Friday, 19 September 2025
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दस्तावेजों के आईने में प्रदेश का बजट 16 नयी योजनाओं के साथ आया 44384 करोड़ का बजट

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर का 2019-20 का कुल बजट 44384 करोड़ का होगा यह खुलासा मुख्यमन्त्री ने सदन में अपने बजट भाषण में रखा है। इस बजट में मुख्यमन्त्री ने अगले वित्त वर्ष के लिये 16 नयी योजनाओं की घोषणा की है। पिछले वित्त वर्ष में ऐसी ही 30 योजनाओं की घोषणा की गयी थी। अब यह पिछली ओर अगली दोनों योजनाएं एक साथ चलेंगीं। लेकिन पिछली 30 योजनाओं में से अधिकांश अभी तक अमली शक्ल नही ले पायी हैं। ऐसे में 31 मार्च को समाप्त होने वाले वित्त वर्ष में यह बची हुई योजनाएं आकार ले पाती है या नही इसका पता आने वाले दिनों में लगेगा। इन सारी योजनाओं के लिये धन का प्रावधान कैसे हो पायेगा यह एक गंभीर सवाल है। प्रदेश का बजट योजना और गैर योजना दो भागों में बंटा रहता है। इसमें योजना के लिये 90ः की सहायता केन्द्र से मिलती है और 10% योगदान राज्य सरकार का होता है। यह योजना 2019-20 के लिये 7100 करोड़ की है। लेकिन गैर योजना का सारा खर्च राज्य को अपने ही संसाधनों से पूरा करना होता है चाहे उसके लिय कर्ज ही क्यों न लेना पड़े। वर्ष 2019-20 में प्रदेश का गैर योजना खर्च 36089.03 करोड़ होगा जबकि राजस्व आय केवल 33746.95 करोड़ रहने वाली है। इस तरह राजस्व आय से राजस्व व्यय 2342.08 करोड़ बढ़ जाता है। योजना और गैर योजना दोनों का मिलाकर राज्य की समेकित निधि बनती है।

राजस्व आय और व्यय के साथ ही बजट में पूंजीगत प्राप्तियों  का ब्योरा भी रहता है। इसके मुताबिक वर्ष 2019-20 में सरकार 8330.75 करोड़ ऋणों के माध्यम से जुटायेगी। ऐसे में सवाल उठता है कि जब राजस्व आय और व्यय में केवल 2342.08 करोड़ का घाटा है तब 8330.75 करोड़ का पूंजीगत ऋण क्यों? जब योजना का आकार 7100 करोड़ है और उसमें से 90% केन्द्र देगा फिर राजस्व व्यय में योजना के नाम पर 2822.24 करोड़़ का खर्च क्यों? फिर पूंजीगत प्राप्तियों में भी योजना के नाम पर केवल 3661.30 करोड़ का खर्च क्यों जबकि योजना तो 7100 करोड़ की है। बजट के आंकड़ो की इस जादूगरी से यह आंशका होना स्वभाविक है कि क्या योजना के तहत किये जा रहे कार्यों को पूरा होने के बाद भी गैर योजना में ट्रांसफर नही किया जा रहा है। क्या इसी कारण से कई कई वर्षों तक कार्यों के उपयोगिता प्रमाण पत्र जारी नहीं किये जाते हैं और हर वर्ष सीएजी की रिपोर्ट में समेकित निधि से अधिक खर्च होने का पैरा बनता है। इस आने वाले वित्त वर्ष में एफआरबीएम के तहत केवल 4524 करोड़ की ही ऋण लिया जा सकता है। ऐसे में कर्ज की सीमा 4524 करोड़ ही हो सकती है तो फिर पूंजीगत प्राप्तियों के तहत 8330.75 करोड़ का ऋण क्यों और कैसे?
प्रदेश का 2003 में कुल कर्ज 13209.47 करोड़ था जो कि बढ़कर 2017-18 में 4790.21 करोड़ हो गया है। मुख्यमन्त्री के बजट भाषण के अनुसार 2018-19 में 4546 करोड़ का ऋण लिया जायेगा। इस तरह 2018-19 में यह कर्जभार 52 हजार करोड़ से ऊपर चला जायेगा। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या वित्तिय प्रबन्धन केवल कर्ज का जुगाड़ करना ही रह गया है? यदि इसी तरह लोक लुभावन घोषणओं को पूरा करने के लिये कर्ज लिया जाता रहा तो मुख्यमन्त्री के इस कार्यकाल में ही यह कहां तक पहुंच जायेगा इसका अनुमान आंकड़ों और दस्तावेजों से लगाया जा सकता है।

































