शिमला/शैल। प्रदेश भर में हुए अवैध निर्माणों और वनभूमि पर हुए अवैध कब्जों के मामलें एक लम्बे अरसे से प्रदेश उच्च न्यायालय और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के कड़े संज्ञान में चलते आये है। अवैध निर्माणों को नियमित करने के लिये प्रदेश में रही कांग्रेस और भाजपा सरकारों ने कई रिटेन्शन पाॅलिसीयां तक लायी। पिछली वीरभद्र सरकार ने तो अवैध निर्माणों को नियमित करने के लिये प्लानिंग एक्ट में ही संशोधित कर दिया था। लेकिन जब यह संशोधित एक्ट विधानसभा से पारित होकर महामहिम राज्यपाल की स्वीकृति के लिये आया तब राज्यपाल ने इसे अपने पास रोक लिया। परन्तु जब इस संशोधित अधिनियम के पक्ष में भाजपा का एक प्रतिनिधिमण्डल राज्यपाल से मिला तब इस संशोधित एक्ट को राजभवन की भी स्वीकृति मिल गयी और यह कानून बन गया। लेकिन राज्यपाल की स्वीकृति मिलने के बाद इस संशोधन की वैधता को चुनौती देते हुए तीन याचिकाएं प्रदेश उच्च न्यायालय में दायर हो गयी। इन याचिकाओं पर हुई सुनवाई के बाद 22 दिसम्बर को इस पर प्रदेश उच्च न्यायलय का फैसला आ गया है । उच्च न्यायालय ने इस संशोधन को निरस्त कर दिया है । उच्च न्यायालय के इस फैसले में सरकार के दायित्वों को लेकर जो टिप्पणीयां की गयी है उनसे हमारे माननीयों और पूरे प्रशासनिक तन्त्र की कार्यशैली पर जो सवाल खड़े हुए है। वह काफी चैंकाने वाले हैं।
प्रदेश उच्च न्यायालय के संज्ञान में यह आया है कि प्रदेश भर में 35000 अवैध भवन निर्माण हुए हैं। जिन्हें नियमित करने के लिये अध्यादेश लाया गया और फिर इस अध्यादेश को विधानसभा में एक्ट की शक्ल दी गयी। इस संशोधित अधिनियम में हर तरह की अवैधता ने कहा है कि The common man feel cheated when he finds that those making illegal and unauthorized constructions are supported by the people entrusted with the duty of preparing and executing the developmental plans.
क्योंकि संविधान में स्पष्ट उल्लेख है कि "13. Laws inconsistent with or in derogation of the fundamental rights:-
(1) …
(2) The State shall not make any law which takes away or abridges the rights conferred by this Part and any law made in contravention of this clause shall, to the extent of the contravention, be void."
"14. Equality before law:- The State shall not deny to any person equality before the law or the equal protection of the laws within the territory of India."
उच्च न्यायालय ने यह संशोधन लाने में सरकार
की नीयत पर टिप्पणी की है। It is not a one time measure. For the last more than two decades, functionaries of the State, in collusion or otherwise, have allowed dishonesty to be perpetuated, by bringing in not less than seven policies of retention of unauthorized construction. Well, the legislation may be the first one, but then there is also no similarity of attending factors between the two. Duty of the State is to govern. Governance includes implementation of the statutes in existence.
Failure of the government, in having the provisions of a statute implemented, amounts to failure in governance. This failure in governance by a Government cannot be permitted to be condoned by incorporation of such like amendments, resulting into condoning mis-governance.
It promotes dishonesty and encourages violation of law. Significantly, no action stands taken against the erring officials, who, in connivance, allowed such construction to be raised, throughout the State. It is not that thousands of unauthorized structures came up overnight. The officials failed to discharge their duties. The functionaries adopted an ostrich like attitude and approach, violating human and legal rights of an honest resident of the State. Haphazard construction is in fact a threat to life and property. Entire Himalayan region, falling within the territory of Himachal Pradesh, falls within the Seismic Zone Nos.V & VI. Any natural calamity, by way of an earthquake, will pose great threat to life and property of individual and that too only on account of dishonesty allowed to be perpetuated by handful residents of the State, whose functionaries have acted in a most callous manner. Their acts are no less than criminal in nature. They have rendered the provisions of the Planning Act and other municipal laws to be nugatory and otiose.
