Friday, 19 September 2025
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2018 में प्रदूषण बोर्ड के अध्यक्ष पद के लिए आये आवेदनों पर अब तक फैसला क्यों नही

सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद अभी तक सार्वजनिक नहीं हुए नये नियम
शिमला/शैल। इन दिनों प्रदूषण को लेकर दिल्ली में जो स्थिति बनी हुई है उसने पूरे देश का ही नहीं वरन पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार से केंद्र सरकार तक को इसमें कड़ी फटकार लगायी है। सर्वोच्च न्यायालय की प्रताड़ना से यह सवाल उठ रहा है कि इसका केंद्र और राज्य सरकारों पर असर कितना हो रहा है। नवम्बर 2017 में एनजीटी ने एक फैसले में शिमला और अन्य प्लानिंग क्षेत्रों में भवन निर्माण को लेकर निर्देश दिये थे कि यहां पर अढाई मंजिल से ज्यादा के निर्माण ना हो। यह भी निर्देश दिए थे कि 1978 से चली आ रही अन्तरिम योजना के स्थान पर नई और स्थायी योजना लाई जाये। लेकिन एनजीटी के इन निर्देशों का कितनी इमानदारी से पालन हुआ है इसका अन्दाजा इस दौरान बने दर्जनों बहुमंजिला भवनों से लगाया जा सकता है। पिछले दिनों कच्ची घाटी में एक आठ मंजिला भवन के गिरने के बाद कुछ दिन सक्रियता नजर आयी जो अब गायब है। बल्कि अब तो नयी योजना लायी गयी है वह एकदम एनजीटी के आदेशों को अंगूठा दिखाने जैसी है क्योंकि इसमें कोर एरिया में भी चार मंजिला निर्माणों की स्वीकृति देने की बात की गयी है। सरकार का टी सी पी विभाग यह योजना ला रहा है। इस पर जनता और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की प्रतिक्रिया क्या होगी यह आने वाले दिनों में पता लगेगा। लेकिन इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार अदालत के फैसलों को कितनी अहमियत देती है।
स्मरणीय है कि 2017 में ही सर्वोच्च न्यायालय में एक और याचिका भी दायर हुई थी। इस याचिका में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में अध्यक्ष और सदस्य सचिवों की नियुक्तियों को लेकर कोई निश्चित नियम और योग्यता आदि ना होने का मुद्दा उठाया गया था। यह कहा गया था कि राजनीतिक नेताओं को अध्यक्ष पदों पर नियुक्तियां दी जा रही है और सदस्य सचिवों के पदों पर सरकार ऐसे अधिकारियों को नियुक्त कर रही है जो सरकार के इशारों पर नाचते हैं। इस याचिका में आग्रह किया गया था कि इन पदों पर नियुक्तियों के लिए आवश्यक योग्यता और नियम तय किये जायें। इस पर याचिका में हिमाचल का भी नाम था क्योंकि यहां एक पूर्व विधायक को अध्यक्ष लगाया गया था। इस याचिका पर फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश दिये थे कि छः माह के भीतर यह नियम बनाये जायें और इनके भरने के लिए विज्ञापन जारी करके आवेदन आमंत्रित किए जायें। यह थे निर्देश Keeping the above in mind, we are of the view that it would be appropriate, while setting aside the judgment and order of the NGT, to direct the Executive in all the States to frame appropriate guidelines or recruitment rules within six months, considering the institutional requirements of the SPCBs and the law laid down by statute, by this Court and as per the reports of various committees and authorities and ensure that suitable professionals and experts are appointed to the SPCBs. Any damage to the environment could be permanent and irreversible or at least long-lasting. Unless corrective measures are taken at the earliest, the State Governments should not be surprised if petitions are filed against the State for the issuance of a writ of quo warranto in respect of the appointment of the Chairperson and members of the SPCBs. We make it clear that it is left open to public spirited individuals to move the appropriate High Court for the issuance of a writ of quo warranto if any person who does not meet the statutory or constitutional requirements is appointed as a Chairperson or a member of any SPCB or is presently continuing as such.