                                 मुख्यमन्त्री के भाषण के अंश

अध्यक्ष महोदय, अब मैं 2018-19 के संशोधित अनुमानों तथा 2019-20 के बजट अनुमानों पर आता हूँ।
वर्ष 2018-19 के संशोधित अनुमानों के अनुसार कुल राजस्व प्राप्तियां 31 हजार, 189 करोड़ रुपये हैं, जबकि 2018-19 के बजट में यह प्राप्तियां 30 हजार, 400 करोड़ रुपये अनुमानित थीं। इसी प्रकार 2018-19 के संशोधित अनुमानों के अनुसार कुल राजस्व व्यय 33 हजार, 408 करोड़ रुपये रहने का अनुमान है जबकि बजट में 33 हजार 568 करोड़ रुपये अनुमानित था। इस प्रकार संशोधित अनुमानों के अनुसार कुल राजस्व घाटा 2 हजार, 219 करोड़ रुपये रहेगा जो कि 2018-19 के बजट अनुमान से 949 करोड़ रुपये कम है। संशोधित अनुमानों के अनुसार वर्ष 2018-19 के दौरान कुल राजकोषीय घाटा 7 हजार, 786 करोड़ रुपये रहने का अनुमान है जो कि राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का 5.14 प्रतिशत है। 2018-19 के बजट अनुमानों के अनुसार कुल राजकोषीय घाटा राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का 5.16 प्रतिशत आँका गया था।
वित्तीय वर्ष 2018-19 में इस घाटे को पूरा करने के लिये 4 हजार, 546 करोड़ रुपये का शुद्ध ऋण लेने का अनुमान है, जो कि Fiscal Responsibility and Budget Management Act (FRBM) के प्रावधानों के अनुसार है।
वर्ष 2019-20 के दौरान कुल राजस्व प्राप्तियां 33 हजार, 747 करोड़ रुपये रहने का अनुमान है तथा कुल राजस्व व्यय 36 हजार, 089 करोड़ रुपये अनुमानित है। इस प्रकार कुल राजस्व घाटा 2 हजार, 342 करोड़ रुपये अनुमानित है। राजकोषीय घाटा 7 हजार, 352 करोड़ रुपये रहने का अनुमान है, जो कि प्रदेश के सकल घरेलू उत्पाद का 4.35 प्रतिशत होगा। प्राप्तियों एवं व्यय के बीच के अन्तर को ऋण के माध्यम से पोषित किया जाएगा तथा यह शुद्ध ऋण 5 हजार, 068 करोड़ रुपये रहने का अनुमान है। यह ऋण FRBM अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप ही लिये जाएंगे।

जब पूंजीगत प्राप्तियां सकल ऋण है तो क्या इस वर्ष राजस्व व्यय पूरा करने के लिये 14000 करोड़ का कर्ज लिया गया?

