अनुराग की यात्रा में मिला जन समर्थन भी चुनाव का साहस नहीं दे पाया
क्या उपचुनाव टालने के बाद स्वर्ण जयन्ती समारोहों का आयोजन हो पायेगा
क्या मुख्यमन्त्री और मन्त्री राजनीतिक रैलियां जारी रख पायेंगे
क्या इस दौरान की गई करोडों की घोषणायें अभी अमली शक्ल ले पायेंगी
क्या उपचुनावों से भागना सरकार की राजनीतिक मजबूरी है
शिमला/शैल। चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के उपचुनावों की तारीखें घोषित करते हुए अन्य राज्यों की 32 विधानसभा सीटों और तीन लोकसभा सीटों के लिये उपचुनाव अभी टाल दिये हैं। इसमें हिमाचल में होने वाले चारों उपचुनाव भी टल गये हैं। चुनाव आयोग ने यह फैसला संबंधित राज्यों के मुख्य सचिवों, स्वास्थ्य विभाग और गृह विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों और मुख्य निर्वाचन अधिकारियों के साथ पहली सितम्बर को हुई बातचीत में दिये गये फीड बैक के आधार पर लिया है। इसमें कोविड, बाढ़ और त्यौहारों को लेकर स्थिति की रिपोर्ट लिखित में लेने के बाद चुनाव टाले गये हैं। बंगाल और उड़ीसा में 30 सितम्बर को मतदान होगा और मतों की गिनती 3 अक्तूबर को होगी। हिमाचल की ओर से फीडबैक मुख्यसचिव, स्वास्थ्य सचिव और डी जी पी की ओर से दिया गया है।
प्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में इस फैसले को सरकार का उपचुनावों से भागना करार दिया जा रहा है। क्योंकि कोविड के टीकाकरण में प्रदेश देश में पहले स्थान पर है। पहले स्थान पर होना एक बड़ी उपलब्धि है। इस उपलब्धि के लिये प्रदेश के छः लोगों का प्रधानमन्त्री के साथ वैक्सीन संवाद करवाया जा रहा है। इस संवाद के लिये अखबारों में विज्ञापनों के माध्यम से खूब प्रचार किया गया है। पूरे प्रदेश में एल ई डी स्क्रीन के माध्यम से लाईव दिखाने का प्रबन्ध किया गया है। जब कोविड को लेकर स्वास्थ्य विभाग की इतनी बड़ी उपलब्धि है तब कोविड के कारण उपचुनावों को टाला जाना सारे दावों पर ही सवाल खड़ा कर देता है। फिर कोविड के मामलों और उससे हो रही मौतों के जो आंकड़े कुछ दिनों से सामने आ रहे हैं उनसे स्वास्थ्य विभाग की उपलब्धि पर सन्देह का कोई कारण नहीं रह जाता है। इसी तरह अब बरसात लगातार कम होती जा रही है और बाढ़ का भी कोई बड़ा नहीं है। आने वाले त्यौहार भी 3 अक्तूबर के बाद ही आने वाले हैं। इसलिये इन आधारों पर चुनावों का टाला जाना बहुत ज्यादा संगत नहीं लगता है। क्योंकि यह सामान्य धारणा है कि शीर्ष अफसरशाही राजनीतिक आकाओं के आगे ‘इन्कार’ कहने करने का साहस नहीं कर पाती है। इसलिये इन आधारों पर चुनाव टालने का फैसला शुद्ध रूप से राजनीतिक फैसला है।
इसलिये राजनीतिक कारणों पर भी चर्चा करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि इतने लम्बे समय के लिये लोकसभा और विधानसभा में इन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व न हो पाना लोकतन्त्र की स्थापनों पर ही कई सवाल खड़े कर जाता है। इस समय कोविड से भी ज्यादा गंभीर चर्चा का विषय विवादित कृषि कानून बन चुके हैं। हिमाचल में चल रहे सेब सीजन ने प्रदेश के एक बड़े हिस्से में इन कानूनों के व्यवहारिक पक्ष के कारण जनता के सामने लाकर खड़ा कर दिया है। क्योंकि जिस तरह अदानी के ऐग्रो फ्रैश के कारण सेब की कीमतें घटी हैं उससे बागवान को यह समझ आ गया है कि जब तक यह विवादित कानून रहेंगे तब तक प्रतिवर्ष उसके साथ ऐसा ही घटेगा। इस मुद्दे पर बागवानी मन्त्री, भाजपा के प्रदेश प्रभारी और मुख्य प्रदेश प्रवक्ता ने जिस तरह से अदानी का पक्ष लिया उससे यह स्पष्ट हो गया है कि भाजपा के सत्ता में रहते इन कानूनों की वापसी सम्भव नहीं है। इसी कारण से किसान आन्दोलन के राष्ट्रीय नेताओं ने इन उपचुनावों के लिये ‘‘भाजपा को वोट नहीं’’ अभियान छेड़ने का ऐलान कर दिया था। इसी ऐलान का प्रभाव था सोलन के आढ़ती द्वारा अपना ब्यान वापिस लेना और ठियोग में बागवानी मन्त्री महेन्द्र सिंह का घेराव होना। इसलिये यह उपचुनाव टालने के लिये इस मुद्दे की प्रभावी भूमिका रही है।
