया क्या रहेगी यह देखना भी दिलचस्प होगा। सरकार ने स्वर्ण मोर्चा के प्रदर्शन के दबाव में आयोग का गठन कर दिया पेंशन योजना के प्रदर्शन पर उनके लिये कमेटी का गठन कर दिया। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि अपनी मांग मनवाने के लिये सरकार को आंखे दिखाने का ही विकल्प शेष रह गया है।

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