Friday, 19 September 2025
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राज्य सहकारी बैंक ने दी कर्जदार को राहत और गारन्टर को सज़ा

शिमला/शैल। क्या कर्ज लेने वाले की संपत्ति को अटैच करने के बावजूद उसकी नीलामी से पहले कर्जदार की गारंटी देने वाले की संपत्ति को नीलाम किया जाना चाहिये? यह सवाल राज्य सहकारी बैंक की चम्बा शाखा में चर्चा का विषय बना हुआ है। इस बैंक से एक व्यक्ति प्रदीप, सुपुत्र प्यारे लाल ने एससीएसटी कारपोरेशन के माध्य से वर्ष में का ट्टण लिया। इस ऋण के लिये उसकी गारंटी भी उसके ससुर ने ही दी। लेकिन ससुर उत्तम चन्द ने इसकी जानकारी अपने परिवार तक को नही दी। दुर्भाग्यवश ऋण लेकर जो ट्रक टाटा 709 खरीदा था उसका छः माह बाद ऐक्सीडैण्ट हो गया और इस दुर्घटना में ट्रक का पूरा नुकसान हो गया। इस नुकसान के कारण कर्ज की किश्तों की अदायगी नही हो पायी। दुर्घटना के बाद इन्शोयरैन्स से क्लेम मिलने में भी कुछ समय लग गया। बैंक ने ऋण वसूली के लिये कर्जदार और गांरटी देने वाले दोनो के खिलाफ कारवाई शुरू की। यह कारवाई शुरू होने पर कर्जदार ने अदालत से लिखित में आग्रह किया कि जब तक क्लेम नही मिल जाता है इस कारवाई को रोक दिया जाये। यह भी आग्रह किया कि कर्ज वसूली के लिये उसकी गारंटी देने वाले के खिलाफ कारवाई न की जाये क्योंकि उसके अपने पास कर्ज चुकता करने के लिये पर्याप्त संपत्ति है।
इस पर कुछ समय के लिये वसूली की कारवाई स्थगित कर दी गयी। फिर इन्श्योरैन्स से 3.50 लाख क्लेम भी मिल गया जो सीधा बैंक को अदा कर दिया गया लेकिन इससे पूरा कर्ज चुकता नही हो पाया। संयोगवश इसके बाद गारंटी देने वाले की मौत हो गयी। उसकी मौत के बाद उसकी संपत्ति उसके बच्चों के नाम आ गयी। लेकिन तब तक भी परिवार को यह जानकारी नही हो पायी कि इस संपत्ति की गारंटी देकर प्रदीप कुमार ने बैंक से ऋण लिया है और उसकी अदायगी नही हुई है। यह जानकारी इसलिये बाहर नही आ पायी क्योंकि ऋण लेने वाला चम्बा की जिला अदालत में पैटीशन राईटर है और अपने प्रभाव के कारण किसी को भी यह जानकारी नही होने दी। क्योकि गारंटी देने वाला भी पढ़ा लिखा नही था केवल उर्दु में दस्तखत करने जानता था। अब जब बच्चों की संपत्ति की इस कर्ज गांरटी के कारण नीलामी की नौबत आ गयी तब परिवार को पूरे मामले का पता चला। परिवार ने अपने नाबालिग बच्चों के माध्यम से संपत्ति की नीलामी पर रोक लगवायी है। इस रोक के बाद कर्जदार की संपत्ति के बारे में जानकारी हासिल करके उसे बैंक और अदालत के संज्ञान में लायी है। इस संज्ञान के बाद कर्जदार की संपत्ति भी अटैच हो गयी है। यह संपति चम्बा शहर मे ही स्थित है और इसको नीलाम करके सारा ऋण चुकता हो जाता है लेकिन यह संपत्ति 16.2.2010 को अटैच हो गयी है।
लेकिन यह हो जाने के बावजूद भी बैंक ऋण धारक की संपत्ति को नीलाम करवाने के लिये आवश्यक कदम उठाने की बजाये गारंटी रखी हुई संपत्ति को ही नीलाम करवाने के कदम उठा रहा है। बैंक की इस बेइन्साफी के बारे में बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष हर्ष महाजन से भी इन लोगों ने लिखित में शिकायत की थी जिस पर आश्वासन के अतिरिक्त और कुछ हासिल नही हुआ है। एससीएसटी कारपोरेशन से भी इस बारे शिकायत की गयी लेकिन वहां भी कोई कारवाई नही हुई। बैंक के इस व्यवहार के कारण परिवार तनाव में चलन रहा है। परिवार बैंक से यह निवेदन बार बार कर चुका है कि यदि कर्जदार की अटैच की हुई संपत्ति की नीलामी कर्ज की पूरी अदायगी नही हो पाती है तो वह शेष बचे कर्ज को भरने के लिये तैयार हैं। लेकिन उनके इस आग्रह को बैंक स्वीकार नही कर रहा है। ऋण नियम साफ है कि यदि कर्जधारक की संपत्ति से कर्ज की पूरी वसूली नही हो पाती है तब गारंटी देने वाले की संपत्ति की नालीमी की नौबत आती है। बैंक स्थापित नियम और मानवीय दृष्टिकोण को नज़रअंदाज करके इस परिवार को क्यों कोई आत्मघाती कदम उठाने पर बाध्य कर रहा है यह एक चर्चा का विषय बना हुआ है। क्या बैंक जंगल राज की ओर बढ़ रहा है?