इसी के साथ भाजपा की अन्दरूनी स्थिति पर नजर दौड़ायें तो यह सामने आता है कि पिछले दिनों लाहौल स्पिति से मन्त्री डा. रामलाल मारकण्डे के साथ जन जाति मोर्चा के लोगों का उलझना, कुल्लु में पूर्व मन्त्री महेश्वर सिंह के तेवर और पंडित खीमी राम का अभी से चुनाव लड़ने का दावा करना मण्डी में अनिल शर्मा की बगावत और महेन्द्र सिंह का लगातार विवादित होते जाना संगठन के भीतर की स्थिति पर काफी रोशनी डालता है। शिमला में सुरेश भारद्वाज और स्व नरेन्द्र बरागटा के बीच रही रिश्तों की तल्खी अपरोक्ष में इस उपचुनाव में भी मुखर होने लग पड़ी थी। इसी तल्खी का प्रमाण है कि जुब्बल कोटखाई में दो उपमण्डल कार्यालय खोलने की घोषणा मुख्यमन्त्री को करनी पड़ी। इसी के कारण मुख्यमन्त्री को प्रदेश के अन्य भागों मे जहां -जहां भी वह गये वहीं पर घोषणाओं के अंबार लगाने पड़े हैं। चौथे वर्ष में नेताओं के एक बड़े वर्ग को ताजपोशीयों के तोहफे देने पड़े है। अब जब चुनाव टल गये हैं तब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस दौरान की गयी घोषणाओं को कितनी जल्दी अमली जामा पहनाया जाता है और इसके लिये कितना कर्ज लिया जाता है। ऐसे में कुल मिलाकर यदि निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो यही सामने आता है कि इतनी सारी उपलब्धियां के आकंड़ों के बावजूद उपचुनावों में जीत को लेकर जब सरकार और संगठन आश्वस्त नही हो पाये तब चुनावों को टालने का फैसला लिया गया। अब यह फैसला लेने के बाद क्या सरकार स्वर्ण जयन्ती समाराहों का आयोजन कर पायेगी? क्या अब रथयात्रा निकल पायेगी? क्या मुख्यमन्त्री और अन्य मन्त्री जनता में जाकर राजनीतिक रैलीयों का आयोजन कर पायेंगे। क्योंकि जब कोविड के कारण चुनाव टाले गये हैं तब उसी कोविड के चलते राजनीतिक आयोजन कैसे हो पायेंगे आने वाले समय में यह एक बड़ा सवाल होगा।
इसी संद्धर्भ में यह सवाल भी उठना शुरू हो गया है कि अभी अनुराग ठाकुर की जन आशीर्वाद यात्रा में जो जन समर्थन मिला है उससे भी सरकार उपचुनावों में जाने का साहस क्यों नहीं जुटा पायी। स्मरणीय है कि इस यात्रा के बाद भाजपा की ओर से जो ब्यान जारी किया गया है उसमें दावा किया गया है कि यात्रा के लिये 184 स्थानों पर आयोजन रखे गये थे और इनमें करीब एक लाख दो हज़ार लोग शामिल हुए हैं। गणना का यह आंकडा भाजपा की ओर से ही आया है। उसी ने यह गिनती जारी की है और इसके मुताबिक प्रत्येक आयोजन में करीब 500-550 लोगों का शामिल होना सामने आता है। यदि इस आंकडे का विश्लेषण किया जाये तो यही सामने आता है कि यात्रा के दौरान मिलने वालों में मण्डल और जिला कार्यकारिणीयों के सदस्यों तथा पदाधिकारियों के अतिरिक्त आम आदमी बहुत कम रहा है। वैसे तो विश्लेष्कों की नज़र में इस तरह के आयोजनों में आने वालों की गिनती कर पाना संभव ही नहीं हो पाता है। फिर यदि इस तरह की गिनती कर भी ली गई हो तो उसके आंकडे ऐसे सार्वजनिक नहीं किये जाते। क्योंकि पांच दिनों में 630 किलो मीटर की लम्बी यात्रा में सबसे बड़ी पार्टी और प्रधानमन्त्री का विश्वभर में लोकप्रियता में पहले स्थान पर होने का दावा करने वाली पार्टी के इतने आयोजनों में इतने ही लोगों का आ पाना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं माना जा सकता। वैसे कुछ लोगों का यह भी मानना है कि यह आंकडे जारी करके अनुराग को मिले समर्थन की धार को कुन्द करने का प्रयास है। स्वभाविक है कि जिस पार्टी के अन्दर ऐसे आयोजनों में शामिल होने वालों की इस तरह गिनती की जा रही हो वह चुनाव के लिये कितनी तैयार होगी।
