शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने अपना पहला बजट भाषण सदन में पढ़ते हुए यह खुलासा सामने रखा कि वीरभद्र के इस शासनकाल में 18787 करोड़ का अतिरिक्त कर्ज लिया गया जो कि किसी भी पूर्व सरकार के शासनकालों से अधिकत्तम है। जयराम ने यह भी आरोप लगाया कि प्रदेश वित्तिय प्रबन्धन बुरी तरह कुप्रबन्धन में बदल चुका है। मुख्यमन्त्री ने सदन मे आंकड़े रखते हुए कहा कि 2007 में भाजपा सरकार ने जब सत्ता संभाली थी तब प्रदेश का कर्ज 19977 करोड़ था। जो कि 31 दिसम्बर 2012 को पद छोड़ते समय 27598 करोड़ था। परन्तु अब 18 दिसम्बर 2017 को यह कर्ज बढ़कर 46385 करोड़ हो गया है। वीरभद्र सरकार ने 2013 से 2017 के बीच 18787 करोड़ का अतिरिक्त ऋण लिया है। जयराम ने कर्ज की जो तस्वीर सदन में रखी है वह निश्चित तौर पर एक चिन्ता जनक स्थिति है और यह सोचने पर विवश करती है कि कर्ज लेकर विकास कब तक किया जाये और क्या सरकारें सही में विकास कर रही हैं या छोटे-छोटे वर्ग बनाकर तुष्टिकरण की नीति पर चल रही है। क्योंकि तुष्टिकरण और विकास में दिन और रात जैसा अन्तर होता है।
जयराम को जिस तरह की वित्तिय विरासत मिली है उसको सामने रखकर यह स्वभाविक सवाल उठता है कि क्या जयराम इस स्थिति से अपने बजट से बाहर निकल पाये हैं या नही। इसके लिये बजट को समझना होगा। इस सरकार ने 41440 करोड़ के कुल खर्च का बजट पेश किया है। इसमें 11263 करोड़ वेतन, 5893 करोड़ पैशन, 4260 करोड़ ब्याज, 3184 करोड़ ऋणों की वापसी पर, 448 करोड़ अन्य ट्टणों पर और 2741 करोड़ रख -रखाव पर खर्च होंगे। इस तरह 41440 करोड़ में से 27789 करोड़ इन अनुत्पादक मुद्दों पर खर्च होंगे जोकि हर हालत में खर्च करने ही पडेंगे। इसलिये इन खर्चों को राजस्व व्यय कहा जाता है तथा यह नाॅन प्लान में आता है। नाॅन प्लान का खर्च सरकार को अपने ही साधनों से करना पड़ता है। इसके लिये केन्द्र से कोई सहायता नही मिलती है। इस खर्च का विकास कार्यो के साथ कोई संबध नही होता है। इन खर्चों के बाद सरकार के पास विकास कार्यों के लिये 41440 में से केवल 13651 करोड़ बचता है।
इसी परिदृश्य में यह सवाल उठता है कि 41440 करोड़ का खर्च करने के लिये सरकार के पास आय कितनी है। सरकार जहां राजस्व पर खर्च करती है वहीं राजस्व से आय भी होती है। राजस्व आय में टैक्स और नाॅन टैक्स से आय केन्द्रिय करों से आय, केन्द्रिय प्रायोजित स्कीमों के तहत अनुदान से आय शामिल होती है। सरकार की यह कुल राजस्व आय 30400.21 करोड़ है। इसके अतिरिक्त पूंजीगत प्राप्तियां आती हैं और इन पूंजीगत प्राप्तियोें में सकल ऋण और दिये गये ऋणो की वसूलीयां शामिल होती हैं इसमें सरकार 7730.20 करोड़ के ऋण लेगी और 34.55 करोड़ दिये गये ऋणों की वापसी के रूप में प्राप्त होंगे। इस तरह सरकार की कुल पूंजीगत प्राप्तियां 7764.75 करोड़ होगी। राजस्व प्राप्तियां और पूंजीगत प्राप्तियों को मिलाकर सरकार के पास 38164 करोड़ आयेंगे। इस तरह 41440 करोड़ के कुल प्रस्तावित खर्च से कुल प्राप्तियों को निकाल देने के बाद 3276 करोड़ का ऐसा खर्च रह जाता है जिसे पूरा करने के लिये कर्ज लेना पडेगा। गौरतलब है कि पूंजीगत प्राप्तियों में किये गये 7730 करोड़ के ऋण के प्रावधान से यह 3276 करोड़ का ऋण अतिरिक्त ऋण होगा। मूलतः सरकार का कुल खर्च 41440 करोड़ है और आय केवल 30400 करोड़ है। इस तरह करीब 11000 करोड़ सरकार को ऋण से