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने जब सदन में 2018 के लिये 41440 करोड़ रूपये के कुल खर्च का बजट रखा था तब उन्होने वीरभद्र शासन पर यह आरोप लगाया था कि इस शासनकाल में 18787 करोड़ का अतिरिक्त कर्ज लिया गया है। जयराम ने सदन में आंकड़ेे रखते हुए खुलासा किया था कि जब भाजपा ने 2007 में सत्ता संभाली थी तब प्रदेश पर 19977 करोड़ का कर्ज था। 31 दिसम्बर 2012 को सत्ता छोड़ते समय यह कर्ज 27598 करोड़ हो गया था। लेकिन अब 18 दिसम्बर को यह बढ़कर 46,385 करोड़ हो गया है। जयराम ठाकुर को 46385 करोड़ का कर्ज विरासत में मिला है। इस विरासत के साथ जयराम ने 41440 करोड़ के कुल खर्च का बजट पेश किया था जो अब 3142.65 करोड़ की अनुपूरक मांगेे आने के बाद कुल 44582.65 करोड़ पर पहुंच गया है।
मुख्यमन्त्री जयराम ने जब 41440 करोड़ के कुल खर्च का बजट सदन में रखा था उसमें सरकार की कुल राजस्व प्राप्तियां 30400.21 करोड़ दिखाई गयी थी और राजस्व व्यय 33567.97 करोड़ दिखाया गया था। इस तरह राजस्व व्यय और आय में 3167.76 करोड़ का अन्तर था। राजस्व आय के बाद सरकार पूंजीगत प्राप्तियों के माध्यम से पैसा जुटाती है। सरकार की यह पूंजीगत प्राप्तियां 7764.75 करोड़ रही है। जिनमें 7730.20 करोड़ की प्राप्तियां कर्ज के रूप में है। यह बजट दस्तावेजों में स्पष्ट रूप से दर्ज है। इस तरह पूंजीगत प्राप्तियों और राजस्व प्राप्तियों को मिलाकर सरकार के पास कुल 38164.96 करोड़ आता है और राजस्व व्यय और पूंजीगत व्यय को मिलाकर कुल खर्च 41439.94 करोड़ हो जाता है। इस तरह सरकार के पास 3274.98 करोड़ का ऐसा खर्च बच जाता है जिसके लिये कोई साधन बजट में नही दिखाया गया है। जिसका सीधा सा अर्थ यह रहता है कि इस खर्च को पूरा करने के लिये पूंजीगत प्राप्तियों के अतिरिक्त और कर्ज लेना पड़ेगा।
अब सरकार 3142.65 करोड़ की अनुपूरक मांगे लेकर आयी है। यह मांगे आने का अर्थ है कि सरकार का इस वर्ष का कुल खर्च बढ़ कर 44582.65 करोड़ का हो गया है। इन खर्चो को पूरा करने क लिये क्या अतिरिक्त उपाय किये गये हैं इसका कोई उल्लेख अनुपूरक मांगों में नही है। स्वभाविक है कि इस खर्च को पूरा करने के लिये या तो सरकार को और कर्ज लेना पड़़ेगा या फिर और टैक्स जनता पर परोक्ष/अपरोक्ष रूप से लगाने पड़ेंगे। इस तरह यदि पूंजीगत प्राप्तियों के नाम पर जुटाये गये ऋण और उसके बाद भी खुले छोड़ेे गये खर्चो और अब आयी अनुपूरक मांगो को मिलाकर देखा जाये तो जो आरोप मुख्यमन्त्री ने वीरभद्र शासन पर अतिरिक्त कर्ज लेने का लगाया था आज यह सरकार स्वयं भी उसी चक्रव्यूह में फंसती नज़र आ रही है। अब अनुपूरक मांगे आने के बाद सरकार का इस वित्तिय वर्ष का कुल राजस्व व्यय बढ़कर 44582.65 करोड़ को पहुंच गया है लेकिन राजस्व की आय तो पूराने 30400.21 करोड़ के आंकड़े पर ही खड़ी है। इससे यह सामने आता है कि इस राजस्व व्यय को पूरा करने के लिये सरकार को 14000 करोड़ का ऋण लेना पड़ा है। यह खुलासा एफआरवीएम अधिनियम के तहत सदन में पेश बजट दस्तावेजों में सामने आता है। इस अधिनियम के तहत बजट दस्तावेजों में व्याख्यात्मक विवरणिका सदन में रखना अनिवार्य है। इस विवरणिका में वित्तिय वर्ष में होने वाला कुल राजस्व व्यय और कुल राजस्व आय के आंकड़े रखे जाते हैं। इसी में पूंजीगत प्राप्तियों का आंकड़ा भी दिखाया जाता है। यह सारी विवरणिका पहले पन्ने पर ही दर्ज रहती है। इस विवरणिका को देखने से सामने आ जाता है कि पूंजीगत प्राप्तियों को सकल ऋण माना जाता है। वर्ष 2018 -19 में यह पूंजीगत प्राप्तियां सकल ऋणों के रूप में 7730.20 करोड़ दिखायी गयी हैं। इन आंकड़ो को देखने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि कुल खर्च को पूरा करने के लिये 14000 करोड़ के ऋण की आवश्यकता है क्योंकि कुल आय तो 30400 करोड़ से बढ़ नही पायी है। इस तरह यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यह स्थिति कब तक और कितनी देर तक ऐसे चल पायेगी? यह स्थिति सबसे अधिक चिन्ता और चर्चा का विषय बनती है और एक लम्बे समय से ऐसे ही चली आ रही है। लेकिन आज तक इस पर न तो कभी माननीयों ने सदन में कोई चर्चा उठायी है और न ही प्रदेश के मीडिया ने इसे जनता के सामने रखा है।