Any indulgence on the part of the State/ Legislators, in protecting such dishonesty, would lead to anarchy and destroy the democratically established institutions, also resulting into indiscrimination. This is what Shayra Bano (supra) talks of manifest arbitrariness.
Also, it is excessive and capricious. The State owes an obligation and duty to ensure compliance of all laws, more so that of planned development, as it materially affects the rights and enjoyment of property by the persons residing within the State.
उच्च न्यायालय ने अपने विस्तृत फैसले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी अवैध निर्माणों को लेकर समय-समय पर दिये गये फैसलों को भी संज्ञान में रखा है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सर्वोच्च न्यायालय का रूख भी अवैध निर्माणों को लेकर बहुत कडा़ रहा है। इसलिये ऐसा नही लगता कि इन अवैधताओं को नियमित करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय से भी कोई राहत मिल पायेगी। फिर प्रदेश उच्च न्यायालय के इस फैसले से पहले इसी संद्धर्भ में एनजीटी का फैसला नवम्बर माह में आ चुका है। एनजीटी ने अपने फैसले में इस संद्धर्भ में गठित प्रदेश सरकार के अधिकारियों की कमेटी की रिपोर्ट का भी संज्ञान लिया है। इस तरह इन फैसलों के बाद इन पर अमल करवाने का दायित्व सरकार का हो जाता है। बल्कि अदालत ने तो इस संद्धर्भ में स्थानीय निकायों के जन प्रतिनिधियों की भी जिम्मेदारी लगायी है कि वह इसमें प्रशासन का सहयोग करें। अदालत ने तो कसौली के मामलें में कुछ अधिकारियों के नामों का उल्लेख करते हुए मुख्य सचिव को इनके खिलाफ कारवाई करने के निर्देश दिये है । एनजीटी ने तो उन सेवानिवृत अधिकारियों के खिलाफ भी कारवाई करने को कहा है जिनके कार्यकाल में यह अवैधाताएं हुई हैं । लेकिन अभी तक मुख्यसचिव के स्तर पर कोई कारवाई सामने नही आयी है। संयोगवश एनजीटी और प्रदेश उच्च न्यायालय केे यह फैसलें विधानसभा चुनावों के बाद नवम्बर/दिसम्बर में आये हैं। इन फैसलों पर पिछली सरकार के कार्यकाल में तो कारवाई का समय ही नही था। फिर अब तो मुख्य सचिव भी नये आ गये हैं। ऐसे में इन फैसलों पर अमल करने की सारी जिम्मेदारी अब इस सरकार पर होगी। एनजीटी के फैसलें के बाद प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड ने कुल्लु, मनालीे और धर्मशाला क्षेत्रों में सैकड़ों होटलों के निर्माण को अवैध पाया है और उनकी बिजली तथा पानी काट दिया गया है। इस पर यह भी सवाल उठता है कि यदि इतने सारे होटलों का निर्माण अवैध रूप से हुआ है तो उस समय का संबधित प्रशासन क्या कर रहा था। एनजीटी और उच्च न्यायालय ने साफ कहा है कि कोई अवैध निर्माण प्रशासन की मिली भगत के बिना नही हो सकता है। इसलिये अधिकारियों/कर्मचारियों के खिलाफ भी कारवाई की अनुशंसा की गयी है। अवैध निर्माणों और अवैध कब्जों में कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही कई बडे़ प्रभावशाली लोग भी दोषी हैं। इनके साथ कई परोक्ष/अपरोक्ष में प्रशासन से जुड़े लोग भी दोषी मिल जायेंगे। अदालत के इन फैसलों पर यदि यह सरकार कारवाई करने का साहस दिखायेगी तो आने वाले समय में आम आदमी का समर्थन इस सरकार के साथ रहेगा। यदि यह सरकार प्रभावशाली लोगों के प्रभाव में आकर इन फैसलों पर कोई कारवाई नही कर पाती है तो इसकी साख पर भी पहले दिन से प्रश्न चिन्ह लग जायेगा। क्योंकि फैसलें आ चुके हैं और शायद अब अदालत भी इन्हें बदलेगी नही। इस तरह इन फैसलों पर अमल सरकार की परीक्षा सिद्ध होगा।