13 को धरने प्रदर्शनों का एलान
महेंद्र सिंह को हटाने की उठी मांग
भारद्वाज भी आये निशाने पर
शिमला/शैल। हिमाचल में सेब का करीब पांच हजार करोड़़ का कारोबार होता है। सेब उत्पादकों को इस मुकाम तक पहुंचाने में प्रदेश सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस कारोबार से बागवान और सरकार दोनां कमाई करते रहे हैं। लेकिन मोदी सरकार ने कोरोना काल में जून 2020 में तीन कृषि कानून लाकर किसान-बागवान और सरकार तीनों के हितों को नजरअन्दाज करके कृषि क्षेत्रा को प्राईवेट सैक्टर के हवाले करने का जो खेल रचा है उसकी आंच में आज हिमाचल का सेब उत्पादक भी बुरी तरह झूलस कर रह गया है। जब अंबानी ने सेब की खरीद कीमतों में पिछले वर्ष के मुकाबले 16रू किलो की कमी कर दी तब बागवानों को इसमें कंपनीयों की होने वाली भूमिका का अहसास हुआ। यह कीमतें कम करने पर जयराम सरकार अंबानी से सवाल-जवाब करती इसकी बजाये बागवानों को ही सलाह दे डाली कि वह कुछ समय के लिये तुड़ान ही रोक दें। मुख्यमन्त्री की इस राय से यह स्पष्ट हो गया कि सरकार इसमें कुछ भी करने वाली नहीं हैं।
ऐसे समय में किसान नेता टिकैत ने प्रदेश के बागवानों को आगाह किया कि यदि वह इस समय ‘‘कंपनी राज’’ के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाने से चुक गये तो एक दिन सेब के बागीचों पर भी असम के चाय बागानों की तरह कंपनीयों का कब्जा हो जायेगा। टिकैत ने जब कृषि कानूनों के खतरों के बारे में प्रदेश के किसानों-बागवानों को विस्तार से समझाया उसके बाद प्रदेश में किसान आन्दोलन के आकार लेने की संभावनाओं को बल मिला है। अब संयुक्त किसान मोर्चा ने किसानों व बागवानों के मुद्दों को लेकर 13 सितंबर को तहसील व खंड स्तर पर आंदोलन छेड़ने का एलान किया है। मोर्चा ने कहा कि इस तरह तहसील व खंड स्तर पर धरने प्रदर्शन किए जाएंगे और अगर सरकार ने किसानों व बागवानों की मांगों की पर गौर नहीं किया तो 26 सितंबर को प्रदेश व्यापी प्रदर्शन किया जाएगा। हाल ही में गठित संयुक्त किसान मोर्चा की राजधानी में अहम बैठक हुई व प्रदेश के बागवानी मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर पर पूरा गुब्बार निकाला गया। मोर्चा की इस बैठक में आए किसान व बागवान नेताओं ने कहा कि मंत्री ने बागवानी व किसानी के मसलों को पूरी तरह से नजर अंदाज कर दिया है। बागवानी इस समय संकट से गुजर रही है और बगावनी मंत्री का कहीं कोई पता नहीं है। मोर्चा ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर से महेंद्र सिंह को बागवानी मंत्री के पद से हटाने की मांग की है व कहा है कि इस पर किसी जिम्मेदार मंत्री को बिठाया जाए।
मोर्चा ने शहरी विकास मंत्री सुरेश भारदवाज के पराला मंडी में दिए उस बयान के लिए भी उनकी आलोचना की जिसमें उन्होंने कहा कि था कि सेब की कीमतें बाजार में मांग व आपूर्ति में आ रहे उतार-चढ़ाव की वजह से गिर रही है। इसमें किसी को कोई दोष नहीं है। मोर्चा ने एक आवाज में कहा कि यह अदानी, लदानी (खरीददार) और आढ़तियों का पक्ष लेना जैसा है। यह बागवान व किसान विरोधी रुख है। संयुक्त किसान मेर्चा की इस बैठक में अन्यों के अलावा कांग्रेस विधायक विक्रमादित्य सिंह और वामपंथी माकपा विधायक राकेश सिंघा ने भी शिरकत की।