नगर-निगम अधिकारी का वायरल हुआ आडियो बना मुद्दा

शिमला/शैल। नगर निगम शिमला की कार्यप्रणाली को लेकर एक लम्बे अरसे से सवाल उठते आ रहे हैं क्योंकि नगर निगम जो सेवाएं लोगों को उपलब्ध करवाता है उनकी गुणवता को लेकर सवाल उठे हैं। पेयजल आपूर्ति को लेकर शहर में जनजीवन अस्तव्यस्त होने के साथ शहर में अवैध निर्माणों को लेकर प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर एनजीटी और सर्वोच्च न्यायालय तक इसका कड़ा संज्ञान ले चुके हैं। शहर के विकास कार्याें को लेकर कई मामलों में स्थिति यह है कि वर्षों से मामले अदालतों में अटके पड़े हैं। कई मामलों में निगम के अधिकारी अपनी अदालतो के फैसलों को नही मान रहे हैं। जो अधिकारी न्यायिक जिम्मेदारी निभाता हुआ एक फैसला देता है वही अधिकारी प्रशासनिक जिम्मेदारी निभाता हुआ अपने ही फैसले पर अमल करने से पीछे हट जाता है। ऐसे दर्जनों मामले सामने आ चुके है जिनसे यह अराजकता की स्थिति सामने आती है। नगर निगम शिमला किसी समय एक बहुत अमीर संस्था हुआ करती थी लेकिन आज अपना काम करने के लिये इसके पास पर्याप्त साधन नही है लेकिन विडम्बना यह है कि निगम जब अपने साधन सुधारने का प्रयास करती है तभी बीच के ही लोग इन प्रयासों को तारपीडो कर देते हैं।
निगम की आय का एक स्थायी साधन उसकी संपतियों से मिलने वाला किराया है। लेकिन यह किराया कई जगह कई दशकों से पुरानी ही दरों पर चल रहा है। इन संपत्तियों का किराया बढ़ाये जाने को लेकर प्रदेश उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका  CWPIL 17 of 2015 में दायर हुई है। इस याचिका की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने किरायों की स्थिति का कड़ा संज्ञान लेते हुए निगम प्रशासन को इसे बढ़ाने के निर्देश दिये थे। इन निर्देशों के तहत निगम को इसके लिये एक योजना तैयार करनी थी। निगम प्रशासन ने जब इस दिशा मे कदम उठाये तो शहर के व्यापारियों ने इसको लेकर एतराज उठाये। पूरे शहरे में कोहराम मच गया। इसको लेकर राजनीति शुरू हो गयी। संयोगवश शहर के विधायक भाजपा से हैं और वह सरकार में मन्त्री हैं। स्वभाविक है कि प्रभावित लोगों ने उन पर दबाव डालना शुरू किया कि सरकार किराया बढौतरी के प्रयासों को रोके। लेकिन इसी दौरान नगर निगम के अतिरिक्त आयुक्त विधि का कथित आडियो वायरल हो गया। इसमें यह अधिकारी एक प्रभावित व्यापारी से बात करते हुए उसे इस किराया बढ़ौत्तरी को रोकने के लिये कुछ सुझाव देते हुए सुनायी देते हैं। यह आडियो यदि सही है तो यह एकदम निगम के हितों के खिलाफ है। यही नही बतौर विधि आयुक्त न्यायिक शक्तियों से संपन्न होने के कारण यह और भी अवांच्छित और आपराधिक हो जाता है। लेकिन यह सब तब तक नही हो सकता जब तक कि इस आडियो की प्रमाणिकता की निष्पक्ष जांच न हो जाये।
यह कथित आडियो सरकार में सारे संवद्ध अधिकारियों के संज्ञान में आ चुका है लेकिन इस पर अभी तक कोई जांच आदेशित नही हुई है। यदि यह आडियो फर्जी है तो इसको लेकर इस अधिकारी को संवद्ध लोगों के खिलाफ कारवाई करनी चाहिये थी क्योंकि उसकी छवि पर इससे प्रश्नचिन्ह लगे है। लेकिन इस अधिकारी की ओर से भी कोई कदम नही उठाया गया है।




























 

राजीव बिन्दल मामले की वापसी के बाद भ्रष्टाचार पर सरकार की नीयत और नीति सवालो मेें

  • क्या सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के तहत सरकारी
    वकील और विजिलैंस के खिलाफ कारवाई होगी

