शिमला/शैल। प्रदेश की चारों लोकसभा सीटों पर भाजपा का फिर से कब्जा हो गया है। 2014 में भी चारों सीटें भाजपा के पास ही थी लेकिन इस बार जिस प्रतिशत के साथ यह जीत मिली है उससे देशभर में हिमाचल पहले स्थान पर आ गया है। इस जीत का श्रेय मुख्यमन्त्री ने प्रधानमन्त्री को दिया है। क्योंकि लोगां ने वोट चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों के नाम या भाजपा के नाम पर नही बल्कि मोदी के नाम पर दिया है। यह हकीकत है लेकिन इस जीत में मुख्यमन्त्री का अपना भी एक बड़ा योगदान है क्योंकि पूरे चुनाव की कमान प्रदेश में इन्ही के कन्धों पर थी। उन्होने ही प्रदेशभर मे प्रचार की कमान संभाल रखी थी। जो मत प्रतिशत सभी चारों प्रत्याशीयों को मिला है शायद उतने की उम्मीद किसी ने भी नही की थी। इसलिये जीत जितनी बड़ी हो गयी है मुख्यमन्त्री की चुनौतीयां भी उतनी ही बड़ी हो गयी है।
इस चुनाव के बाद अब छः माह के अन्दर प्रदेश को धर्मशाला और पच्छाद में उपचुनाव का सामना करना पड़ेगा। इन उपचुनावों में भी इसी तर्ज पर जीत दर्ज करना मुख्यमन्त्री के लिये व्यक्तिगत चुनौती होगा। अभी इस वित्तीय वर्ष के पहले ही महीने में सरकार को कर्ज लेने की बाध्यता हो गयी थी और सरकार ने कर्ज लिया भी। लेकिन इन चुनावों के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह ने अपनी चुनावी रैलीयां के संबोधन में विस्तृत आंकड़े रखते हुए यह खुलासा किया है कि मोदी सरकार ने प्रदेश को करीब दो लाख तीस हजार करोड़ दिया है। यह एक बहुत बड़ी रकम है और जब अमितशाह ने यह आंकड़ा दिया है तब इस पर सन्देह करने की कोई गुंजाईश ही नही है। इसलिये प्रदेश की जनता इस पर जवाब चाहेगी कि जयराम के प्रशासन ने इसे कहां खर्च कर दिया जिसके कारण कर्ज लेने की नौबत आ गयी। बल्कि बजट के बाद प्रदेश में सीमेन्ट के दाम बढ़ गये। अब बिजली के रेट दूसरी बार बड़ने की संभावना हो गयी है। प्रदेश के उद्योगां में निवेश बढ़ाने और नया निवेश आमन्त्रित करने के लिये एक निवेशक मीट आयोजित हो चुकी है। इस मीट के बाद कितना निवेश प्रदेश में आ चुका है इसकी कोई जानकरी प्रशासन की ओर से अभी तक सामने नही आयी है जबकि दूसरी मीट के लिये विदेश जाने तक की बात हो रही है। वीरभद्र शासन के दौरान भी इसी प्रशासन ने तीन बार ऐसी निवेश मीट आयोजित की थी करोड़ो रूपया इन पर खर्च किया गया था लेकिन धरातल पर कोई निवेश प्रदेश को मिला नही है। बल्कि प्रदेश द्वारा अपने दम पर चिन्हित की जलविद्युत परियोजनाओं तक में निवेश के लिये कोई आगे नही आया है। जबकि निवेश के रास्ते में आने वाले हर तरह के नियमों का सरलीकरण किया गया है। इस पृष्ठभूमि को सामने रखते हुए प्रशासन की हर योजना को मुख्यमन्त्री को अपने स्तर पर जांचने की आवश्यकता एक और चुनौती बन जायेगी।