जुटाने होंगे। जिस ऋण का पूंजीगत प्राप्तियों में जिक्र कर दिया जाता है वह तो राज्य की समेकित निधि का हिस्सा बन जाता है लेकिन ऋण पूंजीगत प्राप्तियों से बाहर लिया जाता है। उसे अतिरिक्त ऋण कहा जाता है। इस तरह किये गये खर्च का नियमितीकरण काफी समय बाद हो पाता है और कैग रिपोर्ट में इस खर्च को समेकित निधि से बाहर किया गया खर्च करार देकर इसे संविधान की धारा 205 की उल्लघंना माना जाता है पिछले कई वर्षों से सरकारें संविधान की इस धारा का उल्लंघन करके खर्च करती आ रही है। कैग रिपोर्ट मे हर वर्ष इसका विशेष उल्लेख रहता है।
सरकार 41440 करोड़ कहां खर्च करेगी इसका पूरा उल्लेख बजट दस्तावेज में है। इस दस्तावेज को देखने से पता चलता है कि 2018-19 में निर्माण कार्यों पर केवल 9.22% ही खर्च कर पायेगी।
शिमला/शैल। प्रदेश से राज्यसभा सांसद और केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा का कार्यकाल अप्रैल में समाप्त हो रहा है। इस तरह खाली हो रही इस सीट के लिये 23 मार्च को चुनाव होने जा रहा है। इस चुनाव की प्रक्रिया संबंधी कार्यक्रम भी अधिसूचित हो चुका है। प्रदेश में भाजपा की सरकार है इस नाते भाजपा का ही उम्मीदवार चुनकर जायेगा यह भी तय है। लेकिन इसके लिये भाजपा का उम्मीदवार कौन होगा? नड्डा ही फिर उम्मीदवार होंगे। इसको लेकर अभी तक संगठन की ओर से कोई अधिकारिक सूचना जारी नही हुई है। नड्डा प्रधानमन्त्री के विश्वस्तों में गिने जाते हैं। इस नाते उनका ही फिर से चुना जाना संभावित माना जा रहा है।
लेकिन पार्टी के भीतरी सूत्रों के मुताबिक इस फैसले को लेकर अभी कई पेंच फंसे हुए हैं। क्योंकि पार्टी ने एक समय जब यह निर्णय लिया था कि 75 वर्ष की आयु पूरा कर चुके नेताओ को चुनावी राजनीति और मन्त्री या मुख्यमन्त्री जैसे पदों की जिम्मेदारीयां नही दी जायेंगी, उसी के साथ यह भी फैसला लिया गया था कि राज्यसभा और लोकसभा के लिये एक व्यक्ति को दो से ज्यादा टर्म नही दिये जायेंगे। इस गणित में नड्डा और अनुराग ठाकुर दोनों ही आते है। नड्डा की यह दूसरी टर्म पूरी हो रही है। इसके अतिरिक्त अभी जब जयराम प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने थे तो उस समय यह खुलकर सामने आ गया था कि चुने हुए विधायकों का बहुमत धूमल के साथ था। भले ही वह स्वयं हार गये थे लेकिन चुनावों में पार्टी ने उन्ही का चेहरा आगे किया था और पार्टी की इस जीत मे उनका बड़ा योगदान रहा है यह सब मानते हैं। दो लोगों ने तो उनके लिये अपनी सीटें खाली करने तक की पेशकश भी कर दी थी। मुख्यमन्त्री के चयन के समय में यह पूरी चर्चा में रहा है कि धूमल को रेस से हटाने के लिये उन्हे राज्यसभा में भेजने का आश्वासन दिया गया था। अब उस आश्वासन का कितना मान रखा जाता है इसे परखने का समय आ गया है।
इसी के साथ कांगड़ा क लोकसभा सांसद और पूर्व मुख्यमन्त्री शान्ता कुमार भी केन्द्र और प्रदेश की सरकारांेे को लेकर तल्ख टिप्पणी करने लग गये हैं। पंजाब नैशनल बैंक स्कैम के सामने आने पर यह शान्ता ने ही टिप्पणी की थी कि अब तो अपने भी लूटने वालों में शामिल हो गये हैं। इसके बाद शान्ता ने जयराम सरकार द्वारा दो माह में ही दो हज़ार करोड़ का कर्ज लेने पर भी करारी टिप्पणी की है। शान्ता कुमार ने यह चिन्ता व्यक्त की थी कि इस कर्जे से कैसे निजात पायी जायेगी। शान्ता कुमार की इन टिप्पणीयों का केन्द्रिय नेतृत्व पर कितना और