शिमला/शैल। प्रदेश भाजपा में 44 सीटें जीतने के बावजूद भी नेता के चयन पर उभरी धडेबन्दी नारेबाजी तक जा पहुंची थी। और इस पर पार्टी के वरिष्ठ नेता शान्ता कुमार ने कडी प्रतिक्रिया भी जारी की थी लेकिन यह खेमेबन्दी की पृष्ठभूमि में उभरी नारेबाजी यहीं न रूककर मन्त्रीमण्डल के गठन तक भी पहुंच गयी है। मन्त्री परिषद् में स्थान न मिलने पर विक्रम जरयाल, नरेन्द्र बरागटा और राजीव बिन्दल के समर्थकों की नाराज़गीे सार्वजनिक से सामने आ गयी है। रमेश धवाला ने तो यहां तक कह दिया है कि यदि 1998 में वह समर्थन न देते तो सरकार ही न बनती। मन्त्री परिषद् में चम्बा, बिलासपुर, हमीरपुर और सिरमौर जिलों को प्रतिनिधित्व नही मिल पाया है। मन्त्रीमण्डल के गठन में पार्टी के भीतरी सूत्रों के मुताबिक लोकसभा क्षेत्रों के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया गया है। प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र से तीन -तीन मन्त्री लिये गये हैं। लेकिन इसमें शिमला क्षेत्र से दो ही लिये जा सके हैं। मन्त्रीमण्डल में कोई स्थान खाली नही है अब केवल दो लोग विधानसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के रूप में ही नियुक्त होने शेष रह गये हैं और इस तरह कुल चोदह लोग ही समायोजित हो पाये हैं। शेष बचे 30 लोगों में से क्या कुछ संसदीय सचिव बगैरा बनाकर समायोजित किया जाता है या नहीं, यह तोे आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन अब यह तो स्पष्ट हो चुका है कि बिना किसी को हटाये दूसरा व्यक्ति मन्त्री नही बन पायेगा।
राजनीति में स्वार्थ सिन्द्धातों पर भारी पड़ जाते है यह सर्वविदित है और हर निर्वाचित विधायक की ईच्छा मन्त्री बनने की रहती ही है यह भी स्वभाविक ही है। ऐसे में मुख्यमन्त्री इस अभी उभरे रोश को आगे न बढ़ने देने के लिये किस तरह की रणनीति अपनाते हैं यह देखना महत्वपूर्ण होगा। सदन में कांग्रेस से ज्यादा अपने ही विधायकों की कार्यप्रणाली सरकार को प्रभावित करेगी यह तय है क्योंकि कांग्रेस के अन्दर वीरभद्र, मुकेश अग्निहोत्री और आशा कुमारी और सुक्खु के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा अनुभवी नज़र नही आता है जो सरकार के हर कार्य पर पैनी नज़र बनाये रखेगा। फिर वीरभद्र और आशा कुमारी को तो अभी अपने मामलों से भी बाहर आने में समय लगेगा। ऐसे में सरकार पर अपनो की ही पैनी नज़र हर समय बनी रहेगी यह तय है। अपनों की यह पैनी नज़र सरकार को कहां तक असहज कर देती है यह धूमल के दोनों शासनकालों में खुलकर सामने आ चुका है और अब तो पहले दिन से हीे रोष के स्वर मुखर हो गये हैं। अभी विभिन्न निगमों/वार्डों में जब ताजपोशीयों का दौर शुरू होगा तब फिर रोष के उभरने की संभावना रहेगी। कांग्रेस के भीतर इन्ही ताजपोशीयों से शुरू हुआ रोष अन्त तक बराबर बना रहा और उसी के कारण कांग्रेस इस स्थिति तक पहुंची है।