शिमला/शैल। विधानसभा अध्यक्ष राजीव बिन्दल जब 1999 में नगर परिषद सोलन के चेयरमैन थे तब वहां पर कुछ कर्मचारियों की भर्ती हुई थी। इन भर्तीयों में नियमों कानूनों की अनदेखी और भ्रष्टाचार के आरोप उस समय लगे जब बिन्दल प्रदेश विधानसभा में चुनकर आ गये। बिन्दल के खिलाफ जब यह मामला बना था प्रदेश में वीरभद्र सरकार थी। उसके बाद 2007 में धूमल की सरकार आयी। इस सरकार में भी यह मामला अन्तिम अंजाम तक नही पहुंचा। धूमल सरकार में भी मामला वापिस लेने का प्रयास किया गया और इसके लिये विधानसभा अध्यक्ष ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए

मामला चलाने की अनुमति नही दी। इसके बाद फिर वीरभद्र की सरकार आयी। इस सरकार के दौरान जब विधानसभा अध्यक्ष द्वारा अनुमति न दिये जाने का मामला अदालत के समक्ष आया तब अदालत ने विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को अस्वीकार कर दिया। इस अस्वीकार के बाद अदालत की कारवाई जारी रही लेकिन मामले में फैसला नही आ पाया। केवल अभियोजन पक्ष की गवाहियां वाला पक्ष ही पूरा हो पाया था। इसी दौरान फिर सरकार बदल गयी। जयराम ठाकुर के नेतृत्व मे भाजपा की सरकार बन गयी और फिर इस मामले को वापिस लेने के लिये प्रक्रिया शुरू हो गयी। इस मामले की अदालत मे पैरवी कर रहे सरकारी वकीलों की राय भी इसे वापिस लेने को लेकर अलग -अलग थी। जयराम सरकार ने दो बार इसमें तबादले के नाम पर वकील बदले। इस प्रकरण में बिन्दल के साथ दो दर्जन अन्य लोग भी आरोपी थे। जब बिन्दल का मामला वापिस लेने के लिये अदालत में आग्रह गया तब इन अन्य अभियुक्तों का संद्धर्भ भी उठा। अन्ततः सरकार को इन लोगों का मामला वापिस लेने के लिये भी अदालत से आग्रह करना पड़ा और फिर बिन्दल सहित सभी के खिलाफ मामला वापिस हो गया।
सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार के मामले वापिस लिये जाने के बड़े सख्त दिशा-निर्देश सरकार से लेकर अदालत तक को जारी कर रखे हैं। इसमें यहां तक कहा गया है कि यदि कोई मामला अदालत में जाकर असफल हो जाता है और उसमें नामजद अभियुक्त छूट जाता है तो ऐसे मामलों में यह देखा जाये कि मामलों में सरकारी वकील की पैरवी में कमी रही है या फिर जांच ऐजैन्सी की जांच में कमी के कारण अभियुक्त छूटा है। इसमें जिसकी भी कमी के कारण मामला असफल हुआ हो उसके खिलाफ विभागीय कारवाई किये जाने के निर्देश हैं। इसीलिये अदालत में गये हुए मामले को वापिस लेने की जिम्मेदारी पैरवी कर रहे वकील की ही रहती है। इसमें सरकारी वकील को ही अदालत से यह आग्रह करना पड़ता है कि मामले का अदालत में सफल होना संभव नही होगा। इसमे स्पष्ट कहा गया है कि सरकारी वकील शुद्ध रूप से अपने विवेक से काम करे न कि सरकार के दबाव में। यही नही मामले की सुनवाई कर रही अदालत को भी यह हक हासिल रहता है कि वह सरकारी वकील के आग्रह को अस्वीकार कर सकता है। इस मामले में अब सरकारी वकील ने अदालत से यह आग्रह किया है कि जब नगर परिषद सोलन में यह भर्तीयां हुई थी तब भर्तीयों के लिये वहां पर कोई ठोस नियम ही नही थे। अदालत ने इस आग्रह को स्वीकारते हुए मामला वापिस लेने की अनुमति दे दी।
ऐसे में यह सवाल उठते है कि जब विजिलैन्स ने यह मामला दर्ज किया था क्या तब उन्होंने यह नही देखा कि इसमें किन नियमों की अनदेखी हुई? फिर जब विजिलैन्स जांच पूरी कर लेने के बाद चालान तैयार करती है तब उस चालान का निरीक्षण अभियोजन पक्ष करता है। क्या तब भी किसी के सामने नियम ही न होने का तथ्य सामने नही आया? फिर जब अदालत में यह चालान दायर हो गया तब इसका संज्ञान लेकर आरोप तय होते हैं और उस समय भी बचाव पक्ष अपनी दलीले रखता है। क्या तब भी किसी के सामने इतना बड़ा तथ्य नही आया? फिर आरोप तय होने के बाद अभियोजन पक्ष अपनी गवाहियां अदालत में पेश करता है। हर गवाह से बचाव पक्ष का वकील जिरह करता है क्या तब भी यह सामने नही आया कि यह तो मामला बनता ही नही है? इस मामले में तो विजिलैन्स अपना पूरा पक्ष रख चुकी थी। अब बचाव पक्ष चल रहा था। ऐसे में इस मामले में हर स्टेज पर इस गलती को पकड़ने का अवसर था जो नही पकड़ी गयी। यह गलती न पकड़े जाने के कारण इसमें नामजद रहे अभियुक्तों को करीब दो दशकों तक तो मानसिक यातना से गुजरना पड़ा है। ऐसे मे क्या अब सरकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार सरकारी वकील और विजिलैन्स के खिलाफ कारवाई करेगी? सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के संज्ञान लेते हुए अदालत स्वयं भी यह कारवाई कर सकती है क्योंकि उसका इतना वक्त बर्बाद हुआ है। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण होगा कि यदि सरकार कोई कारवाई नही करती है तो सीधे उसकी नीयत और नीति पर सवाल उठेंगे। वैसे तो विपक्ष की भी इसमें परख हो जायेगी कि वह भ्रष्टाचार के मामलो पर क्या रूख अपनाता है क्योंकि उसने भी अभी सरकार के खिलाफ आरोप पत्र राज्यपाल को सौंपा है।