मोर्चा के प्रदेश संयोजक हरीश चौहान ने कहा कि प्रदेश में लगभग 89 फीसद जनता गांव में रहती है व इसमे अधिकांश का रोजगार व आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि व बागवानी ही है। आज देश मे कृषि के संकट के चलते प्रदेश के किसानों व बागवानों का संकट भी बढ़ रहा है। खेती में उत्पादन लागत क़ीमत निरन्तर बढ़ रही है और किसानों व बागवानों को उनके उत्पाद का उचित दाम प्राप्त नहीं हो रहा है।
उन्होंने कहा कि जिन संस्थाओं को मंडियों के विकास व किसानों के हितों की रक्षा का दायित्व सौंपा गया है वह अपने दायित्व के निर्वहन में विफल रही है। जिसके फलस्वरूप आज भी मंडियों में किसानों व बागवानों को उचित मूल्य नहीं मिल रहा है और इनका शोषण बढ़ा है।
इस बैठक में दस मांगों पर सहमति बनी। मोर्चा ने कहा कि प्रदेश में अदानी व अन्य कंपनियों व मण्डियों में किसानों के शोषण पर रोक लगाए व प्रदेश में भी कश्मीर की तर्ज पर मण्डी मध्यस्थता योजना को पूर्ण रूप से लागू किया जाए व सेब के लिए मण्डी मध्यस्थता योजना के तहत ए, बी व सी ग्रेड के सेब के लिए क्रमशः 60 रुपये 44 रुपये व 24 रुपये प्रति किलो समर्थन मूल्य पर खरीद की जाये।
प्रदेश की विपणन मण्डियों में ए पी एम सी कानून को सख्ती से लागू किया जाए। मंडियों में खुली बोली लगाई जाए व किसान से गैर कानूनी रूप से की जा रही मनमानी वसूली को तुरन्त समाप्त किया जाए। जिन किसानों से भी यह वसूली की गई है उन्हें इसे वापिस किया जाए।
चौहान ने कहा कि सेब व अन्य फलों, फूलों व सब्जियों की पैकेजिंग में इस्तेमाल किये जा रहे कार्टन व ट्रे की कीमतों में की गई भारी वृद्धि वापिस की जाए व प्रदेश में भारी ओलावृष्टि, वर्षा, असामयिक बर्फबारी, सूखा व अन्य प्राकृतिक आपदाओं से किसानों व बागवानों को हुए नुकसान का सरकार द्वारा मुआवजा प्रदान किया जाए। प्रदेश की सभी मंडियों में सेब व अन्य फसलें वजन के हिसाब से बेची जाएं।
शिमला/शैल। मोदी सरकार द्वारा जून 2020 में लाये गये तीन कृषि कानूनों का प्रभाव अब हिमाचल के करीब पांच हजार करोड़ के सेब कारोबार पर भी प्रत्यक्षतः पड़ना शुरू हो गया है। इस समय प्रदेश में अंबानी एग्रो फ्रैश सेब का सबसे बड़ा खरीददार है। उसके प्रदेश में अपने स्टोर हैं और उनमें भारी भण्डारण क्षमता है जो कि सेब उत्पादकों के पास है नहीं। न ही सरकार ने अपने तौर पर कोल्डस्टोरों का निर्माण करवाया है। अब नये कृषि कानूनों के आने से उत्पादक और खरीददार एपीएमसी परिसरों से बाहर भी अपना उत्पाद बेचने और खरीदने के लिये स्वतन्त्र हैं। इस व्यवस्था से उन्हें अपने कारोबार की 1% फीस एपीएमसी को देने की आवश्यकता है। इसलिये अंबानी सीधे उत्पादकों से ही यह खरीद कर रहा है और अपने ही केन्द्रों पर उसकी ग्रेडिंग और पैकिंग कर रहा है। इस व्यवस्था में वह सरकार को फीस देने से बाहर हो जाता है और यहीं पर सरकार को करोड़ों का नुकसान पहुंच रहा है। एग्रो फ्रैश का दावा है कि करीब बीस हजार उत्पादक उसके साथ सीधे जुड़ चुके हैं इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि इसमें प्रदेश सरकार को कितना नुकसान पहुंचेगा।