यह फैसला और निर्देश 2017 के अन्त तक जारी हुए थे। इन पर अमल 2018 में शुरू होना था। जयराम सरकार ने इन निर्देशों पर अमल करते हुए अध्यक्ष पद भरने के लिए विज्ञापन जारी करके आवेदन आमंत्रित किये थे। इस पर कई आवेदन आये हैं। लेकिन चार वर्षों में सरकार इनमें से कोई चयन नहीं कर पायी है। याचिका में यह आग्रह किया गया था कि इन पदों पर नियुक्तियां पांच-पांच वर्ष के लिये की जायें। लेकिन सरकार ने न तो यह नियम ही अब तक सार्वजनिक किये हैं और न ही आये हुये आवेदनों पर चार वर्ष में कोई फैसला लिया है। अब यह मामला फिर उच्च न्यायालय में पहुंच चुका है और माना जा रहा है कि शीर्ष अदालत प्रदेशों के मुख्य सचिवों को अदालत में कोई कड़े आदेश सुनायेगी। चर्चा है कि जयराम सरकार अभी पदोन्नत हुए मुख्य अभियंता प्रवीण गुप्ता को सदस्य सचिव के पद पर तैनात करना चाहती है और उसी के लिए सारी देरी की जा रही है।

क्या जयराम हटेंगे- महंगाई को हार का कारण बनाकर केंद्र के सिर ठीकरा फोड़ने से उठी चर्चा

चारों सीटें हारने से शैल के आकलन पर लगी जनता की मोहर

शिमला/शैल। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने उपचुनाव में मिली हार के लिये महंगाई को जिम्मेदार ठहरा कर गेंद केंद्र के पाले में डाल दी है। जयराम के ब्यान के बाद केंद्र के निर्देशों पर भाजपा शासित राज्यों में राज्य सरकारों द्वारा पेट्रोल-डीजल पर लगाये अपने करों में कटौती करके उपभोक्तओं को कुछ राहत भी प्रदान की है। इससे यह प्रमाणित हो जाता है की जनता में पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ने से भारी आक्रोश है। यह आक्रोश इस हार के रूप में सामने आया और इसके परिणाम स्वरूप कीमतों में कमी आ गयी। बल्कि अब जनता में यह चर्चा चल पड़ी है कि यदि इतनी सी हार से कीमतों में इतनी कटौती हो सकती है तो इसमें और कमी का प्रयोग किया जाना चाहिये। यह सही है कि जयराम के ब्यान के बाद ही यह सब कुछ घटा है। लेकिन क्या जयराम इसी से अपनी जिम्मेदारी से भाग सकते हैं? क्या राज्य सरकारों को उपचुनाव से पहले यह समझ ही नही आया कि महंगाई बर्दाश्त से बाहर हो रही है? उप चुनाव की घोषणा के साथ ही खाद्य तेलों की कीमतें बढ़ाकर क्या जयराम सरकार ने जनता के विवेक को चुनौती नहीं दी? प्रदेश की जनता ने चार नगर निगमों में से तीन में भाजपा को हराकर सुधरने की चुनौती दी थी और सरकार ने इस चुनौती का जवाब धर्मशाला नगर निगम में तोड़फोड़ करके दिया। तोड़-फोड़ की राजनीति को सफलता मान लिया गया। लेकिन जमीन पर काम नही कर पायी। हर काम केवल घोषणा तक सीमित होकर रह गया। जैसा कि केंद्र द्वारा घोषित 69 फोरलेन सड़कों की हकीकत आज भी सै(ांतिक संस्कृति से आगे नही सरक पायी है। युवाओं के लिये जब भी किसी विभाग में कोई नौकरियों की घोषणाएं की गई और प्रक्रिया शुरू की गयी तो ऐसी घोषणाएं भी एक ही बारी में अमली शक्ल नही ले पायी है। अधिकांश ऐसी घोषणाओं में कभी अदालत तो कभी किसी और कारण से व्यवधान आते ही रहे हैं। केंद्र की तर्ज पर राज्य सरकार भी घोषणाओं की सरकार बनकर रह गयी है। इन्हीं घोषणाओं के सिर पर सर्वश्रेष्ठता के कई पदक भी हासिल कर लिये हैं। इन्हीं कोरी घोषणाओं का परिणाम है कि आज 20 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान हुआ और हर एक में नोटा का प्रयोग हुआ। उपचुनावों में नोटा का प्रयोग होना सीधे सरकार से अप्रसन्नता का प्रमाण होता है। आने वाले विधानसभा चुनाव में यदि 68 विधानसभा क्षेत्रों में ही नोटा का प्रयोग हुआ तो परिणाम क्या हो सकते हैं इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं होगा।