क्या असर हुआ है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अभी जब जयराम पालमपुर गये थे तो उन्होने शान्ता से अकेले में बन्द कमरे में लम्बी बैठक की है। हालांकि शान्ता कुमार अगला चुनाव नही लड़ने की घोषणा कर चुके हैं लेकिन भाजपा और प्रदेश की राजनीति की समझ रखने वाले जानते है कि अभी धूमल और शान्ता को नज़र अन्दाज करने का जोखिम पार्टी नही उठा सकती है। इस परिदृश्य में यह माना जा रहा है कि यदि अभी नड्डा के लिये दो टर्म वाला फैसला लागू नही किया जाता है तो उसी गणित में अनुराग के लिये भी यह फैसला लागू नही होगा। जबकि कुछ हल्कों में तो यह चर्चा चली हुई है कि धूमल विरोधी धूमल परिवार को प्रदेश की राजनीति से बाहर करने के लिये दो टर्म के फैसले के तहत अनुराग को टिकट से वंचित करने की रणनीति बनाने में लगे हुए हैं। माना जा रहा है कि यह सारे तथ्य हाईकमान के संज्ञान में हैं। इस परिदृश्य में राज्य सभा उम्मीदवार का फैसला लेने से पहले हाईकमान इन पक्षों पर भी गंभीरता से विचार करेगा क्योंकि उसे प्रदेश की चारों लोकसभा सीटों पर जीत 2019 में भी चाहिये।
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने अब वीरभद्र शासन के दौरान प्रदेश के परवाणु और नादौन स्थित गोल्ड रिफाइन्रीज़ को दी गयी करीब ग्यारह करोड़ रूपये की राहत के मामले की जांच करवाने की बात की है। उससे पहले बीवरेज कारपोरेशन के मामले की जांच करवाने के आदेश मन्त्रीमण्डल की धर्मशाला में हुई पहली बैठक में दिये गये थे। जयराम सरकार ने यह भी दोहराया है कि भ्रष्टाचार के प्रति उसकी जीरो टालरैन्स की ही नीति रहेगी। जयराम को सत्ता संभाले दो माह हो गये हैं और बीवरेज़ कारपोरेशन प्रकरण की जांच के आदेश का उसका पहला फैसला था लेकिन अभी तक इस जांच को लेकर बात कोई ज्यादा आगे नही बढ़ी है। इस जांच को समयवद्ध भी तो किया नही गया है। इसलिये इस जांच में पूरा कार्याकाल भी लग जाये तो कोई हैरत नही होगी। गोल्ड रिफाईनरी प्रकरण की जांच की भी कोई समय सीमा तय नही की गयी है। भाजपा ने बतौर विपक्ष वीरभद्र के पिछले पांच वर्ष के कार्याकाल में दिये गये आरोप पत्रों को भी अभी तक विजिलैन्स को नही सौपा है। जयराम सरकार के अगर अब तक के फैंसलों को भ्रष्टाचार की खिलाफत आईने में देखा जाये तो लगता नही हैं कि यह सरकार भी धूमल और वीरभद्र सरकारों से बेहतर इस संद्धर्भ में कुछ कर पायेगी। क्योंकि जिन दो मामलों में मन्त्रीमण्डल की बैठकों में जांच के फैसले लिये गये हैं उन दोनों मामलों को लेकर वीरभद्र सरकार ने भी मन्त्राीपरिषद् की बैठक मे ही फैसले लिये थे। दोनो मामलों में करोड़ो का वित्तिय हानि/लाभ जुड़ा रहा है। सरकार के काम काज़ की प्रक्रिया की जानकारी रखनेवाले जानते हैं कि जिस भी मामले में वित्त जुड़ा हो उस पर फैसला लेने से पहले वित्त विभाग की राय अवश्य ली जाती है। यदि समय के अभाव के कारण पहले वित्त विभाग को फाईल न भेजी जा सकी हो तो मन्त्रीपरिषद् की बैठक में ही वित्त विभाग की राय दर्ज की जाती है स्वभाविक है कि इन मामलो में भी वित्त विभाग की राय अवश्य ली गयी होगी। वीरभद्र शासन के दौरान जो वित्त सचिव थे वही आज भी है। इसलिये आज यह उम्मीद किया जाना स्वभावतः ही व्यवहारिक नहीं लगता कि वित्त विभाग इन फैसलों को अब गलत करार दे दे।