इसी के साथ मन्त्रीमण्डल का विस्तार भी एक और राजनीतिक चुनौती होगा? अनिल शर्मा के त्यागपत्र और किश्न कपूर के सांसद बन जाने के बाद मन्त्रीमण्डल में दो स्थान खाली हो गये इन स्थानों पर कौन दो विधायक आयेंगे यह भी एक बड़ा फैसला होगा। हालांकि मुख्यमन्त्री ने यह कह रखा है कि लोस चुनावों में जो ज्यादा बढ़त देगा उसे मन्त्रीमण्डल में स्थान मिलेगा। इस समय हमीरपुर को कोई स्थान मन्त्रीमण्डल में नही मिला है लेकिन स्थान कांगड़ा और मण्डी के खाली हुए हैं। संख्याबल के लिहाज से यह प्रदेश के सबसे बड़े जिले हैं और उस अनुपात से इन्ही जिलों से यह स्थान भरने की मांग आना अनुचित भी नही होगा। इस परिदृश्य में यह देखना दिलचस्प होगा कि यह खाली स्थान उपचुनावों के बाद भरे जाते हैं या पहले। बल्कि विभिन्न निगमो/बोर्डां मे ताजपोशीयों के लिये भी कार्यकर्ताओं की ओर से मांग आयेगी और अब इस जीत के बाद यह मांग गलत भी नही होगी। इस तरह इस जीत ने जहां जयराम के नाम एक इतिहास बना दिया है वहीं पर उनकी चुनौतियां भी बढ़ गयी हैं।
शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस इस बार फिर सभी चारों सीटों पर भाजपा के हाथों हार गयी है। इस हार का सबसे बड़ा पक्ष यह है कि प्रदेश के 68 विधानसभा क्षेत्रों में से एक पर कांग्रेस को बढ़त नही मिल पायी है। प्रदेश के छः बार मुख्यमन्त्री रह चुके वीरभद्र सिंह, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, पूर्व केन्द्रिय मन्त्री आनन्द शर्मा और राष्ट्रीय सचिव आशा कुमारी तक कोई भी बड़ा नेता अपने अपने क्षेत्र तक नही बचा सका है। इस हार पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए वीरभद्र सिंह ने कहा है कि पूर्व अध्यक्ष सुखविन्दर सिंह सुक्खु को बहुत पहले ही पद से हटा दिया जाना चाहिये था।
स्मरणीय है कि सुक्खु को इसी वर्ष फरवरी के अन्त में अध्यक्ष पद से हटाया गया था। यह भी तब संभव हुआ था जब आनन्द शर्मा, वीरभद्र सिंह, मुकेश अग्निहोत्री और आशा कुमारी ने एक साथ लिखित में सुक्खु को हटाने की मांग रखी थी। जबकि वीरभद्र सिंह 2012 में सरकार बनने के बाद से ही सुक्खु को हटाने की मांग करने लग गये थे। प्रदेश कांग्रेस पर नजर रखने वाले विष्लेशक जानते हैं वीरभद्र सिंह हर उस अध्यक्ष का विरोध करते रहे हैं जो उनकी सहमति से नही बना हो। बल्कि सुक्खु एक मात्र ऐसा अध्यक्ष रहा है जो वीरभद्र सिंह के सीधे विरोध के बाद भी काफी समय तक इस पद पर बना रहा है। कांग्रेस भाजपा और वामदलों जैसा संगठन नही है जहां सरकार और सत्ता से संगठन का कद बड़ा हो जाये। यहां पर प्रायः मुख्यमन्त्री ही संगठन पर संगठन से अधिक सरकार की नीतियां प्रभावी रहती हैं और शायद इसी कारण से सरकार कभी सत्ता में दोबारा वापसी नही कर पायी है। क्योंकि सरकार बनने के बाद उस संगठन के साथ तालमेल की कमी आ जाती है जो सरकार के निर्देशों के अनुसार न बना हो। प्रदेश में हर बार वीरभद्र संगठन पर हावि रहे हैं और इस हावि होने से संगठन का बजूद नही के बराबर हो जाता रहा है। सुक्खु को हटाने के बाद वह सभी नेता अपने-अपने चुनाव क्षेत्र तक नही बचा सके हैं जिन्हांने सुक्खु को हटाने के लिये लिखित में प्रस्ताव किया था।