2014 की लोकसभा 2017 की विधानसभा और 2019 के लोकसभा के चुनाव सभी केंद्र की सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़े और जीते गये हैं। इन सभी चुनाव में वीरभद्र और उनके परिजनों के खिलाफ बने आयकर ईडी और सीबीआई के मामलों को खूब उछाला गया। इस बार यह पहला उपचुनाव है जो राज्य सरकार के कामकाज और मुख्यमंत्री के चेहरे पर लड़ा गया। इस उपचुनाव में कांग्रेस के किसी नेता के खिलाफ कोई मामला मुद्दा नहीं बन पाया। बल्कि भाजपा के हर छोटे-बड़े नेता ने कांग्रेस को नेता वहीन संगठन करार दिया। कोविड में कांग्रेस द्वारा बारह करोड़ के खरीद बिल अपनी हाईकमान को भेजने के मामले को मुख्यमंत्री ने इन चुनावों में भी उछालने का प्रयास किया और जनता ने इसे हवा-हवाई मानकर नजरअंदाज कर दिया। ऐसे में यदि भाजपा की भाषा में नेता वहीन कांग्रेस ने जयराम सरकार को चार-शून्य पर उपचुनावों में ही पहुंचा दिया तो आम चुनाव में क्या 68-शून्य हो जाना किसी को हैरान कर पायेगा। इन उपचुनावों की पूरी जिम्मेदारी मुख्यमंत्रा और उनकी टीम पर थी। इस उपचुनाव में महंगाई और बेरोजगारी ही केंद्रीय मुद्दे रहे हैं। जो सरकार मंत्रिमंडल की हर बैठक में नौकरियों का पिटारा खोलती रही और मीडिया इसको बिना कोई सवाल पूछे प्रचारित करता रहा है उसका सच भी इन परिणामों से सामने आ जाता है। यह परिणाम मुख्यमंत्री और उनकी टीम के अतिरिक्त भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा पर भी सवाल खड़े करते हैं क्योंकि वह हिमाचल से ताल्लुक रखते हैं और दो बार प्रदेश में मंत्री भी रहे हैं।
इससे हटकर यदि शुद्ध व्यवहारिक राजनीति के आईने से आकलन करें तो पहला सवाल ये उठता है कि इस उपचुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार और प्रेम कुमार धूमल दोनों स्टार प्रचारकों की सूची में थे। लेकिन प्रेम कुमार धूमल एक दिन भी प्रचार पर नहीं निकले। शांता कुमार ने मंडी और अपने गृह जिला कांगड़ा की फतेहपुर सीट पर प्रचार किया। परिणाम दोनों जगह हार रहा। जनता ने शांता कुमार पर भी भरोसा नहीं किया। जनता ने शांता पर क्यों भरोसा नहीं किया और धूमल क्यों प्रचार पर नहीं निकले? इस पर जब नजर दौड़ायें तो सबसे पहले शांता की आत्मकथा सामने आती है। शांता ने भ्रष्टाचार को सरंक्षण देने के जो आरोप अपनी ही सरकार पर लगाये हैं क्या उनके बाद भी कोई आदमी भाजपा पर विश्वास कर पायेगा इन्हीं शांता कुमार ने इन उप चुनावों की पूर्व संध्या पर जब मानव भारती विश्वविद्यालय का फर्जी डिग्री कांड उठाया और आरोप लगाया कि डिग्रियां बिकती रही और सरकार सोयी रही। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर और डीजीपी संजय कुंडू ने इस बारे में बात करके यहां तक कह दिया कि जिनको जेल में होना चाहिये वह खुले घूम रहे हैं। क्या यह इशारा धूमल की ओर नहीं था। इस मामले में जब शैल ने दस्तावेज जनता के सामने रखते हुए यह पूछा कि जयराम सरकार ने इस मामले में एफ आई आर दर्ज करने में 2 साल की देरी क्यों कर दी। इस सवाल से सारा परिदृश्य बदल गया और सभी शांत हो गये। ऐसे में यदि धूमल प्रचार पर निकलते तो क्या इस हार को उनके सिर लगाया जाता?
