Friday, 19 September 2025
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सुखराम परिवार के गिर्द केन्द्रित होता जा रहा यह चुनाव

शिमला/शैल। जयराम सरकार में ऊर्जा मंत्री रहे अनिल शर्मा के बेटे आश्रय शर्मा को मण्डी संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस द्वारा प्रत्याक्षी बनाये जाने के बाद प्रदेश का लोकसभा चुनाव सुखराम परिवार बनाम भाजपा होता जा रहा है। क्योंकि बेटे को कांग्रेस का टिकट मिलने के बाद सबसे पहले यह मुद्दा बना कि अनिल शर्मा मण्डी में भाजपा प्रत्याशी के लिये चुनाव प्रचार करें। जब अनिल ने ऐसा करने में असमर्थता जताई तो फिर यह मुद्दा अनिल के मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र देने का बन गया। अब जब अनिल ने सरकार से त्यागपत्र दे दिया है तो मुद्दा विधानसभा की सदस्यता से भी नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र देने का बन गया है। पूरी भाजपा का हर बड़ा छोटा नेता अनिल का त्यागपत्र मांगने लग गया है। इस तरह पूरी प्रदेश भाजपा का केन्द्रिय मुद्दा अनिल शर्मा बना गया है और यह मुद्दा बनना ही सुखराम परिवार की पहली रणनीतिक जीत है।
जब सुखराम अपने पौत्र को कांग्रेस का टिकट दिलाने में सफल हो गये हैं तो यह तय है कि देर सवेर अनिल शर्मा भाजपा से किनारा कर ही लेंगे। लेकिन ऐसा कब होगा यह इस समय का सबसे अहम सवाल है। अनिल भाजपा के टिकट पर जीत कर आये हैं और तभी मन्त्री बने थे इस नाते वह पार्टी के अनुशासन से बंधे हैं। पार्टी अनुशासन के खिलाफ जाने पर पार्टी सदस्य के खिलाफ कारवाई करके सदस्य को पार्टी से बाहर निकाल सकती है। जो व्यक्ति पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर विधायक या सांसद बना हो उसकी सदन से सदस्यता तब तक समाप्त नही की सकती है जब तक वह सदन में पार्टी द्वारा जारी व्हिप का उल्लंघन न करे। सदन के बाहर कोई भी सांसद/विधायक पार्टी की नीतियों/ फैसलों पर अपनी अलग राय रख सकता है। अलग राय रखने के कारण सदन की सदस्यता रद्द नही की जा सकती है। यह नियमों में स्पष्ट कहा गया है। पार्टी में शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आज़ाद इसके अभी प्रत्यक्ष और ताजा उदाहरण हैं। इसलिये अभी मानसून सत्र तक अनिल की सदस्यता को कोई खतरा नही है। ऐसे में अनिल के लिये यह राजनीतिक आवश्यकता हो जाती है कि वह सार्वजनिक चर्चा में आने के लिये पूरे दृश्य को ऐसा मोड़ देते कि पूरा राजनीतिक परिदृश्य उन्ही के गिर्द घूम जाता और वह ऐसा करने में पूरी तरह सफल भी रहे हैं।
जब भाजपा और मुख्यमन्त्री जयराम ने उनके चुनाव क्षेत्र में जाकर यह कहा कि उनका मन्त्री गायब हो गया है और घर में घास काट रहा है तब अनिल को पलटवार करने का मौका मिला और उसने सीधे कहा कि जब चाय वाला प्रधानमंत्री हो सकता है तो फिर मन्त्री घास क्यों नही काट सकता। इसके बाद यह वाकयुद्ध आगे बढ़ा और अनिल ने जयराम को बाईचांस बना मुख्यमन्त्री करार दे दिया। इस पर जब जयराम ने जबाव दिया तब अनिल ने मण्डी में स्वास्थ्य और सड़क सेवाओं के मुद्दे पर घेर लिया। आज पूरे प्रदेश में शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क सेवाओं की बुरी हालत है। शिक्षा में प्राईवेट स्कूलों की लूट को लेकर छात्र-अभिभावक मंच आन्दोलन की राह पर हैं। सरकार अदालत के फैसले पर अमल नही करवा पायी है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन स्कूलों की लूट को अपरोक्ष में सरकार का समर्थन हासिल है। इसलिये आज तक इस आन्दोलन को लेकर मुख्यमन्त्री और शिक्षा मंत्री की ओर से कोई सीधी प्रतिक्रिया नही आयी है। इसलिये अब अनिल शर्मा जब जयराम के मन्त्री नही रहे हैं तब सरकार के हर फैसले पर अपनी राय सार्वजनिक रूप से रख सकते हैं। वह सरकार के फैसलों की आलोचना कर सकते हैं। अनिल शर्मा सरकार में मन्त्री रहे हैं इसलिये सरकार की हर नीति की जानकारी उनको होना स्वभाविक है। सरकार