सुक्खु को हटाने के बाद जो नयी कार्यकारिणी बनाई गयी थी और उसमें जिस संख्या में पदाधिकारी बनाये गये थे यदि वह लोग भी अपने-अपने बूथ की जिम्मेदारी ले लेते तो भी शायद इतनी शर्मनाक हार न होती। वीरभद्र सिंह छः बार प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे हैं इसलिये यह उनकी पहली जिम्मेदारी बनती थी कि वह अपने बाद प्रदेश में नया नेतृत्व तैयार करते किसी को तो अपना उत्तराधिकारी घोषित करते। बल्कि उनकी सारी कार्यप्रणाली से अब अन्त में आकर यही झलक रहा है कि उनके बेटे को बड़ा नेता बनने तक प्रदेश में कांग्रेस खड़ी भी न हो पाये। क्योंकि आज जब सभी नेता अपना-अपना चुनाव क्षेत्र तक नही बचा पाये हैं तो कल यदि इनमें से अधिकांश नेताओं को टिकट से वंचित कर दिया तो यह लोग उसका विरोध कैसे कर पायेंगे। क्योंकि कोई भी नेता वीरभद्र के साये से बाहर निकलकर अपना अलग से बजूद नही बना पाया है।
इसी चुनाव में कांग्रेस नेता पूर्व मन्त्री विजय सिंह मनकोटिया ने वीरभद्र सिंह पर आरोप लगाया है कि अपने केसां से बचने के लिये उन्होने पार्टी को भाजपा के आगे एक तरह से गिरवी रख दिया है। मनकोटिया के इस आरोप पर यदि गंभीरता से नजर दौड़ाई जाये तो मण्डी से होने वाले किसी भी प्रत्याशी का कद उस समय बौना हो गया था जब वीरभद्र सिंह ने यह कहा था कि कोई भी मकरझण्डू चुनाव लड़ लेगा। इस ब्यान के बाद कांगड़ा और हमीरपुर से अपने ही तौर पर प्रत्याशीयों के नाम उछाल दिये और अन्त तक उनकी वकालत करते रहे। जब यह प्रत्याशी उनकी पंसद के नही हो पाये तो उन्होने प्रचार के दौरान हर जनसभा में परोक्ष/अपरोक्ष में यह संदेश और संकेत अवश्य दिया कि प्रत्याशी उनकी पंसन्द का नही है। इसी के साथ चुनाव प्रचार में वीरभद्र मुख्यन्त्री जयराम को ईमानदारी का प्रमाणपत्र भी बराबर बांटते रहे। वीरभद्र के इन ब्यानों पर प्रदेश में कोई भी नेता सवाल तक खड़ा नही कर पाया। प्रदेश की प्रभारी रजनी पाटिल लगातार इसी डर में रही कि कौन सा नेता न जाने मंच से कब क्या ब्यान दे दे। कुलदीप राठौर का कद भी अध्यक्ष होने के वाबजूद इतना बड़ा नही हो पाया था कि वह किसी भी बड़े नेता को रोक पाते। इस सबका परिणाम था कि अधिकांश बूथों पर पार्टी के कार्यकर्ता थे ही नही। यहां तक की जब पांवटा साहिब में वीवीपैट और ईवीएम मैच नही कर पायी तो कांग्रेस उसको भी मुद्दा बनाकर उठा नही पायी। इससे यही प्रमाणित होता है कि पार्टी के बड़े नेताओं का एक बड़ा वर्ग अपरोक्ष में भाजपा की मद्द कर रहा था। इसको लेकर पार्टी के भीतर एक बड़ा विवाद छिड़ गया है। वीरभद्र ब्रिगेड से लेकर अब तक पूर्व मुख्यमन्त्री की भूमिका पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं।
शिमला/शैल। प्रदेश में इन दिनों छात्रवृति घोटाला चर्चा का विषय बना हुआ है। राज्य सरकार ने इस घोटाले की जानकारी मिलने के बाद इसकी प्रारम्भिक जांच राज्य परियोजना अधिकारी शक्ति भूषण से करवाई थी। शक्ति भूषण ने पांच पन्नों की जांच रिपोर्ट 21 अगस्त 2018 को शिक्षा सचिव को सौंप दी थी। उसके बाद सरकार द्वारा इस रिपोर्ट का अवलोकन करने के बाद इसके आधार पर 16-11-2018 को शक्ति भूषण की शिकायत पर पुलिस थाना छोटा शिमला में इस बारे में एफआईआर दर्ज कर ली गयी थी। अब यह मामला राज्य सरकार ने जांच के लिये सीबीआई को सौंप दिया है। सीबीआई इस मामले की जांच में जुट गयी है उसने कई शैक्षिणिक संस्थानों में दबिश देकर काफी रिकार्ड अपने कब्जे में लेकर कुछ अधिकारियों से पूछताछ भी कर ली है। यह घोटाला 250 करोड़ का कहा जा रहा है। लेकिन यह घोटाला है क्या और परियोजना अधिकारी शक्ति भूषण की प्रारम्भिक जांच कितनी पुख्ता है इसको लेकर विभाग के अधिकारी कुछ भी कहने को तैयार नही है। आम आदमी को तो यह भी पूरी जानकारी नही है कि विभाग में कितनी छात्रवृति योजनाएं चल रही हैं और उनके लिये पात्रता मानदण्ड क्या हैं और इसका लाभ लेने के लिये उन्हे आवदेन करना कैसे है।