दरअसल हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कारवाई कर पाना किसी भी सरकार के वर्ष में होता ही नही हैं बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि किसी की भी नीयत ही नही होती है। केवल भ्रष्टाचार की खिलाफत का ज्यादा से ज्यादा प्रचार करना ही नीयत और नीति रहती है। स्मरणीय है कि वीरभद्र सरकार में 31 अक्तूबर 1997 को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक रिवार्ड स्कीम अधिसूचित की गयी थी इसमें भ्रष्टाचार की शिकायतों पर एक माह के भीतर प्रारम्भिक जांच किये जाने का प्रावधान किया गया था। शिकायत गलत पाये जाने पर शिकायतकर्ता के खिलाफ कारवाई का भी प्रावधान किया गया है। यह स्कीम सरकार में आज भी कायम है क्योंकि इसे वापिस नही लिया गया है। लेकिन स्कीम अधिसूचित होने के बाद आजतक इसके तहत वांच्छित नियम तक नही बनाये गये है। इसमें कोई वित्तिय प्रावधान नही किया गया है। विजिलैन्स को इसकी आजतक अधिकारिक रूप से कोई जानकरी ही नही है। इस स्कीम के तहत आज भी विजिलैन्स के पास कई गंभीर शिकायतें वर्षों से लंबित पड़ी हैं जिनपर कारवाई का साहस नही हो रहा है। इसी स्कीम के तहत आयी एक शिकायत जब उच्च न्यायालय तक पंहुच गयी थी तब वीरभद्र सिंह की 98 बीघे ज़मीन सरप्लस घोषित होकर सरकार में वेस्ट होने के आदेश हुए थे जिन पर आज तक अमल नहीं हो पाया है।
1998 में जब धूमल ने सरकार संभाली थी तब 1993 से 1998 के बीच हुई चिट्टों पर भर्ती के प्रकरण में हर्ष गुप्ता और अवय शुक्ला के अधीन दो जांच कमेटीयां गठित की गयी थी। इन कमेटीयों की रिपोर्ट में हजारों मामलें चिट्टो पर भर्ती के सामने आये थे लेकिन अन्त में धूमल सरकार ने कुछ नही किया। इसके बाद जब यह मामला शैल में कमेटीयो की रिपोर्ट छप जाने के बाद उच्च न्यायालय पहंचा तब अदालत ने कड़ी टिप्पणी करते हुए इसमें एफआईआर दर्ज किये जाने के आदेश किये। यह पूरा मामला सरकारी तन्त्र की कारगुज़ारी का एक ऐसा दस्तावेज है जिसे देखने के बाद प्रशासनिक तन्त्र और राजनीतिक नेतृत्व को लेकर धारणा ही बदल जाती है क्योंकि इस मामले की जांच के बाद जिस तरह से विजिलैन्स ने दो तीन सेवानिवृत अधिकारियों के खिलाफ चालान दायर करके सारे मामले को खत्म किया है उसे देखकर तो जांच ऐजैन्सी पर से ही विश्वास उठ जाता है बल्कि ऐसी एैजैन्सियों को तो तुरन्त प्रभाव से भंग ही कर दिया जाना चाहिये।
इसी तरह जब प्रदेश के हाईडल प्रौजैक्टस को लेकर उच्चन्यायालय के निर्देशों पर अवय शुक्ला कमेटी ने 60 पन्नो से अधिक की रिपोर्ट सौंपी और उसमें आॅंखें खोलने वाले तथ्य सामने रखे तो उसके बाद आजतक इस रिपोर्ट पर सरकार और अदालत में क्या कारवाई हुई यह कोई नही जानता। जेपी के थर्मल प्लांट प्रकरण में भी अदालत के निर्देश पर केसी सडयाल की अध्यक्षता में एक एसआईटी गठित हुई थी इसकी रिपोर्ट भी अदालत को चली गयी थी लेकिन उसके बाद क्या हुआ यह भी कोई नही जानता। यही नहीं जब शिमला और कुछ अन्य शहरों में पीलिया फैला था तब उसकी जांच के लिये अदालत के निर्देशों पर एफआईआर हुई थी। चालान अदालत में गया लेकिन सरकार ने संवद्ध अधिकारियों के खिलाफ मुकद्यमा चलाने की अनुमति नही दी। क्या यह सब अपने में ही भ्रष्टाचार नही बन जाता है। आज अवैध निर्माणों और अवैध कब्जों के मामले में एनजीटी ने कसौली के मामले में कुछ अधिकारियों को नामतः दोषी चिन्हित करके मुख्य सचिव को कारवाई के निर्देश दिये हुए हैं। लेकिन आज तक कारवाई नही हुई है। क्या जयराम यह कारवाई करवा पायेंगे?