इस पृष्ठभूमि को सामने रखते हुए यह सवाल अभी से चिन्ता का मुद्दा बनते नज़र आ रहे हैं कि भाजपा में पहले दिन से ही उठे यह रोष के स्वर कहां तक जायेेंगेे क्योंकि भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार का अभियान वीरभद्र सरकार से ‘‘हिमाचल मांगे हिसाब’’ से शुरू किया था। इस हिसाब मांगने के चार पेज के दस्तावेज के अन्तिम पैरा में प्रदेश के मुख्य सचिव मुख्यमन्त्री के प्रधान निजि सचिव सुभाष आहलूवालिया तथा मुख्यमन्त्री के सुरक्षा अधिकारी पदम ठाकुर के नाम लेकर मुख्यमन्त्री से सीधे कुछ सवाल पूछेे गये थे। इन सवालों से यह स्पष्ट इंगित होता था कि सत्ता में आने पर भाजपा सरकार इन अधिकारियों को लेकर तो कोई कारवाई शीघ्र ही अमल में लानी आवश्यक हो जायेगी। सुभाष आहलूवालिया की पत्नी की नियुक्ति पर सवाल उठाये गये थे। पदम ठाकुर के कुछ परिजनों को मिली नियुक्तियों पर गंभीर सवाल थे। लेकिन अब पदम ठाकुर को सेवा नियमों में कुछ ढ़ील देकर फिर से वीरभद्र का सुरक्षा अधिकारी रहने दिया गया है। भाजपा ने इन अधिकारियों पर इसलिये सवाल उठाये थे क्योंकि जनता की नज़र में भी सबकुछ गलत था लेकिन अब यदि भाजपा अपने ही उठाये इन सवालों पर खामोश बैठी रहती है तो आने वाले समय में इसी सब पर भाजपा से भी हिसाब मांगने की नौबत आ जायेगी। बल्कि कुछ समय बाद तो कांग्रेस स्वयं भी इस सबको लेकर आक्रामक हो जायेगी। जिस तरह सेे टूजी स्पैकट्रम के मामले में स्थिति पूरा यूटर्न ले गयी है। 2019 में भाजपा को लोकसभा चुनावों का सामना करना है। यदि इन चुनावों तक भाजपा अपने ही सौपें आरोप पत्रों और ‘‘हिसाब मांगे हिमाचल’’ में दर्ज मामलों पर कुछ ठोस करकेे नही दिखाती है तो उसके लिये परिस्थितियां कोई बहुत सुखद रहने वाली नही रहेंगी। इसलिये पिछलेे छः माह के फैंसलों पर पुनर्विचार करने से आगे के कदम भी उठाने होंगे अन्यथा यह सारी कवायद बेमानी होकर रह जायेगी।
शिमला/शैल। वीरभद्र सिंह को सातवीं बार मुख्यमन्त्री बनाने का दावा करने वाली कांग्रेस अभी तक उन्हे नेता प्रतिपक्ष तक नहीं बना पायी है। क्योंकि चुनाव परिणाम आने के बाद कांग्रेस प्रभारी शिंदे और सह प्रभारी रंजीता रंजन ने कांग्रेस पार्टी की हार पर जो फीडबैक लिया था तब उसमें बहुमत इस हार के लिये सबसे ज्यादा वीरभद्र को ही व्यक्तिगत तौर पर दोषी ठहराया था। यही नहीं जब वीरभद्र सिंह के आवास पर विधायकों की बैठक हुई थी तब एक तो सारे विधायक इस बैठक में शामिल ही नही हुए थे और फिर जो शामिल हुए थे उन्होने भी वीरभद्र के कार्यालय के अधिकारियों को नाम लेकर उन्हें हार के लिये जिम्मेदार ठहराया था। इन आरोपों के चलते पार्टी ने नेता के चयन के प्रश्न को स्थगित कर दिया था।
अब राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी की बागडोर संभालने के बाद राहुल गांधी स्वयं इस हार का आंकलन करने शिमला आये थे। उन्होने सारा फीडबैक लेने के बाद प्रदेश के नेताओं और कार्यकर्ताओं को लोगों से जुडने की नसीहत दी है। राहुल गांधी ने कार्यकर्ताओं को यह मन्त्र दिया है कि वह सरकार के हर काम पर अपनी नज़र बनाये रखें और आम आदमी के मुद्दों को लेकर हर समय संघर्ष के लिये तैयार रहें। उन्होने स्पष्ट कर दिया है कि भविष्य में वही आगे आयेगा जो अब संघर्ष करेगा। राहुल गांधी नेताओं और कार्यकर्ताओं से सीधी बात करके वापिस लौट गये हैं और पार्टी का सदन में नेता कौन होगा इसका फैसला दिल्ली से किया जायेगा। इससे यह संकेत उभरता है कि शायद अब वीरभद्र का नेता प्रतिपक्ष होना भी आसान नही होगा। भले ही इस समय पार्टी के चुने हुए विधायकों का बहुमत वीरभद्र के साथ है।