की प्राथमिकताएं क्या रही हैं और उन पर किस मन्त्री का क्या स्टैण्ड था यह सब अनिल के संज्ञान में निश्चित रूप से रहा होगा। क्योंकि जिस सरकार को वित्त वर्ष के पहले ही सप्ताह में अपनी धरोहरों की निलामी करके कर्ज उठाना पड़ जाये उस सरकार की हालत का अन्दाजा लगाया जा सकता है। आज सरकार की हालत यह है कि सारे निगमों/बोर्डों में राजनेताओं को तैनातीयां नही दे पायी है। सरकार में प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के पद अभी तक नही भरे जा सके हैं। राईट टू फूड के तहत नियमित फूड कमीश्नर की नियुक्ति नही हो पायी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टाॅलरैन्स का दावा करने वाली सरकार आज तक लोकायुक्त की नियुक्ति नही कर पायी है। यहां तक कि नगर निगम शिमला में मनोनीत पार्षदों का मनोनयन नही हो पाया है। यह सवाल उठ रहा है कि सरकार ने लोकसेवा आयोग में तो पद सृजित करके अपने विश्वस्त की ताजपोशी कर दी लेकिन अन्य अदारे आपकी प्राथमिकता नही रहे। ऐसा क्यों हुआ है हो सकता है कि इस बारे में बहुत सारी जानकारियां अब सामने आयें और उनका माध्यम अनिल शर्मा बन जायें।
अनिल शर्मा से नैतिकता के आधार पर सदन से त्यागपत्र मांगा जा रहा है। सुखराम पर पार्टी से विश्वासघात का आरोप लगाया जा रहा है। शान्ता कुमार ने कहा कि वह सुखराम को भाजपा में शामिल करने के पक्ष में नही थे। शान्ता ने यह भी कहा कि सुखराम से पूरे देश में भाजपा की बदनामी हुई है। सुखराम ने यह कहा कि उनके कारण भाजपा को 43 सीटें हालिस हुई हैं। इस तरह सुखराम/अनिल को केन्द्रित करके इतने मुद्दे खड़े हो गये हैं कि चुनाव में उन मुद्दों से ध्यान हटाना संभव नही होगा। भाजपा जब नैतिकता की बात करती है तो पहला सवाल यह उठता है कि इसी भाजपा ने 1996 में सदन के अन्दर एक लघुनाटिका प्रदर्शित की थी उसमें किश्न कपूर और जब जेपी नड्डा ने अनिल-सुखराम के किरदार निभाये थे। लेकिन उसके बाद 1998 में सुखराम के सहयोग से सरकार बनायी और पांच वर्ष चलायी भी। तब क्या भाजपा की नैतिकता कोई दूसरी थी? क्या भाजपा नेता आज नैतिकता दिखायेंगे कि सार्वजनिक रूप से कहे कि 1998 में सुखराम के सहयोग से सरकार बनाना और चलाना दोनो अनैतिक थे। इसके बाद अब 2017 में जब अनिल को भाजपा में शामिल किया और फिर मन्त्री बनाया तब क्या भाजपा के आरोपपत्र में उसके खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप नही था? क्या सत्ता के लिये उस आरोप को नज़रअन्दाज नही किया गया? क्या यह प्रदेश की जनता के साथ विश्वासघात नही था। क्या इस परिदृश्य में भाजपा से यह सवाल नही बनता है कि भाजपा ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कब क्या कारवाई की? शान्ता कुमार ने 1992 में होटल यामिनी के बदले में अपनी प्राईवेट ज़मीन का तबादला करवाया। सचिवालय से यह लिखा गया कि विशेष परिस्थितियों में इसकी अनुमति दी जाती है। ऐसी सुविधा प्रदेश में कितने लोगों को दी गयी है। 1998 में धूमल सरकार में चिट्टों पर हजा़रों लोगों की भर्तीयों का मामला सामने आया। सरकार ने हर्ष गुप्ता और अभय शुक्ला के अधीन दो जांच कमेटीयां बैठाई। इन कमेटीयों की रिपोर्ट में सनसनी खेज खुलासे सामने आये। लेकिन अन्त में सरकार ने कोई कारवाई नही की। अब जयराम सरकार के सामने फिर भाजपा द्वारा सौंपा हुआ आरोप पत्र सामने है। इसी आरोप पत्र में अनिल के खिलाफ आरोप था। भाजपा इस आरोप पत्र पर कारवाई नही कर पायी है। इसके अतिरिक्त दर्जनों और मामले हैं जहां भाजपा की नैतिकता पर गंभीर सवाल उठते हैं। आज भी भ्रष्टाचार जारी है। ऐसे में भाजपा जब सुखराम और अनिल की नैतिकता पर सवाल उठायेगी तब सबसे पहले उसी की नैतिकता उसके सामने आ जायेगी। विश्लेष्कों के मुताबिक मुख्यमन्त्री के सलाहकारों ने ही मुख्यमन्त्री को आज संकट में लाकर खड़ा कर दिया है। इन्ही सलाहकारों के कारण यह चुनाव सुखराम परिवार के गिर्द केन्द्रित होता जा रहा है।