वीरभद्र सरकार ने अपने पूरे कार्याकाल में एचपीसीए और धूमल के संपत्ति मामलों पर ही विजिलैन्स को व्यस्त रखा लेकिन पूरे पांच साल में यह ही तय नही हो पाया है कि क्या एचपीसीए सोसायटी है या कंपनी। वीरभद्र के निकटस्थ रहे अधिकारी सुभाष आहलूवालिया और टीजी नेगी एचपीसीए में खाना बारह में दोषी नामज़द है और इसी कारण से वीरभद्र सरकार इन मामलों में सार्वजनिक दावों से आगे नही बढ़ पायी। धूमल ने अपने संपत्ति मामले में जब यह चुनौती दी कि इस समय प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे शान्ता कुमार, वीरभद्र और धूमल तीनों ही मौजूद हैं इसलिये तीनो की संपत्ति की जांच सीबीआई से करवा ली जाये। तब धूमल की इस चुनौती के बाद वीरभद्र इसमें आगे कुछ नही कर पाये। भ्रष्टाचार का कड़वा सच लिखने वाले शान्ता कुमार के विवेकानन्द ट्रस्ट के पास फालतू पड़ी सरकारी ज़मीन को वापिस लिये जाने के लिये आयी एक याचिका पर सरकार अपना स्टैण्ड स्पष्ट नही कर पायी है। सरकार से जुड़े ऐसे दर्जनों प्रकरण है जहां पर सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर स्वभाविक रूप से सन्देह उठते हैं और यह सन्देश उभरता है कि सरकार को भ्रष्टाचार केवल मंच पर भाषण देने के लिये और लोगों का ध्यान बांटने के लिये ही चाहिये। आज इसी भ्रष्टाचार के कारण प्रदेश कर्ज के गर्त में डूबता जा रहा है। इसलिये या तो सरकार भ्रष्टाचार के मामलों की जांच को समयबद्ध करे या फिर जांच का ढोंग छोड़ दे।
कण्डा जेल से सीबीआई कोर्ट को भेजा पत्र
शिमला/शैल। पिछले दिनों जब डीजीपी एस आर मरढ़ी कैंथु जेल में बन्द शिमला के पूर्व एसपी डी डब्लू नेगी को मिले थे। तब इस मुलाकात को लेकर एक अलग ही चर्चाओं का दौर चल पड़ा था। इस पर उठी चर्चाओं के कारण ही डीजीपी जेल सोमेश गोयल ने अधीक्षक से इस बारे में स्पष्टीकरण मांग लिया था। सूत्रों के मुताबिक जेल अधीक्षक ने अपने स्पष्टीकरण में कहा है कि वह डीजीपी के आदेश की अवहेलना नही कर सकते थे। इसमें यह भी कहा गया है कि यह मुलाकात जेल में नही बल्कि उनके कार्यालय में अन्य लोगों के सामने हुई थी और इसमें गुप्त कुछ भी नही रहा है। इस मुलाकात पर प्रतिक्रिया देते हुए मरढ़ी ने भी कहा है कि उनका नेगी से मिलना नियमों के विरूद्ध नही था। नेगी का स्वास्थ्य ठीक नही चल रहा था और उनसे यह मुलाकात एक शिष्टाचारा भंेट थी क्योंकि वह पूर्व परिचित थे। जेल अधीक्षक को जवाब और मरढ़ी की प्रतिक्रिया के बाद डीजीपी जेल की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नही आयी है।
इस मुलाकात के बाद गुड़िया प्रकरण में जेल में बन्द जैदी समेत सभी पुलिस कर्मियों के खिलाफ सरकार ने मुकद्दमा चलाने की अनुमति प्रदान कर दी है। परन्तु अभी तक डीडब्लू नेगी के खिलाफ चालान पेश नही हुआ है और उनके खिलाफ अभी तक अनुमति की नौबत नही आई है। लेकिन इस मुलाकात और मुकद्दमें की अनुमति दिये जाने के बाद इस प्रकरण में बन्द एक पुलिस कर्मी का सीबीआई कोर्ट को लिखा एक कथित पत्र वायरल हो गया है। वायरल हुए इस पत्र में सीबीआई जांच पर ही गंभीर सवाल उठा दिये गये हैं। आरोप लगाया गया है कि सीबीआई ने जानबूझकर असली गुनाहगारों को बचाया है तथा निर्देाशों को फंसाया है। पत्र लिखने वाले ने दावा किया