वीरभद्र के नेता प्रतिपक्ष बनने के रास्ते में सबसे बड़ी रूकावट उनके खिलाफ सीबीआई और ईडी में चल रहे मामलें माने जा रहे हैं। इस प्रकरण में अब गंभीरता इस कारण से बढ़ गयीे है क्योंकि आने वाले मार्च माह में सांसदों/विधायकों के खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों का निपटारा एक वर्ष के भीतर करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों पर विशेष अदालतों का गठन किया जा रहा है। इस संद्धर्भ में अगले एक वर्ष के भीतर इनके मामलें में फैसला आ जायेगा। इस मामले में व्यस्त रहने के कारण वीरभद्र नेता प्रतिपक्ष के तौर पर अपनी जिम्मेदारी निभाने के लियेे समय नही निकाल पायेंगे। वीरभद्र के अतिरिक्त कांग्रेस में आशा कुमारी के खिलाफ भी आपराधिक मामला चल रहा है। निचली अदालत से उन्हे सज़ा मिल चुकी है और अब अपील में उच्च न्यायालय में उनका मामला लंबित चल रहा है। माना जा रहा है कि 2018 में इस मामले में भी फैसला आ जायेगा। इन मामलों के चलते वीरभद्र और आशा कुमारी का नेता प्रतिपक्ष बन पाना संदिग्ध माना जा रहा है।
शिमला/शैल। सत्ता से बेदखल हुई वीरभद्र सरकार पर जो आरोप लगते रहे हैं और जिनको लेकर राज्यपाल को समय -समय पर आरोप पत्र भी सौंपे गये हैं उनमें एक आरोप यह लगता रहा है कि सरकार को रिटायरड और टायरड लोग चला रहे हैं। इन आरोपों का आधार था कि वीरभद्र के प्रधान निजि सचिव से लेकर उनके प्रधान सचिव और ओएसडी तक संयोगवश सभी लोग सेवानिवृत अधिकारी थे। यह एक जन चर्चा बन गयी थी कि सरकार को वीरभद्र सिंह नही बल्कि यह अधिकारी चला रहे हैं। यह आरोप निराधार भी नही थे। बल्कि इस सरकार की हार का एक सबसे बड़ा कारण भी यही लोग रहे हैं क्योंकि इन सेवानिवृत अधिकारियों के आगे दूसरे अधिकारी अपने को अप्रसांगिक मानने लग गये थे। इन सेवानिवृत अधिकारियों के कारण पूरे प्रशासन की कार्य प्रणाली पर सवाल उठने लग गये थे। ब्रेकल हाईड्रो परियोजना के संद्धर्भ में अदानी के 280 करोड़ लौटाने को लेकर बार- बार फैसलों में हुआ बदलाव इस प्रभाव का सबसे बड़ा प्रमाण रहा है।
इसी परिदृश्य में आज भाजपा की आने वाली सरकार को लेकर भी यह सवाल उठने शुरू हो गये हैं कि क्या इस सरकार में भी सेवानिवृत बड़े बाबूओं का दखल पिछली सरकार की तरह देखने को मिलेगा या नहीं। यह सवाल इसलिये उठने लगा है क्योंकि लोकसभा चुनावों के बाद से कई सेवानिवृत बड़े अधिकारियों ने आरएसएस और भाजपा में अपनी सदस्यता और सक्रियता दर्ज करवाई है। अब भाजपा सत्ता में आ गयी है तो स्वभाविक रूप से यह जिज्ञासा हर कहीं उठेगी ही कि इस सरकार में इन सक्रिय हुए लोगों की भूमिका संगठन तक ही रहेगी या फिर सरकार चलाने में भी यही प्रमुख रहेंगे। चर्चा है कि ऐसे कुछ अधिकारी सरकार चलाने में अपनी भूमिकाएं अभी से तय करने में लग गये हैं।