सरकार के खिलाफ पार्टी का आरोप पत्र और वीरभद्र का जयराम को ईमानदारी का प्रमाणपत्र

शिमला/शैल। कांग्रेस ने हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से अन्ततः पूर्व मन्त्री और श्री नयना देवी के विधायक रामलाल ठाकुर को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। इस घोषणा के साथ प्रदेश की चारों सीटों के लिये उम्मीदवारों के चयन की क्रिया पूरी हो गयी है। जिन चार लोगों को उम्मीदवार बनाया गया है उनमें से तीन रामलाल ठाकुर, पवन काजल और धनी राम शांडिल मौजूदा विधायक हैं। केवल मण्डी से ही युवा और नये चेहरे आश्रय शर्मा को चुनाव मैदान में उतारा गया है। लेकिन आश्रय की राजनीतिक पृष्ठभूमि बाकी तीनों से कहीं ज्यादा भारी है। क्योंकि उनके दादा पंडित सुखराम प्रदेश और केन्द्र सरकार में मन्त्री रहे हैं तथा पिता अनिल शर्मा अभी तक जयराम सरकार में मन्त्रिमण्डल में ऊर्जा मंत्री हैं।
इस तरह कांग्रेस द्वारा तीन विधायकों को लोकसभा चुनावों में उतारने से संगठन की स्थिति सामने आ जाती है कि कांग्रेस का संगठन कितना मज़बूत है। जब संगठन किन्ही कारणों से कमजोर से हो तो रणनीति ही रह जाती है जिससे प्रतिद्वन्दी को मात दी जा सकती है। इस रणनीति के तहत ही पंडित सुखराम और उनके पौत्र को भाजपा से तोड़कर कांग्रेस में शामिल किया गया तथा चुनाव का टिकट भी दे दिया गया। इसी गणित में हमीरपुर से भाजपा के तीन बार सांसद रह चुके और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुरेश चन्देल को कांग्रेस में शमिल करके उन्हें उम्मीदवार बनाने की चर्चा उठी थी। इसी चर्चा के कारण हमीरपुर के टिकट का फैसला इतनी देर से हुआ और चन्देल की चर्चा सिरे नहीं चढ़ी तथा रामलाल ठाकुर को टिकट दिया गया। राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में चन्देल का शामिल न हो पाना कांग्रेस की बड़ी रणनीतिक असफलता मानी जा रही है क्योंकि यदि चन्देल पार्टी में शामिल हो जाते तो यह भाजपा के लिये मनोवैज्ञानिक तौर पर एक बड़ा झटका होता है। अब रामलाल के उम्मीदवार होने के बाद यहां कांग्रेस किस तरह से अपनी ईमानदार एकजुटता का परिचय देती है यह आने वाले दिनों में ही पता चलेगा। हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के सत्रह विधानसभा क्षेत्रों में से पांच पर कांग्रेस का कब्जा है और एक पर निर्दलीय का है। यहीं से नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुखविन्दर सिंह सुक्खु ताल्लुक रखते हैं। इन्हीं के साथ सुजानपुर के राजेन्द्र राणा जिन्होंने विधानसभा में प्रेम कुमार धूमल को हराकर प्रदेश की राजनीति को ही एक नयी करवट पर ला दिया उन्हें भी अपने को पुनः प्रमाणित करने की चुनौती होगी। क्योंकि वीरभद्र सिंह ने बहुत अरसा पहले ही राजेन्द्र राणा के बेटे अभिषेक राणा को हमीरपुर से भावी प्रत्याशी घोषित कर दिया था और अन्त तक अपने स्टैण्ड पर टिके रहे हैं। ऐसे में सुजानपुर में कांग्रेस का प्रदर्शन राणा और वीरभद्र सिंह दोनो की ही नीयत और नीति की कसौटी भी बन जाता है।
इस समय प्रदेश कांग्रेस में सबसे बड़ा नाम वीरभद्र सिंह का ही है इसमें कोई दो राय नही है। भले ही वह ईडी और सीबीआई के मनीलाॅडिंªग तथा आय से अधिक संपत्ति के मामले झेल रहे हैं। वीरभद्र एक प्रमाणित राजनीतिक प्रबन्धक हैं यह सभी मानते हैं। उनके इसी प्रबन्धन का कमाल है कि इन मामलो में सहअभियुक्त बने आनन्द चौहान और वक्कामुल्ला चन्द्रशेखर की तो गिरफ्तारी हो गयी लेकिन वीरभद्र पर हाथ नही डाला जा सका। बल्कि जब ऐजैन्सी ने वक्कामुल्ला की जमानत रद्द करवाने के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय में दस्तक दी तब न्यायालय ने इसी बिन्दु पर ऐजैन्सी को लताड़ लगायी कि मुख्य अभियुक्त को छोड़कर सहअभियुक्तों के खिलाफ कारवाई क्यों। आज वीरभद्र के खिलाफ चाहे दोनों मामलों में प्रतिकूल फैसला आ जाए लेकिन अब उनकी गिरफ्तारी का वक्त निकल गया है और सर्वोच्च न्यायालय तक अपीलों का रास्ता खुला है। आज मोदी सरकार भ्रष्टाचार के प्रति कितनी गंभीर और ईमानदार है उसका इसी से