है कि उसने सीबीआई को सारी सच्चाई बता दी थी लेकिन इसे जानबूझक नज़रअन्दाज करके उसे फंसाया जा रहा है। उसने गुड़िया मामले की जांच सीबीआई की बजाये सीआईडी या एनआईए से करवाये जाने की मांग की है। यह पत्र कण्डा जेल में बन्द एक कैदी द्वारा लिखा गया है। कण्डा जेल के अधिकारियों ने ऐसा पत्र लिखे जाने की पुष्टि करते हुए यह भी बताया कि उन्होने यह पत्र संवद्ध अधिकारियों को भेज दिया था। स्मरणीय है कि इस प्रकरण में जो पुलिस अधिकारी/कर्मी जेल में बन्द हैं उनके खिलाफ गुड़िया प्रकरण में पकडे़ गये एक कथित अभियुक्त की पुलिस कस्टड़ी में हुई मौत का मामला चल रहा है। गुड़िया की हत्या और गैंगरेप के लिये पुलिस ने जितने लोगों को पकड़ा था उन्हे इस मामले की जांच सीबीआई के पास जाने के बाद अन्ततः अदालत ने छोड़ दिया है क्योंकि उनके खिलाफ कोई चालान दायर नहीं हो पाया था। इन्ही पकड़े गये दोषीयों में से एक की पुलिस कस्टडी में हत्या हो गयी थी। इस हत्या के दोष में पुलिस अधिकारी /कर्मी कण्डा और कैंथु जेल में है। पुलिस कस्टडी में हुई हत्या के लिये कौन सही में जिम्मेदार है इसे सीबीआई भी अपनी जांच में चिन्हित नही कर पायी हैं। अभी तक सभी को सामूहिक रूप से ही जिम्मेदार ठहराया गया है और कानून की दृष्टि से यही इस जांच का सबसे कमजा़ेर पक्ष है। अब जब पुलिस कस्टडी मे हुई हत्या की जांच पर ही एक कथित अभियुक्त ने सीबीआई की निष्पक्षता पर सवाल उठा दिये हैं तो इससे यह मामला और उलझ जाता है। पुलिस कस्टडी में हुई हत्या के लिये जिम्मेदार पुलिस कर्मियों के खिलाफ अदालत में चालान दायर हो चुका है। चालान के मुताबिक कस्टडी में हुई हत्या का मकसद कथित दोषीयों से अपराध स्वीकार करवाना ही रहा है लेकिन चालान मे यह स्पष्ट नही किया गया है कि इन लोगों से गुड़िया की हत्या और रेप की स्वीकारोक्ति करवाने से किसे बचाने का प्रयास किया जा रहा था। इस रहस्य पर से सीबीआई भी पर्दा नही उठा पायी है। अब सीबीआई पर ही पक्षपात का आरोप लगने से यह मामला और पेचीदा हो गया है।
अब इस पूरे प्रकरण पर संयोगवश एक और उलझन तथा चर्चा चल पड़ी है कि अब हाईकोर्ट के खुलने के बाद सीबाआई को गुड़िया मामले में पुनः स्टेट्स रिपोर्ट अदालत में रखनी है। गुड़िया मामले में छः तारीख को एफआईआर दर्ज हुई थी और दस तारीख को ही उच्च न्यायालय ने इसे अपने संज्ञान में ले लिया था। संभवतः यह पहला मामला है जिसका अदालत ने इतना शीघ्र संज्ञान ले लिया था। लेकिन उच्च न्यायालय द्वारा इस मामले पर लगातार नजर रखने के बावजूद अभी तक कोई परिणाम नही निकला है। अब मरढ़ी के नेगी को मिलने के बाद अभियुक्तों के खिलाफ मुकद्दमें की अनुमति दिये जाने और कण्डा जेल से इसी मामले में बन्द एक कथित अभियुक्त द्वारा पत्र लिखकर सीबीआई की जांच पर ही सवाल उठाना सब एक साथ घटने से इस मामले के और उलझने के संकेत मान जा रहें हैं क्योंकि जब कस्टडी में हुई हत्या की जांच पर ही सवाल खड़ा हो जायेगा तो गुड़िया का मूल मामला तो और पीछे चला जायेगा।