इसी तरह इस उपचुनाव में उछले परिवारवाद के मुद्दे पर भी भाजपा अपने ही जाल में उलझ गयी। मण्डी और जुब्बल कोटखाई में परिवारवाद की परिभाषा बदल गयी। यही नहीं चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह का ब्यान सुरेश भारद्वाज और प्रदेश प्रभारी अविनाश खन्ना का सामने आया उसे सीधे इन नेताओं की नीयत ही सवालों में आ गयी। इन उपचुनावों में वह मामले तो उछले ही नहीं जो इनके ही लोगों द्वारा करवाई गई एफ.आई.आर. से उठे हैं। यदि कल को उन मामलों को लेकर कोई उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा देता है तो उसके परिणाम कितने भयानक होंगे उसका अंदाजा लगाना आसान नहीं होगा। क्योंकि उससे 68-शून्य होना कोई हैरानी नहीं होगी। आज उपचुनावों में मिली हार आने वाले समय में पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर भी घातक प्रमाणित होगी यह तह है। इस परिदृश्य में यह सवाल महत्वपूर्ण हो गया है कि प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन होता है या नहीं। कांग्रेस के लिए जयराम सबसे आसान टारगेट होंगे। क्योंकि जिस तरह के सलाहकारों और चाटुकारों से मुख्यमंत्री घिर गये है उनसे बाहर निकलना शायद अब संभव नहीं रह गया है। जितने मुद्दे जयराम ने अपने लिये खड़े कर लिये हैं वह स्वाभाविक रूप से आने वाले दिनों में एक-एक करके जनता के सामने आयेंगे। अब शायद अधिकारी भी मुख्यमंत्री या उनकी मित्र मंडली के आगे मूकबघिर बनकर डांस करने से परहेज करेंगे। क्योंकि यदि मुख्यमंत्री परिणामों के तुरंत बाद हार की नैतिक जिम्मेदारी लेकर पद त्यागने की पेशकश कर देते तो शायद उनके राजनीतिक कद में सुधार हो जाता। लेकिन सलाहकारों ने महंगाई पर ब्यान दिलाकर स्थिति को और बिगाड़ दिया है।

जन आक्रोश का परिणाम है कांग्रेस की यह जीत इसे बरकरार रखना होगा चुनौती

कुलदीप राठौर की अध्यक्षता में दूसरी बड़ी सफलता है यह जीत
इस जीत से बडे़ नेताओं में नेतृत्व को लेकर टकराव की संभावना भी बढ़ी

शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस को 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद 2019 के चुनावों तक जिस तरह की हार का सामना करना पड़ा है उस परिदृश्य में यह चारों उपचुनाव जीतकर उस हार की काफी हद तक भरपायी कर ली है । जीत की जो शुरुआत कांग्रेस ने दो नगर निगमें जीतकर की थी उसे टूटने नहीं दिया है यह प्रदेश नेतृत्व की एक बड़ी सफलता है। कांग्रेस इस जीत की कड़ी को कैसे आगे बढ़ाये रखती है यह नेतृत्व के लिए एक बड़ी चुनौती होगी और इसकी अगली परीक्षा नगर निगम शिमला के चुनाव होंगे। इस समय प्रदेश में कांग्रेस के अतिरिक्त भाजपा का और कोई कारगर विकल्प नहीं है इसलिए जनता की नाराजगी का स्वभाविक लाभ कांग्रेस को मिला है। कांग्रेस की इस जीत के लिए उसके अपने प्रयासों की बजाये जनता की नाराजगी का योगदान ज्यादा रहा है। क्योंकि जयराम सरकार के चार वर्ष के कार्यकाल में कांग्रेस का ऐसा कोई बड़ा काम नहीं रहा जिसने जनता का ध्यान अपनी ओर खींचा हो। बल्कि सच तो यह है कि इन चार वर्षों में कांग्रेस जयराम सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आरोप पत्रा तक नहीं ला पायी है। विधानसभा में उठे सवाल भी वॉक आउट से ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाये हैं। यदि बंगाल की हार से नरेंद्र मोदी के ग्राफ पर प्रश्न चिन्ह न लगता तो शायद कांग्रेस में बिखराव देखने को मिल जाता और हिमाचल भी उससे अछूता न रहता क्योंकि जी तेईस के ग्रुप में हिमाचल से भी कुछ बड़े नेता सक्रिय थे। बड़े-बड़े नाम चर्चा में आने लग गये थे। कई नेता चुनाव लड़ने से घबराने लग गये थे। लेकिन आज बंगाल की हार और बढ़ती महंगाई ने सारा राजनीतिक परिदृश्य बदल कर रख दिया है। यह परिस्थिति बहुत संवेदनशील है और इसमें भाजपा केंद्र से लेकर राज्यों तक कांग्रेस को कमजोर करने के लिए साम-दाम और दंड भेद के सारे खेल खेलने का प्रयास करेगी। इस प्रयास में सबसे पहला निशाना प्रदेश अध्यक्ष का पद होगा।
कुलदीप राठौर विधायक या सांसद नहीं रहे हैं क्योंकि उनके विधानसभा क्षेत्र में उनसे हर तरह से वरिष्ठ नेता मौजूद थे और चुनाव टिकट उनको मिलते रहे। लेकिन एनएसयूआई और युवा कांग्रेस से लेकर आज मुख्य संगठन के अध्यक्ष पद तक जो उनका राजनीतिक अनुभव है वह उनके किसी भी समकालिक से किसी भी तरह कम नहीं आंका जा सकता। बतौर प्रदेश अध्यक्ष हाईकमान उनकी राय को कम नहीं आंक सकता। क्योंकि इस समय उनकी अध्यक्षता में प्रदेश से लोकसभा में 8 वर्ष बाद कोई सदस्य जा रहा है। इन उप चुनावों से पहले दो नगर निगमों में भी उन्हीं की अध्यक्षता में सफलता मिली है। ऐसे में इस समय अध्यक्ष पद में बदलाव का कोई भी प्रयास कांग्रेस को कमजोर ही करेगा। इसलिए इस समय नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू और सीडब्ल्यूसी की सदस्य आशा कुमारी तथा वर्तमान अध्यक्ष कुलदीप राठौर जितनी एकजुटता का व्यवहारिक परिचय देंगे संगठन को उससे उतना ही लाभ मिलेगा।
इन उपचुनावों के लिए जिस तरह के चारों उम्मीदवारों का चयन किया गया और उसमें अर्की के अतिरिक्त कहीं भी बड़ा विरोध देखने को नहीं मिला तथा उस विरोध के खिलाफ पहले ही दिन कारवाई करके जो संदेश जनता में गया उससे भी संगठन को लाभ मिला। अन्यथा जब मंडी में कुलदीप राठौर ने प्रतिभा सिंह की उम्मीदवारी के संकेत दिए थे तब उस पर पंडित सुखराम की यह प्रतिक्रिया जब आयी की उम्मीदवारी तय करने वाला राठौर कौन होता है यह फैसला तो हाईकमान करता है। उससे नकारात्मक संकेत उभरने शुरू हो गए थे जिन पर दोनों प्रभारियों ने कंट्रोल कर लिया। लेकिन क्या आगे भी इसी सबसे काम चल जायेगा यह सवाल अब बड़ा होकर उभरने लगा है। क्योंकि केंद्र ने एक ही हार के बाद भाजपा शासित राज्यों में वैट में कटौती कराकर कीमतें कम करने का पहला कदम उठा लिया है। आने वाले दिनों में ऐसे और भी कई कदम देखने को मिलेंगे। इसलिए जिन मुद्दों को उठाकर 2014 में भाजपा ने सत्ता छिनी थी आज उन्हीं मुद्दों पर पलटकर भाजपा और नरेंद्र मोदी को घेरना होगा और इसके लिए प्रमाणिक तथ्यों के साथ हमलावर होना होगा। आज भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा हिमाचल से ताल्लुक रखते हैं