स्मरणीय है कि राज्य सरकार ने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और गरीब बच्चांे की शिक्षा का प्रबन्ध करने के लिये कई छात्रवृति योजनाएं लागू कर रखी हैं ऐसी करीब 34 योजनाएं स्कूलों में चलाई जा रही है। इनमें प्रमुख योजनाएं हंै मैट्रिकोत्तर छात्रवृति योजना, मेधावी छात्रवृति योजना, कल्पना चावला छात्रवृति योजना, डा. अम्बेडकर छात्रवृति योजना तथा ठाकुर सेन नेगी छात्रवृति योजना शामिल हैं। यह योजनाएं सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रांे पर एक समान लागू हैं। कुछ समय से जब सरकारी स्कूलों में बच्चों को छात्रवृतियां न मिल पाने की शिकायतें आने लगी तब विभाग इस बारे में गंभीर हुआ और इसमें जांच करवाने का फैसला लिया गया। इस जांच के लिये जो बिन्दु तय किये गये थे उनमें पहला बिन्दु था क्या छात्रवृति योजनाओं का उचित प्रकार से प्रचार-प्रसार किया गया है तथा लाभार्थियों को इन योजनाओं से भलीभांती परिचित करवाया गया? दूसरा था कि क्या जिन विद्यार्थीयों को छात्रवृति प्राप्त हुई है वह ही नियमानुसार इसके सही पात्र थे। तीसरा बिन्दु था विभिन्न स्तरों पर छात्रवृति का दैनिक अवलोकन तथा अन्य किसी भी प्रकार के छात्रवृति से संबंधित मुद्दे।
इन बिन्दुआंे पर जांच करने के लिये जांच अधिकारी ने शिक्षा निदेशक के संपर्क किया और निदेशक ने शाखा के अधीक्षक सुरेन्द्र कंवर को इस जांच में सहयोग करने के निर्देश दे दिये। इन निर्देशों के बाद जब जांच आगे चलाई गयी तो इसमें पाया गया कि विभिन्न छात्रों और उनके अभिभावकों की छात्रवृति न मिलने की शिकायतें विभाग के पास आयी हैं पर उन पर कोई सन्तोषजनक कारवाई नही हुई है। फिर विभाग के पास एक लिखित शिकायत आयी जिस पर 29-7-2018 को कारवाई करते हुए शिकायतकर्ता के घर कांगड़ा के नूरपुर के गांव देहरी जाकर संपर्क किया गया। उसके ब्यान कमलबद्ध किये गये। इस तरह जांच अधिकारी ने कांगड़ा के चार और सिरमौर के दो लोगांे की शिकायतों पर इन लोगों के ब्यान लिये।
जांचकर्ता के संज्ञान में यह भी जांच के दौरान आया कि सरकार ने आंध्रप्रदेश सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी विभाग की पंजीकृत सोसायटी से 90 लाख खर्च कर एक आनलाईन पोर्टल बनवाया लेकिन इसमें गंभीर कमीयां पायी गयी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि भारत सरकार ने भी 2018 में एक आनलाईन पोर्टल तैयार करवाया था और राज्य सरकारों को इसके माध्यम से छात्रवृति वितरण के निर्देश दिये गये थे। बाद में यह निर्देश वापिस ले लिये गये लेकिन आज भी विभाग में दोनांे पोर्टल के माध्यम से छात्रवृतियों का वितरण किया जा रहा है। लेकिन इन छात्रवृति योजनाओं का उचित प्रचार-प्रसार किया है या नही रिपोर्ट में इसका कोई जिक्र नही है। लाभार्थी ही सही में