इसी के साथ भाजपा का अपना आरोपपत्र जो विजिलैन्स के पास जांच के लिये लंबित पड़ा है क्या सरकार उस पर कारवाई कर पायेगी ? क्या अपने आरोपों की जांच को अपने ही कार्याकाल में फैसले के अंजाम तक पहुंचा पायेगी? यह सारे सवाल एकदम नये सिरे से उठने शुरू हो गये हैं। क्योंकि भ्रष्टाचर के उन्ही आरोपों को आगे बढ़ाया जाता है जिनमें किसी के साथ स्कोर सैटल करना हो। अन्यथा हर आरोप को राजनीति से प्रेरित करार देकर उसको दबाने का प्रयास किया जाता है। ऐसे मामलों में सबसे बड़ी जिम्मेदारी जांच ऐजैन्सीयों और फिर अदालत में इन मामलों की पैरवी करने वाले वकीलों की रहती है। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय ने इन वकीलों के लिये स्पष्ट निर्देश जारी किये हैं बिन्दल का माला सरकारी वकील के आग्रह पर तब वापिस हुआ है जब वकील ने इस मामले के सफल होने पर सन्देह जताया है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के तहत यह मामला जांच का बनता है कि कमजोर मामला क्यों बनाया गया शीर्ष अदालत ने साफ कहा है कि Every acquittal has to be viewed seriouesly. फिर एक बार स्व. थिंड का मामला वापिस लेने के लिये सरकार के वकील के खिलाफ लम्बे समय तक सरकार में कारवाई चली है। इसी परिदृष्य में आज एक बार फिर वैसे ही हालात सामने हैं। 

पिछले 13 सितम्बर को सर्वोच्च न्यायालय की प्रधान न्यायधीश, दीपक मिश्रा और जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़ की पीठ का फैसला आया है। इसमें 321 पर विस्तार से चर्चा करने के बाद अदालत ने यह कहा है कि 

We are compelled to recapitulate that there are frivolous litigations but that does not mean that there are no innocent sufferers who eagerly wait for justice to be done. That apart, certain criminal offences destroy the social fabric. Every citizen gets involved in a way to respond to it; and that is why the power is conferred on the Public Prosecutor and the real duty is cast on him/her. He/she has to act with responsibility. He/she is not to be totally guided by the instructions of the Government but is required to assist the Court; and the Court is duty bound to see the precedents and pass appropriate orders.
In the case at hand, as the aforestated exercise has not been done, we are compelled to set aside the order passed by the High Court and that of the learned Chief Judicial Magistrate and remit the matter to the file of the Chief Judicial Magistrate to reconsider the application in accordance with law and we so direct.
The appeal is, accordingly, allowed.