शिमला/शैल। वीरभद्र सरकार के दौरान जब 1983 बैच के आईएएस अधिकारी वीसी फारखा को उनके वरिष्ठ अधिकारियों को नज़रअन्दाज करके प्रदेश का मुख्य सचिव बनाया गया था तो इनसे वरिष्ठ प्रदेश में कार्यरत विनित चौधरी और उपमा चौधरी प्रोटैस्ट लीव पर चले गये थे और इस नज़र अन्दाजगी के खिलाफ एक प्रतिवेदन भी सरकार को दिया था लेकिन इस प्रतिवेदन पर जब सुनवाई नही हुई तब अन्ततः विनित चौधरी ने कैट में इसको लेकर एक याचिका डाल दी। विनित चौधरी को न केवल नज़रअन्दाज ही किया गया था बल्कि उन्हे फारखा का अधिनस्थ बना दिया गया था। इस विसंगति का संज्ञान लेते हुए कैट ने अन्तरिम राहत देते हुए विनित चौधरी को फारखा के समकक्ष बनाये जाने और समानान्तर पोस्टिंग देने के आदेश कर दिये थे लेकिन शेष मामला विचारधीन ही चलता रहा।
अब जब चुनावों के बाद सरकार बदल गयी तब जयराम सरकार ने प्रशासन के शीर्ष पर हुई इस नज़रअन्दाजगी को दूर करते हुए विनित चौधरी को फारखा की जगह प्रदेश का मुख्य सचिव नियुक्त कर दिया। लेकिन मुख्य सचिव बन जाने के बाद भी कैट में यह मामला चलता रहा और अब इस पर फैसला आया है। हालांकि विनित चौधरी की नज़रअन्दाजगी का मामला उनके मुख्य सचिव बन जाने से स्वतः ही समाप्त हो गया था और इसी आधार पर चौधरी ने कैट से मामला वापिस भी ले लिया। लेकिन इसमें नज़रअन्दाजगी के अतिरिक्त यह भी आरोप था कि मुख्य सचिव का चयन करने के लिये कार्मिक विभाग द्वारा जोे सोलह अधिकारियों की सूची मुख्यमन्त्री के सामने रखी गयी थी वह सूची ही नियमो के मुताबिक अनाधिकृत थी। क्योंकि इस का दायरा शीर्ष चार अधिकारियों तक ही रखा जाना चाहिये था क्योंकि चार अधिकारी ही नियमानुसार अतिरिक्त मुख्य सचिव हो सकते थे और जब फारखा को एसीएस बनाया गया था तब काडर में यह पद उपलब्ध ही नही था। प्रदेश में आईएएस अधिकारियो की कुल संख्या 147 है जिसमें डायरैक्टर आईएएस की संख्या 103 है। लेकिन आईएएस की काडर पोस्टे केवल 80 ही है। इनमें भी सीएस-1 और एसीएस भी -1 ही काडर पोस्ट है। 1954 के आईएएस के नियुक्ति नियमों के मुताबिक जितनी काडर में स्वीकृत पोस्टें होंगी उतनी ही काडर के बाहर भी सृजित की जा सकती हैं। इस आधार पर प्रदेश में मुख्य सचिव के बाद केवल चार ही अतिरिक्त मुख्य सचिव हो सकते हैं। इन चार के अतिरिक्त और एसीएस केवल काम की आवश्यकता के अनुसार केवल दो वर्ष के लिये ही बनाये जा सकते हैं और दो वर्ष के बाद उन्हे रिव्यू किया जायेगा। विनित चौधरी की याचिका में आरोप लगाया गया था कि
That the note artificially expands the list of officers who are eligible to be considered for appointment as Chief Secretary by including officers holding posts of Additional Chief Secretary that have been created in contravention of the IAS Pay Rules and the IAS Cadre Rules and Government of India instructions disallowing creation of posts in the apex grade under the 2nd proviso to Rule 4(2) of the IAS Cadre Rules.
That the note indicates that all 16 officers have been placed in the apex grade after due screening by the screening committee which is factually incorrect because respondent No. 3 Sh VC Pharka along with Respondent no 4, was granted the Chief Secretary's grade without any consideration by the Screening Committee and was, therefore, not eligible for being considered for appointment to the post of Chief Secretary.