प्रशासनिक तबादलों ने फिर-उठाये सरकार की नीयत और नीति पर सवाल

शिमला/शैल। जयराम सरकार पर विपक्ष का सबसे बड़ा आरोप यह लग रहा है कि सरकार अधिकारियों और कर्मचारियों के तबादलों में ही उलझकर रह गयी है। यह आरोप कितना सही है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जनवरी से लेकर जून तक लगभग हर माह प्रशासनिक अधिकारियों तक के तबादले होते रहे हैं। बल्कि यहां तक होता रहा है कि आज आदेश जारी हुए तो कल ही कुछेक को फेन पर निर्देश दे दिये गये कि आपने अभी कार्यभार ग्रहण नही करना है। कई पदों पर तो यहां तक रहा है कि तीन-तीन, चार- चार बार अधिकारी बदले गये हैं। विपक्ष के आरोप का जवाब भी सरकार की ओर से यही आया है कि कांग्रेस के समय में भी यही होता था। कुल मिलाकर छः महीने के कार्यकाल के बाद भी प्रशासनिक अधिकारियों में स्थिरता का भाव नहीं आ पाया है और यही सरकार का सबसे नकारात्मक पक्ष चल रहा है।
प्रशासन में व्याप्त इसी अस्थिरता का परिणाम है कि सरकार अभी तक प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में खाली चले आ रहे सदस्यों के पदों को अब तक नहीं भर पायी है। क्योंकि इन पदों के लिये संभावित उम्मीदवारों के रूप में पूर्व मुख्य सचिव और वर्तमान मुख्य सचिव दोनो का नाम माना जा रहा है। वर्तमान मुख्य सचिव की सेवानिवृति सितम्बर माह मे है इसलिये चर्चा है कि ट्रिब्यूनल के पद सितम्बर के बाद ही भरे जायेंगे भले ही कर्मचारी न्याय के लिये बाट जोहते रहें। विश्वविद्यालय में अभी तक वाईसचान्सलर का चयन नही हो पा रहा है। लोकायुक्त और मानवाधिकार आयोग खाली चल रहे हैं जबकि इन पदों पर तो अब तक नियुक्तियां हो जानी चाहिये थी। इससे सुशासन को लेकर सरकार की छवि पर प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो गये हैं।
प्रशासन पर मुख्यमन्त्री की पकड़ कितनी बन पायी है और प्रशासन की आन्तरिक समझ सरकार को कितनी आ पायी है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जब सरकार ने पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव को सेवानिवृति से एक सप्ताह पूर्व तक की स्टडी लीव सारे नियमों/कानूनों को ताक पर रखकर दे दी। यह फैसला अपराध की श्रेणी में आता है पूरे प्रशासन में कर्मचारियों तक यह चर्चा का विषय बना हुआ है। इसी तरह अब आरसीएस के पद पर की गयी नियुक्ति को लेकर सवाल उठने शुरू हो गये हैं क्योंकि एचपीसीए कंपनी है या सोसायटी यह मामला अभी तक आरसीएस के पास फैसले के लिये लंबित चल रहा है। अब जिस अधिकारी को आरसीएस की जिम्मेदारी दी गयी है वह स्वयं एचपीसीए में नामजद है। एचपीसीए का मामला एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दे का रूप ले चुका है। क्योंकि वीरभद्र के पांच साल के सारे कार्यकाल में विजिलैन्स के पास एक प्रमुख मुद्दा रहा है। यह प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय तक भी पंहुचा हुआ है। सरकार इसमें एचपीसीए की मदद करना चाहती है जबकि कांग्रेस इस पर बराबर शोर करेगी। ऐसे में जब सरकार आरसीएस के पद पर ऐसी नियुक्ति करेगी तो इसका सीधा सा अर्थ होगा कि आप जानबझूकर कांग्रेस को एक मुद्दा दे रहे हैं। अप्रत्यक्षतः इससे यह भी संकेत जायेगा कि शायद एचपीसीए को लेकर सरकार की नीयत ही साफ नही है।