अन्दाजा लग जाता है। वीरभद्र के बाद दूसरे बड़े नाम हैं कौल सिंह ठाकुर, जी एस बाली, सुक्खु, अग्निहोत्री, आशा कुमारी और सुधीर शर्मा। कांग्रेस के बाकी नेताओं की गिनती इनके बाद आती है। अग्निहोत्री, आशा कुमारी और सुधीर शर्मा वीरभद्र कैंप माना जाता है। कौल सिंह और सुक्खु इकट्ठे माने जाते हैं और जी एस बाली को कभी दोनों के साथ तो कभी अलग गिना जाता है। इस तरह प्रदेश कांग्रेस दो हिस्सों में बंटी हुई है। दिल्ली में बैठे आनन्द शर्मा दोनो धड़ों को बराबर अपनी सुविधानुसार समर्थन देते रहते हैं। उनका इतना ही तय है कि वह वीरभद्र सिंह का कभी भी मन से विरोध नही करते हैं बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि आज आनन्द शर्मा जिस मुकाम पर हैं उसमें सबसे ज्यादा योगदान और समर्थन वीरभद्र सिंह का ही रहा है
आज लोकसभा चुनावों के परिदृश्य में कांग्रेस के इस गणित को नजऱअन्दाज करके कोई आकलन नहीं किया जा सकता। यह एक जमीनी सच है कि आज यदि वीरभद्र सिंह ईडी और सीबीआई के हाथों बड़ी कारवाई से बचे रहे हैं तो इसके लिये उनके मोदी सरकार के साथ भी कहीं न कहीं अच्छे रिश्तों की भूमिका अवश्य रही है। यह भी स्वभाविक है कि जब आप किसी से सहयोग लेते हैं तो कभी उसे ब्याज समेत लौटाना भी पड़ता है। फिर राजनीति मे इस लेनदेन का सबसे सही वक्त चुनाव ही होता है। यदि इस गणित से पिछले करीब चार महीनों की प्रदेश की राजनीति का आकलन किया जाये तो सबसे पहले यह आता है कि जब वीरभद्र सिंह ने जयराम सरकार को यह अभय दान दिया था कि उनके खिलाफ सत्र में बड़ी आक्रामकता नही अपनाई जायेगी। इसके बाद वीरभद्र सिंह ने खुलेआम कहा कि मण्डी से कोई भी मकरझण्डू चुनाव लड़ लेगा। मण्डी के बाद हमीरपुर और कांगड़ा से उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया। अभिषेक राणा और सुधीर शर्मा की उम्मीदवारी घोषित कर दी। इस उम्मीदवारी की घोषणा के बाद सुक्खु को अध्यक्ष पद से हटाने के लिये कुलदीप राठौर के नाम पर अपनी मोहर लगा दी। जब हमीरपुर से एक समय प्रैस ने सुक्खु के संभावित उम्मीदवार होने पर प्रश्न प्रश्न पूछा तो सीधे कह दिया कि हाईकमान में ऐसा कोई मूर्ख नही है जो सुक्खु का उम्मीदवार बनायेगा। अब सुखराम को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रिया वीरभद्र दे रहे हैं उससेे और स्पष्ट हो जाता है कि वह किसी बड़े दवाब में चल रहे हैं। क्योंकि जो कुछ पिछले चार-पांच महीनों में घटा है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वीरभद्र की प्राथमिकता भाजपा को हराने की तो बिल्कुल भी नही रही है। आज राष्ट्रीय स्तर पर पूरा देश भाजपा और गैर भाजपा में बंटा खड़ा है और वीरभद्र जयराम सरकार को ईमानदारी का प्रमाणपत्र बांट रहे हैं जबकि अभी कुछ समय पहले ही कांग्रेस ने इसी सरकार के खिलारफ राज्यपाल को एक आरोपपत्र सौंपा है। इस परिप्रेक्ष्य में कांग्रेस और वीरभद्र दो अलग- अलग ध्रुवों के रूप में सामने आते हैं और यही सबकुछ इस पर गंभीर सवाल भी खड़े कर जाता है।
क्योंकि जब वीरभद्र जैसा बड़ा नेता भाजपा की प्रदेश सरकार को ईमानदारी का प्रमाणपत्र बांटेगा तो फिर चुनाव प्रचार अभियान में किस आधार पर उस सरकार के खिलाफ वोट मांगेगा। जब सुखराम को आया राम गया राम की संज्ञा देंगे तो फिर कैसे उसके साथ स्टेज शेयर करेंगे।
इस तरह के कई सवाल एक साथ उठ खड़े हुए हैं। इन सवालों से कांग्रेस का पक्ष निश्चित रूप से कमजोर होता है। फिर इसी के साथ चारों क्षेत्रों में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की एक दूसरे से नाराज़गी की खबरें भी आये दिन प्रमुखता से सामने आ रही हैं। ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष कुलदीप राठौर के लिये संगठन के भीतर की इस खेमेबाजी को नियन्त्रण में रख पाना बहुत आसान नही होगा। क्योंकि वीरभद्र जैसे बड़े नेताओं को इस ऐज-स्टेज पर पार्टी अनुशासन में बांध कर रखना बहुत आसान नही होगा। आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी भाजपा का मुकाबला करने से पहले अपने ही घर को अनुशासन में कैसे रख पाती है।