प्रदेश में दो बार मंत्री रहे चुके हैं। क्या उनको घेरने की शुरुआत हिमाचल से नहीं होनी चाहिये? अनुराग ठाकुर को तो एक समय जयराम के मंत्री गोविन्द ठाकुर ने ही घेर दिया था। परंतु प्रदेश कांग्रेस इन बिन्दुओं पर आज तक खामोश है। पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ सदस्य पूर्व केंद्रीय मंत्री शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा में भ्रष्टाचार के मुद्दों पर जिस तरह से अपनी ही सरकार की कथनी और करनी को नंगा किया है उस पर भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर घेरा जा सकता है। लेकिन प्रदेश कांग्रेस के किसी भी नेता द्वारा इन मुद्दों को छुआ तक नहीं गया है। ऐसे अनेकों मामले हैं जिन पर भाजपा के पास कोई जवाब नहीं है। लेकिन प्रदेश कांग्रेस ऐसे मुद्दों को उठाने से जिस तरह से बचती आ रही है उससे प्रदेश कांग्रेस की नीयत और नीति दोनों पर शंकाएं भी उठना शुरू हो गयी हैं जो आगे चलकर नुकसान देह होगी।
क्योंकि आज वीरभद्र सिंह के निधन के बाद सही में कुछ नेताओं की महत्वकांक्षाएं जिस तरह से सामने आने लग गयी है उससे यही प्रमाणित हो रहा है कि निकट भविष्य में कांग्रेस के अंदर नेतृत्व का प्रश्न ही कहीं चुनाव से भी बड़ा ना हो जाये। क्योंकि कांगड़ा में स्व.जी.एस.बाली को श्रद्धांजलि देने के लिए रखी गयी सभा में कांगड़ा जिले के ही कई बड़े नेताओं का ना आना जनता की नजर से छुप नहीं पाया है। यही नहीं कुछ बड़े नेताओं का आनंद शर्मा के साथ ही इस सभा से चले जाना भी कई सवाल खड़े कर जाता है। यदि समय रहते इस सुलगने लगी चिंगारी को शांत नहीं किया गया तो यह कभी भी ज्वाला बन कर सबसे पहले अपने ही घर को जलाने से परहेज नहीं करेगी। इसमें प्रतिभा सिंह की जिम्मेदारी और भी बड़ी हो जाती है क्योंकि वह दो बार सांसद रह चुकी है और इस बार जिस तरह से उन्होंने ब्रिगेडियर खुशहाल सिंह और पूरी जयराम सरकार को मात दी है उससे जनता की उम्मीदें उनसे और बढ़ गई हैं। इस समय जो तीन नवनिर्वाचित विधायक रोहित ठाकुर, भवानी पठानिया और संजय अवस्थी पूरी सरकार की ताकत को मात देकर आये हैं जहां वह प्रशंसा और बधाई के पात्र हैं वहीं पर उनकी यह जिम्मेदारी भी होगी कि वह प्रदेश नेतृत्व से ऐसी परिस्थितियों में सवाल पूछने से भी गुरेज ना करें।

क्या एक तरफा होंगे इन उपचुनावों के परिणाम

शिमला/शैल। इन उप चुनावों का परिणाम क्या होगा उसका भाजपा और कांग्रेस की अपनी-अपनी राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? यह सवाल इस उपचुनाव के विश्लेषण के मुख्य बिन्दु होंगे। क्योंकि यदि भाजपा इसमें हारती है तो भी उसकी सरकार पर इसका कोई असर नहीं होगा। हां यदि भाजपा जीत जाती है तो यह उसकी नीतियों की जन स्वीकारोक्ति होगी और इसके बाद जनता को महंगाई बेरोजगारी तथा भ्रष्टाचार पर कोई आपत्ति करने का हक नहीं रह जायेगा। दूसरी और यदि कांग्रेस हारती है तो उसके नेतृत्व के अक्षम होने पर और मोहर लग जायेगी। यदि कांग्रेस जीतती है तो जनता को भविष्य के लिए एक आस बंध जायेगी। महंगाई और बेरोजगारी पर रोक लगने की उम्मीद जग