अभी हुए विधानसभा सभा चुनावों में भाजपा से निकटता का दम भरने वाले इन अधिकारियों की भूमिका क्या और कितनी सक्रिय रही है यह तो आने वाले समय में ही खुलासा होगा लेकिन जो परिणाम आये हैं और जिस तरह से धूमल और निकटस्थों की हार हुई उससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि यह अधिकारी भी राजनीतिक स्थितियों का सही आंकलन करने में पूरीे तरह सफल नही रहे हैं। फिर अभी नेता के चयन में केन्द्रिय नेतृत्व को एक सहमति पर पहुंचने में जिस तरह की कसरत करनी पड़ी है उसका असर आगे आने वाले लोकसभा चुनावों पर कैसा पड़ेगा इसको लेकर भी नयी सरकार को अभी से सतर्क रहना आवश्यक हो जायेगा और इस सब में अधिकारियों और दूसरे सलाहकारों की टीम का चयन कैसा रहता है इसका भी असर पडे़गा।
शिमला/शैल। हिमाचल सरकार ने 7.12.2000 को एक अधिसूचना जारी करके शिमला के 17 क्षेत्रों को ग्रीन एरिया घोषित किया था। इससे पहले 11 अगस्त 2000 को भी एक अधिसूचना जारी की गयी थी इसमें कहा गया था All Private as well as Government constructions are totally banned within the core area of Shimla Planning Area. Only reconstruction on old lines shall be permitted in this area with the prior approval of the State Government. The core area shall comprise of the following: "Central Shimla bounded by the circular cart road starting from victory Tunnel and ending at Victory tunnel via Chhota Shimla and Sanjaui and the area bounded by Mall Road starting from Railway Board Building to Ambedkar Chowk, covering Museum, Hill by a road starting from Ambedkar Chowk, on the north side, joining the chowk of Indian Institute of Advance Studies and following the road joining Summer Hill post office and via upper road to Boileauganj Chowk and then joining the cart Road, along Cart Road to Victory Tunnel." सरकार की इन अधिसूचनाओं की अवहेलना करते हुए जब शिमला में निर्माण होते चले गये तब इस संद्धर्भ में अन्ततः 2014 में एनजीटी में एक याचिका दायर हुई और इस पर मई 2014 में एनजीटी ने भी एक अन्तरिम आदेश पारित करते हुए सरकार की 2000 की अधिसूचना की तर्ज पर निर्माणों पर रोक लगा दी थी।
लेकिन सरकार की अधिसूचना और एनजीटी के अन्तरिम आदेशों के बावजूद भी इन निर्माणों पर रोक नही लगी बल्कि जाखू रोपवे के निर्माण के लिये 11 मंजिले स्वीकृत थी परन्तु इसमें 13 मंजिलों का निर्माण कर दिया गया। स्वीकृति के बिना बनी दो मंजिलों को 60,68,491 रूपये का जुर्माना लगाकर नियमित कर दिया गया। एनजीअी ने जाखू रोपवे के निर्माण का कड़ा संज्ञान लिया है। यही नही सरकार की अधिसूचनाओं और एनजीटी के निर्देशों के बावजूद ऐसे निर्माण जारी है। जिनकी नियमों के अनुसार अनुमति मिलना संभव नही है। चर्चा है कि टूटी कंडी क्षेत्रा में ऐसा निर्माण बेरोकटोक जारी है जिसमें शायद 90 डिग्री तक की कंटिग कर दी गयी है जबकि 35 डिग्री से अधिक की स्लोप की कटिंग ही नियमों के मुताबिक की जा सकती है। ऐसेे चल रहे निर्माणों से एक बार फिर यह सवाल उठना शुरू हो गया है कि क्या एनजीटी के आदेशों की अनुपालना हो पायेगी।