इसके पात्रा थे या नही रिपोर्ट में इसका कोई जिक्र नही है। जबकि यह दोनो बिन्दु प्रारम्भिक जांच के मुख्य बिन्दु थे। जांच रिपोर्ट में यह कहा गया है कि विभाग में छात्रों और अभिभावकों की कई शिकायतें थी। यह शिकायतें लिखित थी या मौखिक इसका रिपोर्ट में कोई उल्लेख नही है। जबकि रिपोर्ट में यह कहा गया है कि इन शिकायतों पर उचित कारवाई नही हुई है। रिपोर्ट में 90 लाख का पोर्टल तैयार करवाने और उसमें कमियां पायी जाने का तो जिक्र है लेकिन इसके लिये न तो जांच अधिकारी और न ही विभाग ने इस सबके लिये किसी को जिम्मेदार ठहराते हुए उनके खिलाफ कारवाई करने की संस्तुति की है।
यह छात्रवृति योजनाएं सरकारी और गैर सरकारी सभी स्कूलों के बच्चों पर एक समान लागू है। इस समय इन योजनाओं से 2772 सरकारी और 266 गैर सरकारी स्कूल एक बराबर लाभार्थी हैं। लेकिन यह जांच केवल करीब तीन दर्जन प्राईवेट स्कूलों को लेकर ही हो रही हैं। जबकि प्रारम्भिक जांच के मुताबिक सरकारी स्कूलों में भी इसमें गड़बड़ होने की पूरी-पूरी संभवना हैं। इसलिये आने वाले दिनों में इस जांच को लेकर यह आरोप लगना स्वभाविक है कि इसका दायरा कुछ ही प्राईवेट संस्थानों तक क्यों रखा गया हैं। जबकि 266 प्राईवेट संस्थानों को यह छात्रवृतियां मिल रही हैं। यहां पर यह सवाल भी उठाता है कि क्या सरकार ने अन्य स्कूलों को बिना जांच के ही क्लीनचिट दे दिया है। या फिर सरकार ने सभी सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों की जांच का जिम्मा सीबीआई के सिर डाल दिया है। बहरहाल अभी से इस घोटाले और इसकी जांच में राजनीति होने के आरोप आने शुरू हो गये हैं।
छात्रवृति घोटाले में दर्ज एफ आई आर
शिमला/शैल। अन्तिम चरण का मतदान छः बजे तक चला और एग्जिट पोल के आंकड़े साढ़े छः आने शुरू हो गये। एक घन्टे से भी कम समय में मतदातओं से संपर्क भी हो गया। उन्होने यह भी बता दिया कि वह किसके पक्ष में वोट डालकर आये हैं। हिमाचल की चारों सीटों पर अन्तिम चरण में मतदान हुआ है लेकिन एग्जिट पोल हिमाचल का भी संभावित परिणाम आ गया। जो लोग हिमाचल की भौगोलिक स्थिति को जानते हैं वह व्यवहारिक रूप में यह मानेगे कि यदि यह सर्वेक्षण प्रदेश के चार शहरों शिमला, हमीरपुर, मण्डी और धर्मशाला में ही किया गया हो और पांच-पांच सौ लोगों से भी जानकारी ली गयी हो तो भी उस जानकारी को कम्पाईल करके और फिर पूरे प्रदेश पर उसका आकलन किसी परिणाम पर पंहुचने के लिये कम से कम एक दिन का समय लगता तथा इस काम के लिये सौ से अधिक लोगों को लगाया जाता और इसकी जानकारी तुरन्त खुफिया तन्त्र तक पंहुच जाती। लेकिन ऐसी कोई जानकारी प्रदेश भर से कहीं से भी नही आयी है। इसलिये यह व्यवहारिक रूप में ही संभव नही है कि मतदान के बाद एक घन्टे के भीतर यह सब कुछ हो पाता। ऐसा तभी संभव हो सकता है कि किसी ने मतदान से बहुत पहले ही यह सब कर रखा हो और इसकी जानकारी एग्जिट पोल ऐजैन्सीयों तक पहुंचा दी हो।