                                            यह हैं कांग्रेस प्रत्याशी

       आश्रय शर्मा (मण्डी)                        रामलाल ठाकुर  (हमीरपुर)
















 

         डाॅ. धनीराम शांडिल                                     पवन काजल

              शिमला                                                  कांगड़ा

       

 


सरकार को नहीं पता की तीन लाख एकड़ जमीन कहां है

शिमला/शैल। देश में 1975 में जब आपातकाल लगा था तब गांवों के भूमिहीन लोगों को दस दस कनाल ज़मीने दी गयी थी ताकि कोई भी भूमिहीन न रहे। प्रदेश में इस योजना को पूरी ईमानदारी के साथ लागू किया गया था। जिन लोगों को इस योजना के तहत ज़मीने मिली थी उन्हे बाद में यहां पर उगे पेड़ों का अधिकार भी दे दिया गया था और इसी के साथ यह भी कर दिया गया था कि यह लोग इन जमीनों को आगे बेच नही सकेगें। बल्कि आज जब कोई भू-सुधार अधिानियम धारा 118 के तहत अनुमति लेकर जमीन खरीदता है तो बेचने वाले को यह घोषणा करनी पड़ती है कि वह इस जमीन को बेचने के बाद भूमिहीन नही हो रहा है। आपातकाल के दौरान लायी गयी इस योजना से पूर्व 1953 और फिर 1971 में दो बार भू- सुधार अधिनियम आ चुके हैं। 1953 में बड़ी जिमींदारी प्रथा के उन्मूलन के लिये Ablolition of Big Landed Estate Act. लाया गया था। इस अधिनियम के तहत सौ रूपये और उससे अधिक लगान देने वाले जिमींदारों की फालतू जमीने सरकार में शामिल कर ली गयी थी। इसके बाद 1971 में लैण्डसीलिंग एक्ट के तहत 161 बीघे से अधिक जमीन नही रखी जा सकती है। यह कानून लागू हो गया था।
सरकार के इन दोनों कानूनो के लागू होने के बाद सरकार के पास तीन लाख एकड़ जमीन आ गयी थी यह सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इन्द्रसिंह ठाकुर की याचिका में स्वीकार किया हुआ है। सरकार को मिली यह जमीन भूमिहीनों को दी जानी थी यह भी इन दोनों अधिनियमों मे कहा गया है लेकिन आज भी सरकारी आंकड़ो के मुताबिक प्रदेश में 2,27000 परिवार भूमिहीन हैं। जिनमें से 80% दलित हैं। सरकार के इन आंकड़ों से यह सवाल उठता है कि प्रदेश में दो बार 1953 और 1971 में भू- सुधार अधिनियम लागू हुए हैं और फिर आपातकाल में हर भूमिहीन को 10 कनाल जमीन देने के बाद भी भूमिहीनों का यह आंकडा क्यों? क्या प्रदेश में इन अधिनियमों की अनुपालना केवल सरकारी फाईलों में ही हुई है। पिछले 24 सितम्बर को राज कुमार, राजेन्द्र सिंह बनाम एसजेवीएनएल में आये फैसले के बाद प्रदेश सरकार यह खोजने का प्रयास कर रही है कि उसके पास कितनी जमीनेे आयी हैं। विजिलैन्स प्रदेश के राजस्व विभाग से यह जानकरी मांगी है लेकिन अभी तक यह जानकारी मिल नही पायी है। सर्वोच्च न्यायालय ने राजेन्द्र सिंह के मामले में स्पष्ट आदेश किये हैं कि जब इन अधिनियमों के बाद इनकी फालतू जमीने सरकार में चली गयी थी तो फिर इनसे विकास कार्याें के नाम पर मुआवजा देकर ज़मीने कैसे ली गयी।
सर्वोच्च न्यायालय ने पूरे परिवार के ऐसे चलने को फ्राॅड की संज्ञा देते हुए इन्हें दिये गये मुआवजे को ब्याज सहित वापिस लेने के आदेश दिये हैं। लेकिन जयराम सरकार अभी तक इस आदेश की अनुपालना नहीं कर पायी है। बल्कि सरकार के पास ऐसा रिकार्ड ही अभी उपलब्ध नहीं है। बल्कि एफ सी अपील ने इस परिवार को जो 98 बीघे जमीन सरपल्स घोषित की थी उस जमीन को भी सरकार अभी तक शायद अपने कब्जे में नहीं ले पायी है। इसी तरह तीन लाख एकड़ जमीन की हकीकत है।