सरकार के नुकसान के अतिरिक्त उत्पादकों का सीधा नुकसान इस कारण से हो रहा है कि इस बार सेब खरीद के रेट में ही सोलह रूपये प्रति किलो की कमी कर दी गयी है। जो सेब पिछले वर्ष 80 से 82 रूपये में खरीदा गया था उसमें अब 16 रूपये की कमी करके खरीदा जा रहा है। रेट में कमी के लिये सेब की गुणवत्ता को जिम्मेदार बताया जा रहा है। लेकिन जब इन रेटों के निर्धारण को लेकर अंबानी के ऐजैन्टों के ही दो अलग -अलग ब्यान सामने आ गये तब यह स्पष्ट हो गया कि रेट कम करने में अंबानी का ही प्ले है और लदानी -अंबानी गठजोड़ के खिलाफ नारे लग गये। लेकिन इस सारे प्रकरण पर जयराम सरकार ने खामोशी अपना ली और उत्पादकों को यह राय दे डाली कि वह कुछ समय के लिये सेब का तुड़ान ही रोक दें। सरकार की इस भूमिका पर उत्पादकों का रोष और बढ़ना स्वभाविक है क्योंकि उसका सीधा नुकसान हो रहा है।
स्मरणीय है कि अंबानी ने पिछले वर्ष रोहडू के मैंदली में सितम्बर माह में सेब खरीदा था और यहीं पर इसकी पैकिंग की गई बाद में इसी सेब को चण्डीगढ़ के एक डिस्ट्रीब्यूटर के माध्यम से फूड सेफ्रटी एण्ड स्टैर्ण्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया से लाईसैन्स लेकर छः सेब का पैकेट 196 रू. में बेचा गया। इस तरह सेब उत्पादक से जो सेब 80-82 रूपये में खरीदा उसे उपभोक्ता को 196 रूपये में बेचा गया। सरकार इस सारे खेल में मूक दर्शक की भूमिका में तब भी रही और आज भी है। आज तो उत्पादक के रेट भी 16 रूपये कम कर दिये गये हैं। सेब उत्पादक और उपभोक्ता का यह नुकसान हर वर्ष इसी तरह होने वाला है। क्योंकि नये कृषि कानूनों में उत्पादक और उपभोक्ता को कहीं कोई संरक्षण हासिल नहीं है। बल्कि अब तो विदेशी सेब के आने से बाजार में असन्तुलन और भी बढे़गा। क्योंकि विदेश से आने वाले सेब को आयात शुल्क से मुक्त रखा गया है। यही नहीं विदेश से आने वाले इस सेब की बाजार कीमत पहले से ही तय कर दी जाती है और इसकी खरीद कीमत का भुगतान अग्रिम में ही किया जाता है।
स्व. नरेन्द्र बरागटा ने विदेशी सेब के आयात शुल्क मुक्त होने को लेकर केन्द्र सरकार को इसके विरोध में कई बार पत्र लिखें हैं। विदेशी सेब के इस तरह लाये जाने से स्थानीय उत्पादकों का नुकसान होगा इसको लेकर वह लगातार चिन्तित रहे। आढ़तीयों द्वारा किये जा रहे शोषण को लेकर भी वह दिल्ली की सरकारों से लम्बा पत्राचार कर चुके हैं। सेब को लेकर जिन खतरों के प्रति वह बागवानों को लगातार जागरूक करते रहे हैं आज उन्हीं की पार्टी की सरकार में सेब उत्पादक का शोषण हो रहा है और सरकार चुपचाप यह सब देख रही है क्योंकि हस्तिनापुर से बंधी है। आज सेब उत्पादक को स्पष्ट हो गया है कि इन कृषि कानूनों से उसका लगतार नुकसान होना तय है। इसलिये इन कानूनों की वापसी के लिये उसे किसान आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी निभाना आवश्यक हो जायेगा यह अब उसे समझ आ गया है।
The Joomla! content management system lets you create webpages of various types using extensions. There are 5 basic types of extensions: components, modules, templates, languages, and plugins. Your website includes the extensions you need to create a basic website in English, but thousands of additional extensions of all types are available. The Joomla! Extensions Directory is the largest directory of Joomla! extensions.
We search the whole countryside for the best fruit growers.
You can let each supplier have a page that he or she can edit. To see this in action you will need to create a users who is in the suppliers group.
Create one page in the growers category for that user and make that supplier the author of the page. That user will be able to edit his or her page.
This illustrates the use of the Edit Own permission.