एग्जिट पोल चुनाव आयोग द्वारा 2013-14 से ही प्रतिबन्धित हो चुके हैं क्योंकि इन सर्वेक्षणों से मतदाता की गोपनीयता भंग होती थी। मतदाता ने किसे वोट दिया है इस जानकारी को गोपनीय रखना उसका अधिकार है। जबकि एग्जिट पोल का अर्थ है कि जैसे ही मतदाता वोट डालकर मतदान केन्द्र से बाहर निकला तभी कुछ ही क्षणों में उससे संपर्क करके यह जानकारी हासिल कर ली जाये। लेकिन किसी भी मतदान के आसपास से इस तरह की जानकारी जुटाये जाने की जानकारी नही आयी है। इसलिये किसी भी गणित में ऐसा एग्जिट पोल हो पाना संभव नही है और जब यह संभव ही नही है तो फिर इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वभाविक है।
इन एग्जिटपोल के नतीजे कितने प्रमाणिक हो सकते हैं इस पर इससे भी प्रश्नचिन्ह लग जाता है कि आठ अलग-अलग एग्जिट पोल समाने आये हैं और इनके अपने ही परिणामों में सौ से अधिक सीटों का अन्तराल हैं एक पोल में भाजपा को 365 सीटें दी गयी है और दूसरे में 242 सीटें दी गयी हैं। हर पोल की अधिकतम और कम से कम सीटों में 30 से 50 तक अन्तर है। हिमाचल की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि यहां पर कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों के भीतर उच्च स्तर पर भारी भीतरघात हुआ है। इस भीतरघात के कारण यहां के परिणाम एकदम अप्रत्याशित होंगे। यह तय है कि परिणाम आने के बाद दोनों दलों में इस भीतरघात के आरोप शीर्ष नेतृत्व तक खुलकर लगेंगे। प्रदेश की चारों सीटों पर कड़ा मुकाबला हुआ है। यह चनुाव एक तरह से मोदी को लेकर जनमत संग्रह बन गया था। मतदान ने मोदी के पक्ष या उसके विरोध में वोट दिया है भाजपा ने यह धारणा पूरे देश में फैला दी थी। एग्जिट पोल भी उसी धारणा को पुखता कर रहे हैं। लेकिन चुनावी आंकड़े हिमाचल के संद्धर्भ में इस धारणा को पुख्ता नही करते क्योंकि 2014 के मुकाबले 2017 में विधानसभा चुनावों में मत प्रतिशत बढ़ा लेकिन 2019 के चुनावों में 60 विधानसभा हल्कों में यह प्रतिशत घट गया है। जबकि केवल आठ में यह बढ़ा है जबकि कुल मिलाकर मतदान इस बार 7% बढ़ा है यह ठीक है कि यदि विधानसभा और लोकसभा में यह अन्तर रहता ही है। लेकिन जब 7% मतदान का आंकड़ा बढ़ा है तो यह दिखायी भी देना चाहिये था और इस नाते यह आंकड़ा विधानसभा के आसपास रहना चाहिये था। लेकिन अधिकांश क्षेत्रों में यह 2014 की बराबरी पर पंहुच गया है इससे यही लगता है कि मोदी के पक्ष में जिस लहर का दावा किया जा रहा था वह वास्तव में है ही नही और इससे मोदी की सत्ता में वासपी कठिन लगती है।
शिमला/शैल। हिमाचल का चुनाव अन्तिम चरण में है। 2014 में भाजपा ने प्रदेश की चारों सीटों पर जीत हासिल की थी। इस बार भी इस जीत को बरकरार रखने की चुनौती है। इस चुनौती को पूरा करने के लिये प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमितशाह ने भी हिमाचल को समय दिया है। मोदी मण्डी और सोलन में रैलियां कर गये हैं। अमितशाह की रैलियां चम्बा बिलासपुर और सिरमौर में हुई हैं। अमितशाह ने अपनी रैलियों में आकड़े रखते हुए दावा किया है कि मोदी सरकार ने हिमाचल को 2,09,031 करोड़ दिये हैं। जबकि कांग्रेस ने 44235 करोड़, दिये थे। इसके अतिरिक्त एम्ज़, आई.आई.