क्या जयराम सरकार के मन्त्री भी आऊट सोर्सिंग के कारोबार में शामिल हैं

शिमला/शैल। अभी कुछ दिन पहले प्रदेश विश्वविद्यालय के समीप पाॅटर हिल में आरएसएस की शाखा लगाने और क्रिकेट खेलने को लेकर उठे विवाद में आरएसएस के स्यवंसेवकों, विद्यार्थी परिषद के छात्रों और एसएफआई के बीच खूनी झड़प हो गयी जिसमें इन तीनों संगठनों के करीब डेढ़ दर्जन लोग घायल हुए हैं। घायलों को आईजीएमसी और रिपन अस्पताल में भर्ती करना पड़ा है। यह पहला मामला है जहां इस तरह के संघर्ष में आरएसएस का नाम आया है। इस झगड़े के बाद दोनो पक्षों की ओर से पुलिस में मामले दर्ज करवाये गये हैं। मामले दर्ज होने के बाद पुलिस आरोपियों को पकड़ने के लिये कारवाई में जुट गयी है। इस संघर्ष में कुछ लोग गंभीर रूप से घायल हैं और उन्हें डाक्टरों की निगरानी में रखा गया है। इस मामले पर मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर से लेकर शिक्षा मन्त्री सुरेश भारद्वाज और एसएफआई तथा नौजवान सभा के नेता आमने-सामने आ गये हैं। प्रदेश सीपीएम के शीर्ष नेतृत्व ने इस संबंध में एक पत्रकार वार्ता करके सरकार और मुख्यमन्त्री की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाये हैं। आरोप लगाया गया है कि विश्वविद्यालय का भगवाकरण किया जा रहा है। आरएसएस के कार्यकर्ताओं की गतिविधियों को लेकर चुनाव आयोग तक से शिकायत की गयी है।
नौजवान सभा के संयोजक चन्द्रकांत वर्मा ने आरोप लगाया है कि इस खूनी झड़प का मूल कारण विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा आऊट सोर्स पर की गयी भर्तियां हैं। उसके मुताबिक आऊट सोर्स पर भर्तीयां करने के लिये टैण्डर मंगवाये गये थे और भर्ती का ठेका किसी काॅरपोरेट नामक कंपनी को दे भी दिया गया था। लेकिन इस ठेेके को बाद में शिक्षा मंत्री के हस्तक्षेप से रद्द कर दिया गया। बाद में फिर टैण्डर मांगे गये और इस बार सिंगल टैण्डर पर ही एक उत्तम हिमाचल नामक कंपनी को यह ठेका दे दिया गया। यह उत्तम हिमाचल कंपनी शिक्षा मंत्री के किसी करीबी की बताई जा रही है। आऊट सोर्स के माध्यम से विश्वविद्यालय की परिणाम शाखा में 18 प्रोग्रामर भर्ती किये गये हैं। आरोप है कि यह सारे लोग भाजपा और आरएसएस से संवद्ध लोग हैं। इन लोगों के भर्तीे होने से परिणामों की निष्पक्षता प्रभावित होने का सन्देह व्यक्त किया जा रहा है।
विश्वविद्यालय की परिणाम शाखा एक गोपनीय प्रभाग मानी जाती है जिसमें गोपनीयता का विशेष ध्यान रखा जाता है। ऐसे में यह पहला सवाल उठता है कि क्या इस शाखा में गोपनीयता का काम आऊट सोर्स पर तैनात किये गये कर्मचारियों को सौंपा जा सकता है। आऊटसोर्स पर सेवा उपलब्ध करवाने वाली कंपनी शिक्षा मन्त्री के करीबी की कही गयी है। इसका कोई खण्डन नही आया है। यह सरकार भी अपने