प्रदेश के सहकारी बैंकों में 900 करोड़ से अधिक का एनपीए हो चुका है। यह जानकरी जयराम सरकार के पहले बजट सत्र में एक प्रश्न के माध्यम से सामने आयी है। प्रश्न के उत्तर में एनपीए के यह आंकड़े दिये गये हैं। जिसका अर्थ है कि सरकार और बैंक प्रबन्धनों ने पूरी जांच पड़ताल के बाद ही यह जानकारी सदन को दी है। इस एनपीए पर अब कारवाई आगे बढ़ाने की बजाये सहकारी बैंको के प्रबन्ध निर्देशकों की नियुक्ति को ही सरकार स्थायी रूप से नही दे पा रही है। उधर प्रबन्धन को ही कुछ लोगों ने एनपीए को लेकर यह वकालत करनी भी शुरू कर दी है कि सबकुछ ठीक है और कोई घपला नही हुआ है। चर्चा है कि बैंको के पूर्व प्रबन्धन ने एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी के माध्यम से जयराम सरकार के शीर्ष प्रशासनिक स्तर पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके एनपीए की जांच को शुरू होने से पहले ही दबाने का पूरा प्रबन्ध कर दिया है। ऐसी ही स्थिति कई अन्य मामलों में भी है जिनका जिक्र बाद में उठाया जायेगा।
इस तरह प्रशासन में जो कुछ हो रहा है उसका प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष सारा प्रभाव राजनीतिक नेतृत्व पर ही पडे़गा। नेतृत्व को ही जनता में जवाब देना पड़ता है यह स्थिति मुख्य सचिव को लेकर उठे मामले में आ चुकी है। केन्द्र सरकार में किन कारणों से वह सचिव के पैनल में नही आ पाये हैं उसको लेकर राज्य सरकार की अपनी भूमिका बहुत सीमित है लेकिन जो कुछ केन्द्र में घटा है उसका यह आरोप तो लग ही गया है कि इससे अधिकारी की निष्ठा तो संदिग्धता के दायरे में आ जाती है। इस आरोप पर मुख्यमन्त्री को विवशता में बचाव में उतरना पड़ा है। आने वाले समय में ऐसे कई और मामले खड़े होंगे जहां इस तरह के बचाव में उतरना पड़ेगा। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि प्रशासन में जो स्थिरता अभी तक नही बन पा रही है वह महज़ संयोगवश है या उसके पीछे एक सुनिश्चित रणनीति काम कर रही है। क्योंकि यह अपने में ही हास्यस्पद हो जाता है कि पहले तो तबादले के आदेश जारी हो जायें और उसके तुरन्त बाद उनकी अनुपालना फोन करके रोक दी जाये। इससे यह सवाल उठता है कि क्या मुख्यमन्त्री ने आदेश करने से पूर्व इस पर पूरा विचार नहीं किया या फिर बाद में प्रशासन ने अपने ही स्तर पर फेरबदल कर लिये। वास्तविकता कुछ भी रही हो लेकिन आम आदमी पर इसको लेकर सरकार का प्रभाव अच्छा नही पड़ रहा है।

राज्य सहकारी बैंक में अराजकता की विरासत से निपटना बना चुनौती

                            668 कर्मीयों को दिये लाभ में बैंक को करोड़ों का नुकसान
                              आर सी एस के आदेश पर नहीं हुई कोई कारवाई
शिमला/शैल। प्रदेश के राज्य सहकारी बैंक में अराजकता का आलम किस हद तक पहुंच गया है इसका खुलासा आरसीएस के 22-12-2017 के आदेश में देखा जा सकता है। इस आदेश पर अमल करने में प्रबन्धन के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो गयी है। क्यांकि इसके तहते 668 बैंक कर्मीयों को दिये गये अनुचित लाभ को वापिस लेने के साथ ही भविष्य के लिये इसे बन्द भी किया जाना है। इस लाभ देने से प्रतिवर्ष बैंक को करोड़ों का नुकसान हो रहा है जबकि बैंक का एनपीए 250 करोड़ से ऊपर जा चुका है। एनपीए के और बढ़ने के आसार हैं क्योंकि जिन हाईडल परियोजनाओं को बैंक ने नियमां में ढील देकर फाईनैस कर रखा है वह खाते एनपीए के कगार पर पहुंच चुके हैं। यह सब इसलिये हुआ है कि बैंक में कार्यरत कर्मचारियों से लेकर प्रबन्धन तक भाई भतीजावाद में इस कदर उलझ गया कि बैंक में कायदा कानून को अगूंठा दिखाते हुए ‘‘अंधा बांटे रेवडियां ’’ की कहावत चरितार्थ होती गयी जो आज वर्तमान प्रबन्धन के लिये एक गंभीर चुनौती बन गयी है।