That the note fails to draw attention to the fact that recommendation of the Civil Services Board was now mandatory for making any appointment to cadre posts after amendment in the IAS (Cadre Rules) in pursuance of the Supreme Court's judgment in the TSR Subramanian case and consequential amendments in the IAS Cadre Rules.
Two officers of the 1983 batch viz Upma Chawdhry and Vidya Chander Pharka were promoted to the Chief Secretary's grade on 04.03.2014 by upgrading two posts of Principal Secretary to the Govt out of which one post was to re-convert to the post of Principal Secretary on 30.4.2015. The apex scale was released without any assessment by the Screening Committee. As per information obtained under RTI, no information about the meeting of the Screening Committee is available with the State Govt.
विनित चौधरी की याचिका में प्रदेश सरकार के अतिरिक्त केन्द्र सरकार को भी पार्टी बनाया था। इस याचिका का यह आरोप विनित चौधरी के मुख्य सचिव बन जाने के बाद भी अपनी जगह खड़ा रहता है। अब जब चौधरी ने अपनी याचिका वापिस ले ली है तब इसके बावजूद भी कैट के सामने यह सवाल रहा कि क्या ऐसे एसीएस बनाया जाना कितना सही है। कैट ने इस सवाल को केन्द्र के कार्मिक विभाग के गले बांधते हुए उसे दो माह के भीतर निपटाने के निर्देश दिये हैं। केन्द्र सरकार इस मामले में स्वतः ही पार्टी रही है और पार्टी होने के नाते निर्देश भी स्वतः ही उसके संज्ञान में चले जाते हैं। इन निर्देशों पर फैंसला लेना केन्द्र सरकार के कार्मिक विभाग की अनिवार्यता बन जाती है भले ही इस पर विनित चौधरी केन्द्र को अलग से प्रतिवेदन दें या न दें।
अब संयोगवश केन्द्र का कार्मिक विभाग प्रदेश के आईएएस का काडर रिव्यू करने जा रहा है। इस रिव्यू में डायरैक्टर आईएएस की संख्या बढ़ाई जाती है या नही के साथ यह भी देखना होगा कि वर्तमान में प्रदेश में आईएएस की काडर पोस्टेे केवल 80 ही है। क्या रिव्यू में काडर पोस्टें भी बढ़ती हैं या नही और यदि बढ़ती है तो किस स्तर पर बढ़ती है। इस समय मुख्य सचिव बनाये जाने के लिये जो नियम हैं उसमें बतौर आईएएस केवल 30 वर्ष का सेवाकाल ही पूरा चाहिये। जिसका सीधा सा अर्थ है कि जिस भी अधिकारी का 30 वर्ष का सेवाकाल पूरा हो जाता है उसे मुख्य सचिव बनाया जा सकता है। इस 30 वर्ष के सेवाकाल में यह शर्त नही है कि वह इसके साथ अतिरिक्त मुख्य सचिव भी हो। बल्कि जिन लोगों का 30 वर्ष का सेवाकाल पूरा हो जाता है उनमे से किसी को भी मुख्य सचिव बनाया जा सकता है।
इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि मुख्य सचिव बनने के लिये अतिरिक्त मुख्य सचिव होना कोई अनिवार्यता नही है केवल 30 वर्ष का सेवाकाल ही चाहिये। ऐसे में क्या 30 वर्ष का कार्यकाल पूरा कर चुके हर अधिकारी को एसीएस बना दिया जाना चाहिये या इसके लिये काडर में स्वीकृत पदों तक ही सीमित रहना चाहिये इसका फैसला करने के लिय कैट ने केन्द्र को दो माह का समय दिया है। अब प्रदेश के काडर रिव्यू के मौके पर इस मुद्दे पर भी विचार किया जाता है या नही इस पर सशंय बना हुआ है। वैसे काडर से अधिक एसीएस हिमाचल ही नहीं बल्कि देश के हर राज्य में बनाये गये हैं। फिर हिमाचल में आईपीएस और आईएफएस में भी काडर से अधिक पदोन्नत्तियां दी गयी है। ऐसे में यदि आईएएस के लिये यह फैसला लागू किया जाता है तो फिर आईपीएस और आईएफएस में भी यह लागू करना पड़ेगा और इससे पूरे शीर्ष प्रशासन में बहुत कुछ बदल जायेगा। ऐसे में इस फैसले पर अमल करना सरकार के लिये बहुत आसान नही होगा।