विभिन्न अदारों में आऊट सोर्स पर भर्तीयां कर रही है। विश्वविद्यालय के इस विवाद से पहले राज्य बिजली बोर्ड में आऊट सोर्स के टैण्डर को लेकर विवाद खड़ा हो चुका है। अभी आऊट सोर्स कर्मीे कालीबाडी़ में एक सम्मेलन करके आन्दोलन की रूप रेखा तैयार कर चुके हैं। जयराम के एक मन्त्री के तो इस संबंध में पत्र भी छप चुके हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार के कुछ मन्त्री इस आऊट सोर्स नीति को अपना समर्थन दे रहे हैं। लेकिन इस संद्धर्भ में सरकार की नीयत और नीति पर उस समय शक हो जाता है जब सरकार आऊट सोर्स को लेकर विधानसभा में पूछे गये सवालों को यह कहकर लंबित कर देती है कि सूचना एकत्रित की जा रही है। जब सरकार आऊट सोर्स पर भर्तीयां कर ही रही है फिर इसमें पूरी सूचना सार्वजनिक रूप से सामने न रखना सवाल तो खड़े करेगा ही। क्योंकि इन भर्तीयों में शैक्षणिक मैरिट और आरक्षण के तहत रोस्टर आदि की अनुपालना करने की कोई बंदिश नही रहती है। और ठेकेदार को बिना किसी काम के मोटा कमीशन मिलता रहता है। यह कंपनी अपने दफ्तर का काम भी केवल एक बोर्ड टांगकर ही चला लेती है। न्यू शिमला में इस तरह की एक कंपनी का बोर्ड काफी चर्चा में रहा है।
इस परिदृश्य में आज यह एक बड़ा सवाल बनता जा रहा है कि जो लाखों लोग रोज़गार कार्यालयों के माध्यम से नाम पंजीकृत करवाकर रोजगार की प्रतीक्षा में बैठे हैं उनका क्या होगा। इस समय प्रदेश के रोजगार कार्यालयों में 8,34084 लोग पंजीकृत हैं। जिनमें 73077 पोस्ट ग्रैजुएट, 1,32,186 ग्रैजुएट, 5,86,453 मैट्रिक, 40819 अन्य पढ़े लिखे और 1549 अनपढ़ है। लेकिन पिछले पन्द्रह वर्षों में प्रतिवर्ष कितने लोगों को सरकार और प्राईवेट क्षेत्र में रोजगार मिल सका है यह सरकार के अर्थ एवम् संख्या विभाग के इन आंकड़ो से स्पष्ट हो जाता है।
इसी के साथ यह आंकड़ा भी महत्वपूर्ण है कि इस सरकार में कुल 1,77,338 कर्मचारी नियमित रूप से कार्य कर रहे हैं जबकि 42,877 कर्मचारी नियमित नही हैं। इन आंकड़ो में वाॅलंटियर, तदर्थ, विद्याउपासक, टैन्योर और कान्ट्रैक्ट आदि सब शामिल है इसमें आऊट सोर्स का आंकड़ा शामिल नही है क्योंकि आऊट सोर्स को सरकारी कर्मचारी की संज्ञा नही दी जा सकती। आज आऊट सोर्स कर्मचारियों की संख्या भी करीब पचास हजार का आंकड़ा छूने वाली है क्योंकि जब वीरभद्र सरकार के दौरान इन्हें नियमित करने की नीति बनाने की चर्चा उठी थी तब इनकी संख्या 35000 कही गयी थी। उसके बाद आजतक इसमें 15000 से अधिक और भर्ती होने की चर्चा है। ऐसे में आने वाले दिनों में विश्वविद्यालय की तरह और कहां-कहां क्या घट सकता है इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इन आंकड़ो से सरकार के इन दावों का सच भी सामने आ जाता है कि कब कितना रोजगार मिला है।