बैंक में 2005 में कान्ट्रैक्ट पर भर्ती किये जाने की पॉलिसी स्वीकृति की गयी थी। इसके तहत 2006़ में बैंक के विभिन्न संवर्गो में 360 कर्मी भर्ती किये गये थे 2006 में भर्ती हुए इन कर्मीयों को पॉलिसी के मुताबिक पांच साल बाद रैगुलर कर दिया गया। इसके बाद 2012, 2014, 2016 में फिर कान्टै्रक्ट पर 450 के करीब भर्तीयां हुई। लेकिन इन सभी लोगों को पाचं वर्ष का कार्यकाल पूरा किये बिना ही 18 जुलाई 2016 को रैगुलर कर दिया।
यही नही कान्टै्रक्ट में ही कुछ को डीए का लाभ भी दिया गया है। जो कि बैंक नियम 25 का सीधा उल्लघंन है। इसी समय में 150 पार्ट टाईम कर्मीयों को भी नियमित कर दिया गया। इस तरह नियमित किये जाने और लाभ दिये जाने के कारण कई संवर्गो में वेतन विसंगतियां खड़ी हो गयी। सरकार में कान्टै्रक्ट पर नियुक्ति हुए कर्मीयों को पांच साल का कार्यकाल पूरा होने पर नियमित किये जाने का नियम है लेकिन बैंक ने इस नियम को नज़रअन्दाज करके छः माह वाले को भी नियमित कर दिया। यहां सवाल उठा हैं कि क्या सहकारिता के नाम पर बैंक सरकार की नीति और नियमों को नज़र अन्दाज कर सकता है और वह भी उस सूरत में जब बैंक का एनपीए बढ़ता जा रहा हो। सूत्रों की माने तो यह सब इसलिये किया गया था क्योंकि इस तरह नियुक्त हुए लोग सत्ता के उच्च गलियारों से जुड़े हुए थे। शायद इसी कारण से सरकार के वित्त विभाग ने भी इस पर कोई आपति नही उठाई जबकि बोर्ड की हर बैठक में विभाग का प्रतिनिधि आरसीएस के माध्यम से मौजूद रहता है।
बैंक में इस तरह का चलन लम्बे समय से चला आ रहा था और पहली बार इसके खिलाफ एक संजय सिंह मण्डयाल ने 31.5.2012 को प्रधान सचिव सहकारिता को एक शिकायत भेजी। इस शिकायत की एक प्रति आरसीएस को भी भेजी गयी थी। लेकिन जब इस शिकायत पर लम्बे समय तक कोई कारवाई नही हुई तब मण्डयाल ने इसको प्रदेश उच्च न्यायालय में CWP No 2055 of 2017 के माध्यम से चुनौती दे दी। इस याचिका पर उच्च न्यायालय ने 13.9.17 को आरसीएस को निर्देश दिये कि वह इस शिकायत को विधिवत तरीके से सुने और इस पर फैसला करे। उच्च न्यायालय के निर्देशों की अधिकारिक जानकारी आरसीएस को 25.10.2017 को मिली। इस पर 8.11.2017 को आरसीएस ने सुनवाई रखी इस सुनवाई पर बैंक ने जबाव में 4.5.13 की एक जांच रिपोर्ट पेश की। यह जांच आरसीएस के निर्देशों पर हुई थी जब शिकायत की प्रति मिली थी। जांच के लिये तीन सदस्यों की कमेटी बनाई गयी थी जिसने 4.5.13 को रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट में तीन बिन्दु सामने आये थे

(a) That the Bank granted special increments to its employees in lieu of passing graduation degree after appointment in Bank and allowed wrong stepping up of pay to the incumbents out of cadre;
(b) That the Bank granted special increment to its employee after their appointment in the Bank and treating it as pay anomaly; and
(c) That the Bank granted special increment to its employee for passing graduation degree and merged the same in the basic pay.