एम. और पर्यटन के लिये 2000 करोड़, बागवानी के लिये 1800, सड़क विस्तार के लिये 770, कृषि विकास के लिये 709 और रेलवे के लिये 15000 करोड़ दिये हैं। यदि इन सारे आंकड़ो को जोड़ा जाये तो यह राशी 20,009 करोड़ बनती है। शाह की रैलीयों के बाद भाजपा द्वारा प्रैस नोट में भी इन आंकड़ो का वाकायदा जिक्र है। यह आंकड़े आने के बाद यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब मोदी सरकार ने हिमाचल को अब तक 2,30,000 करोड़ दे दिया है तो फिर जयराम सरकार कर्ज क्यों ले रही है। क्योंकि अभी नये वित्त वर्ष के पहले ही महीने में प्रदेश सरकार ने 1100 करोड़ का कर्ज लिया है। यदि शाह द्वारा अपनी रैलीयों में परोसे गये आंकड़े सही हैं तब तो यह सवाल उठता है कि क्या जयराम सरकार कर्ज लेकर कोई बड़ा घोटाला कर रही है। क्योंकि शाह ने साफ कहा कि मोदी सरकार ने प्रदेश सरकार को यह पैसा दिया है जब केन्द्र सरकार ने यह पैसा दिया है तो निश्चित रूप से सरकार के खजाने में यह पैसा आया है और जब यह पैसा आया है तो जयराम सरकार को हिसाब भी प्रदेश की जनता के सामने रखना होगा।
जयराम सरकार कर्ज के सहारे चल रही है यह सार्वजनिक हो चुका है। प्रदेश का वित्त विभाग शाह द्वारा परोसे गये आंकड़ो की पुष्टि नही कर रहा है और यह पुष्टि न करने का अर्थ है कि यह आंकड़े पूरी तरह गलत हैं और केवल चुनावी लाभ लेने के लिये परोसे गये हैं ताकि प्रदेश की जनता इन पर विश्वास कर ले। क्योंकि मीडिया तो इन आंकड़ो की प्रमाणिकता की छानबीन करेगा नही और उसके ऐसा न करने के अपने कारण हैं। इन वित्तिय आंकड़ो की तरह ही प्रदेश को मिले 69 राष्ट्रीय राजमार्गो की स्थिति यह आंकड़े भी प्रदेश की जनता को लम्बे अरसे से परोसे जा रहे हैं। बल्कि राजमार्गो का खुलासा तो केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्रा जगत प्रकाश नड्डा और नितिन गडकरी के बीच हुए पत्राचार के माध्यम से किया गया था। बल्कि जयराम के मन्त्री सैजल ने तो एक ब्यान में यहां तक कह दिया है कि इन राजमार्गों की डीपीआर अब तैयार करवाकर गडकरी से शिलान्यास भी करवा दिया है। जबकि प्रदेश उच्च न्यायालय में इन राजमार्गो को लेकर आयी एक याचिका पर जवाब दायर करके केन्द्र सरकार ने स्पष्ट मान लिया है कि यह राष्ट्रीय राजमार्ग अभी तक सैद्धान्तिक स्वीकृति के स्तर पर ही हैं।
इन आंकड़ो से स्पष्ट हो जाता है कि चुनावी लाभ लेने के लिये नेता जनता में कुछ भी बोल देते हैं। लेकिन क्या जनता भी मन्त्रीयों/नेताओं के परोसे आंकड़ो पर वैसे ही विश्वास कर लेती है जैसे यह बोलकर जाते हैं। शायद जनता विश्वास नही करती है और इसलिये हर भीड़ वोटर में तबदील नही होती है। आज की जनता नेता के ब्यानों की असलियत जमीन पर परखती है आज की जनता को पाकिस्तान और मुस्लिम का डर दिखाकर जयादा देर तक गुमराह नही किया जा सकता है। इसलिये यह माना जा रहा है कि जिस तरह हिमाचल की जनता ने 2014 में मोदी-भाजपा पर विश्वास करके चारों सीटें भाजपा को दे दी थी वैसा शायद इस बार नही हो पायेगा क्योंकि आज मोदी और शाह की विश्वनीयता पर ही सबसे अधिक प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं बल्कि शाह के परोसे आंकड़ो से जयराम और उनकी सरकार की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं क्योंकि इन आंकड़ो को यदि सरकार सही ठहराती है तो उसे जनता को यह बताना पड़ेगा कि वह कर्ज क्यों ले रही है।