अनिल बने भाजपा के गले की फांस

शिमला/शैल। जयराम के ऊर्जा मंत्री अनिल शर्मा के बेटे आश्रय मण्डी लोकसभा सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी बन गए। आश्रय के कांग्रेस का उम्मीदवार होने से भाजपा के लिये अनिल शर्मा को मंत्रीमण्डल और पार्टी में बनाये रखना गले की फांस बनता जा रहा है। क्योंकि जब तक अनिल शर्मा भाजपा के लिखित आदेशों की अनुपालना करने से इन्कार नहीं करते हैं तब तक उनके खिलाफ दल बदल एंवम् अनुशासनहीनता के तहत कारवाई नही की जा सकती है। अभी तक सूत्रों के मुताबिक रिकार्ड पर ऐसा कुछ नही आया हालांकि अनिल शर्मा लोकसभा क्षेत्रा के लिये आयोजित कार्यक्रम ‘‘मै भी चैकीदार हूं’’ में जाहू में शामिल नही हुए हैं। लेकिन इसके लिये कोई लिखित आदेश नही थे। ऐसे में अनिल शर्मा का निष्कासन पेचीदा होता जा रहा है। क्योंकि अनिल शर्मा मुख्यमन्त्री के अपने ही गृह जिला से ताल्लुक रखते हैं और वरिष्ठ मंत्री है। इस नाते उन्हें सरकार के अन्दर की जानकारियों का ज्ञान होना स्वभाविक है। फिर यह बाहर आ ही चुका है कि अनिल शर्मा मुख्यमन्त्री के सलाहकारों के प्रति बहुत सन्तुष्ट नही रहे हैं। इससे यह इंगित हो जाता है कि जब चुनाव के दिनों में भाजपा अनिल को बाहर करती है तब सरकार को लेकर बहुत सारी असहज स्थितियां पैदा हो सकती हंै।
अभी पंडित सुखराम को लेकर जिस तरह का ब्यान शान्ता कुमार का आया है उससे भाजपा पर ही सवाल खड़े हो जाते हैं कि जब 1998 और 2017 में सुखराम का सहयोग भाजपा ने लिया था और उनके साथ मिलकर सरकार बनाई थी तब सुखराम अच्छे थे और उससे भाजपा की कोई बदनामी नही हुई थी जो आज उनके भाजपा के साथ छोड़ने से हो गयी है। यह निश्चित है कि भाजपा जितना ज्यादा सुखराम और अनिल को कोसेगी उतना ही ज्यादा भाजपा का नुकसान होगा। आज राजनीतिक परिस्थितियों में विष्लेशकों के मुताबिक अनिल शर्मा को यह सुनिश्चित करना है कि भाजपा जल्द से जल्द उन्हें पार्टी से निकाले और वह खुलकर बेटे के लिये चुनाव प्रचार करें। अभी अनिल शर्मा के खिलाफ संगठन की अनुशंसा पर दल बदल कानून के तहत कितनी कारवाई संभव है इस पर स्थिति स्पष्ट नही है। क्योंकि संगठन में लोकतान्त्रिक अधिकारों के तहत मत भिन्नता की पूरी छूट रहती है। आज जब पूरी भाजपा ‘‘मै भी चैकीदार हूं’’ हो रही है तब इसके कई वरिष्ठ सांसदों/मन्त्रीयों ने चैकीदार होने से मना कर दिया है। यह कार्यक्रम संगठन का है और इसे न मानने से दल बदल के तहत कारवाही आकर्षित नही होती है। यह कारवाही सामान्यतः सदन में विहिप की उल्लघंना पर ही होती है और अभी प्रदेश विधानसभा का कोई सत्र होने नही जा रहा है। ऐसे में अनिल के लिये सदन की सदस्यता से वंचित होने और फिर उपचुनाव का सामना करने की स्थिति लोकसभा चुनावों के बाद ही आयेगी ऐसे में यह भाजपा को देखना है कि वह अनिल के निष्कासन का जोखिम अभी उठाती है या बाद में।

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