कमेटी की यह रिपोर्ट बैंक के एमडी को 19.6.13 को भेजी गयी थी और इस पर तुरन्त कारवाई करने के निर्देश दिये गये थे। मण्डयाल ने भी 6.3.2016 को एक और प्रतिवेदन देकर रिपोर्ट पर कारवाई सुनिश्चित किये जाने का आग्रह आरसीएस से किया। इस आग्रह को भी एमडी को 2.4.2016 को भेज दिया गया।
बैंक ने 4.5.13 की रिपोर्ट पर पहली बार पांच वर्ष बाद 8.11.2017 को अपना जवाब आरसीएस को भेजा। इस जवाब में यह कहा गया कि कई बार यह मामला वीओडी के सामने लाया गया लेकिन निदेशक मण्डल इस पर कोई फैसला नही ले पाया क्योंकि कई कर्मचारी सेवानिवृति हो चुके थे तथा इस पर अमल करने से और मुकद्दमें खड़े होने का अंदेशा था। इस रिपोर्ट पर बैंक ने अपने वेतन विंग का विस्तृत ऑडिट करने के लिये एक वित्तिय सलाहकार भी नियुक्ति किया। इस सलाहकार ने भी 668 कर्मचारियों को गल्त तरीके से वित्तिय लाभ देने का दोषी पाया। बैंक को और इस पर कारवाई करने के लिये कहा। लेकिन बैंक ने फिर कारवाई न करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के 18.12.2014 को रफीक मसीह बना स्टेट ऑफ पंजाब में आये फैसले का कवर लिया। आरसीएस ने बैंक की इस दलील को इस आधार पर नकार दिया कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला 18.12.2014 को आया जबकि बैंक में हुई गड़बड़ी की जानकारी 31.5.2012 को ही आरसीएस के संज्ञान में आ गयी थी और बैंक को 19.6.2013 को ही इस पर कारवाई करने के निर्देश दे दिये गये थे। फिर 2014 का फैसला वर्षों पहले हुई धांधली पर कैसे लागू किया जा सकता है। यही नही सहकारिकता में यह प्रावधान है कि यदि बैंक में किसी नियम की व्याख्या में कोई सन्देह पैदा हो जाये तो उसमें आरसीएस की व्याख्या ही अन्तिम मानी जायेगी।
आरसीएस ने अपने 12.12.17 के आदेशों में बैंक के एमडी को स्पष्ट निदेश दिये हैं कि 19.6.2013 की रिपोर्ट पर तीन माह में अमल किया जाये। यदि ऐसा नही होता है तो वह संवद्ध दोषी अधिकारियों और बैंक के पदाधिकारियों के खिलाफ कारवाई अमल में लायी जायेगी। आरसीएस के इस आदेश को आये छः माह का समय हो गया है लेकिन अभी तक न तो रिपोर्ट पर बैंक कोई कारवाई कर पाया है और न ही संवद्ध प्रबन्धन के खिलाफ कोई कारवाई की जा सकी है। लगता है कि विरासत में मिली इस अराजकता पर नया प्रबन्धन भी कारवाई का साहस नही कर पा रहा है या कोई बड़ा दवाब चल रहा है।






















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