सुक्खु-वीरभद्र के चलते पार्टी की लोस तैयारीयां प्रभावित होने की आशंका, राठौर के लिये होगा यह सब परीक्षा की घड़ी

शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर कुलदीप राठौर की ताजपोशी के बाद सुक्खु वीरभद्र द्वन्द एक अलग ही अन्दाज में आ गया है क्योंकि इस ताजपोशी के बाद जहां वीरभद्र ने सुक्खु के खिलाफ अपनी भड़ास निकालते हुए भाषायी शालीनता की सारी हदें लांघ दी वहीं पर सुक्खु ने भी वीरभद्र पर हर चुनाव से पहले संगठन को ब्लैकमैल करने का ऐसा तीर छोड़ा है जिससे पूर्व मुख्यमन्त्री का सारा सियासी कुनबा इस कदर लहू लुहान हुआ है कि इसके जख्म देर तक रिसते रहेंगे। इस द्वन्द में पूरी पार्टी सुक्खु-वीरभद्र खेमों में बंटकर चौराहे पर आ खड़ी है। यह सही है कि वीरभद्र विधानसभा चुनावों से बहुत पहले सुक्खु को हटाने का मोर्चा खोल बैठे थे। इसमें वह वीरभद्र ब्रिगेड तक खड़ा करने पर आ गये थे। इसी का परिणाम था कि इस ब्रिगेड के अध्यक्ष बलदेव ठाकुर ने सुक्खु के खिलाफ मानहानि का मामला तक दायर कर दिया जो अभी तक लंबित है। लेकिन यह सबकुछ कर लेने के बाद भी जब वह सुक्खु को हटवाने में सफल नही हो पाये तो शान्त होकर बैठ भी गये। सुक्खु के साथ पार्टी के अनुशासित सिपाही की तरह मंच भी सांझा करना पड़ा।
लेकिन इसी बीच जब वीरभद्र का अभियान फेल हो गया तब इसका लाभ उठाते हुए आनन्द शर्मा ने अपनी चाल चल दी। यह तय है कि देर सवेर अब सुक्खु को हटना ही था क्योंकि उनका कार्यकाल बहुत अरसा पहले ही खत्म हो चुका था। लोस चुनावों से पहले यह बदलाव होना ही था। इसको जानते हुए आनन्द शर्मा ने सुक्खु के बदलाव पर कुलदीप राठौर का नाम आगे कर दिया। इसके लिये आनन्द ने वीरभद्र, मुकेश अग्निहोत्री और आशा कुमारी जैसे सारे बड़े नेताओं का कुलदीप के लिये समर्थन भी जुटा लिया। इन सबके समर्थन के परिणाम से हाईकमान ने राठौर के नाम पर अपनी मोहर लगा दी। हाईकमान का फैसला जैसे ही सार्वजनिक हुआ तो उसके बाद वीरभद्र सिंह के तेवर फिर बदल गये। सुक्खु पर नये सिरे से हमला बोल दिया। वीरभद्र के हमले का जवाब सुक्खु के समर्थकों ने भी उसी तर्ज में दिया। सुक्खु के समर्थन में भी पार्टी विधायकों/ पूर्व विधायकों /पूर्व अध्यक्षों का एक बड़ा वर्ग खुलकर सामने आ गया है। कई जिलों में पदाधिकारियों ने वीरभद्र की टिप्पणीयों के विरोध में त्यागपत्रा तक दे दिये हैं। वीरभद्र -सुक्खु के इस द्वन्द में पार्टी किस कदर दो हिस्सों में बंट गयी है इसका तमाशा तब सामने आ गया जब राठौर पार्टी कार्यालय पदभार संभालने पहुंचे। इस अवसर पर जब नारेबाजी हुई तो नौबत हाथापाई तक आ गयी और परिणामस्वरूप एक कार्यकर्ता को आईजीएमसी में भर्ती करवाना पड़ा। राठौर के पदभार समारोह में ही जब नौबत यहां तक आ गयी है तो आगे चलकर यह हालात कहां तक पहंुचेगें इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। अभी लोकसभा चुनावों के लिये पार्टी को तैयार होना है और सरकार के खिलाफ आक्रामकता अपनानी है लेकिन जो वातावरण पहले ही दिन सामने आ गया है उसको देखते हुए राठौर के लिये चुनावों में परिणाम दे पाना बहुत आसान नही लग रहा है। क्योंकि वीरभद्र सिंह मण्डी से चुनाव लड़ने को लेकर जिस तरह से तीन-चार बार ब्यान बदल चुके हैं उसके बाद उनकी नीयत और नीति को लेकर कई सवाल उठने शुरू हो गये हैं।
वीरभद्र के इन बदले तेवरों से प्रदेश के प्रशासनिक और राजनीतिक हल्को में कयासों का दौर शुरू होना स्वभाविक है। प्रदेश के राजनीतिक पंडित जानते हैं कि जब 2012 में वीरभद्र मुख्यमन्त्री बने थे तब उनके पक्ष में केवल आधे ही विधायक थे। लेकिन फिर भी उन्हें मुख्यमन्त्री बना दिया गया था। परन्तु उसके बाद जब पार्टी में ‘‘एक व्यक्ति एक पद’’ के केन्द्र के सिद्धान्त पर अमल करने की बात आयी थी तब उन्होंने इसका खुला विरोध किया था। बल्कि काफी समय तक इस कारण से मन्त्रीमण्डल के विस्तार में गतिरोध भी खड़ा हो गया था। इसी गतिरोध का परिणाम था कि आगे चलकर निगमों /बोर्डों में दर्जनों के हिसाब से ताजपोशीयां हो गयी जो विपक्ष के लिये एक बड़ा मुद्दा बन गयी। बल्कि यहां तक हालात पहुंच गये कि सरकार को ‘वृद्धाश्रम’ तक की संज्ञा दी गयी। इस परिप्रेक्ष में यदि वीरभद्र के सारे राजनीतिक कार्यकाल का आंकलन किया जाये तो यह सभी मानेंगे कि उन्होंने हर समय दबाव की राजनीति की है और इस दबाव में वह कई बार असफल भी रहे हैं। उनके ऐसे राजनीतिक रिश्तों का सबसे बड़ा उदाहरण विजय सिंह मनकोटिया रहा है जिसने एक समय पूरा एक सप्ताह वीरभद्र से प्रतिदिन पांच-पांच प्रश्न पूछे थे। वीरभद्र के शासनकाल में अपनों की गलतीयों पर कैसे आंखे बन्द कर ली जाती थी इसका सबसे बड़ा प्रमाण 24 सितम्बर 2018 को उनके भाई राज कुमार राजेन्द्र सिंह के मामले में आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के रूप में सामने आ चुका है। इस फैसले पर जयराम सरकार कब, कैसे और कितना अमल करती है इसका पता आने वाले दिनो में लग जायेगा।
इस परिदृश्य में राजनीतिक दलों के संगठन और उनकी सरकारों का आंकलन किया जाये तो यह सामने आता है कि अधिकांश में सरकार बनने के बाद संगठन बहुत हद तक अर्थहीन होकर रह जाते हैं। सरकारें ही संगठन का पर्याय बन जाती है और कांग्रेस के संद्धर्भ में तो यह बहुत स्टीक बैठता है। इसलिये आज जब सुक्खु और वीरभद्र के द्वन्द का आंकलन किया जाये तो वीरभद्र और मुख्यमन्त्री अध्यक्ष पर भारी पड़ते रहे हैं बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि कई बार सरकार के फैसलों की जनता में वकालत करना कठिन ही नही बल्कि असंभव हो जाता है। क्योंकि अधिकांश फैसले संगठन की राय के बिना ही ले लिये जाते हैं और जब जब सरकार और संगठन के बीच तालमेल गड़बड़ा जाता है तब तब निश्चित रूप से सरकारों की हानि होती है। सुक्खु और वीरभद्र के संद्धर्भ में भी यही हुआ है।
लेकिन इस समय राठौर के बनने के साथ ही वीरभद्र सिंह ने जिस तर्ज में हाईकमान को भी अपरोक्ष में कोसा है उससे कई सवाल खड़े हो गये हैं। राठौर विधायक नही हैं इस नाते वह विधायकों/मन्त्रीयों के बराबर नहीं आ पाते हैं। फिर जब संगठन की बागडोर किसी गैर विधायक को ही दी जानी थी तो क्या उसमें संगठन के वर्तमान पदाधिकारियों में से भी कोई नाम गणना में नही आना चाहिये था। इस समय संगठन में उपाध्यक्षों और महामन्त्रियों की एक लम्बी सूची है। कुछ तो ऐसे हैं जिन्हे हाईकमान ने विशेष रूप से नियुक्त किया है लेकिन इस समय वह गणना में नही आये। क्योंकि इस बार एक अकेले वीरभद्र सिंह ही नहीं बल्कि चार अन्य नेताओं का भी बदलाव के लिये दबाव रहा है। इस वस्तुस्थिति में यह पूरी संभावना बनी हुई है कि वीरभद्र -सुक्खु के इन तेवरों का अपरोक्ष में उन पदाधिकारियों के मनोबल पर भी प्रभाव पड़े जिन्हे गणना में नहीं लिया गया है। यह स्थिति नये अध्यक्ष के लिये एक बड़ी चुनौती होने जा रही है। इसमें कोई दो राय नही है।

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