जायेगी। यह उपचुनाव कांग्रेस भाजपा की बजाये जनता की अपनी समझ की परीक्षा ज्यादा होगी। क्योंकि आज सरकार के पक्ष में ऐसा कुछ नही है जिसके लिये उसे समर्थन दिया जाये। हां यह अवश्य है कि उपचुनाव के परिणाम मुख्यमंत्री और उनकी सलाहकार मित्र मण्डली की व्यक्तिगत कसौटी माने जायेंगे। राम मंदिर निर्माण तीन तलाक और 370 खत्म करने की सारी उपलब्धियां महंगाई और बेरोजगारी में ऐसी दब गयी हैं कि उपलब्धि की बजाये कमजोर पक्ष बन चुके हैं। जनता का रोष यदि कोई पैमाना है तो यह परिणाम एक तरफा होने की ओर ज्यादा बढ़ रहे हैं। क्योंकि इन चुनावों में ‘‘भगवां पटका-बनाम भगवां पटका’’ जिस तरह से फतेहपुर और जुब्बल कोटखाई में सामने आया है उससे पार्टी के चाल चरित्र और चेहरे पर ही ऐसे सवाल उठ खड़े हुए हैं जिनसे विश्वसनीयता ही सवालों में आ जाती है।

मंडी मुख्यमंत्री का गृह जिला है कांग्रेस विधानसभा की दसों सीटें हार चुकी है और लोकसभा भाजपा ने चार लाख के अंतर से जीती है। आज इसी मुख्यमंत्री के अपने विधानसभा क्षेत्र में चौदह हेलीपैड बनाये जाने का आरोप लगा है और इस मामले में कोई भी इसके पक्ष में नहीं आया है। फोरलेन प्रभावितों का मुद्दा आज भी जस का तस है। ऊपर से बल्ह में प्रस्तावित हवाई अड्डे से यहां के लोगों की हवाईयां उड़ी हुई हैं। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है कि वह मंडी से मुख्यमंत्री के होने को वरदान माने या अभिशाप। मंडी शहर के बीच स्थित विजय माध्यमिक विद्यालय के प्रांगण में शॉपिंग मॉल का निर्माण और वह भी तब जबकि बच्चों की याचिका उच्च न्यायालय में लंबित है इससे क्या संदेश जायेगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। मंडी में सड़कों की हालत सुंदरनगर से मंडी तक के गड्डे ही ब्यान कर देते हैं। शिवधाम प्रोजेक्ट पर अभी काम तक शुरू नहीं हो पाया है। इस जमीनी हकीकत का चुनाव पर क्या असर पड़ेगा यह अंदाजा लगाया जा सकता है। कुल्लू में देव संसद की नाराजगी नजरानें के मुद्दे पर सामने आ गयी है। लाहौल स्पीति में मंत्री का अपने ही क्षेत्र में घेराव हो चुका है। एस टी मोर्चा के पदाधिकारी के साथ मंत्री का झगड़ा सार्वजनिक हो चुका है। किन्नौर की त्रासदी ने प्रशासन और पर्यावरण से छेड़छाड़ को जिस तरह से मुद्दा बनाया गया है उसके परिणाम दुरगामी होंगे। इन बिंदुओं को सामने रखकर मंडी सीट का आकलन कोई भी कर सकता है। फतेहपुर में खरीद केंद्र को लेकर भाजपा प्रत्याशी का घेराव हो चुका है। जिस तरह के पोस्टर लगाकर कृपाल परमार का टिकट काटा गया था वैसे ही पोस्टर उम्मीदवार के खिलाफ भी आ चुके हैं। जिस मंत्री को फतेहपुर की कमान दी गयी है उस मंत्री के बेटे के खिलाफ बने मामले ने मंत्री की धार को कुंद करके रख दिया है। कोटखाई जुब्बल में तो यही स्पष्ट नहीं हो पाया है कि बरागटा और उनके समर्थकों का विद्रोह प्रदेश नेतृत्व के खिलाफ है या केंद्रीय नेतृत्व के। फिर सेब का सवाल अपनी जगह खड़ा ही है। इन दोनों क्षेत्रों में भगवां बनाम भगवां होने से भाजपा की कठिनाईं ज्यादा बढ़ गयी है। अर्की में कांग्रेस उम्मीदवार के खिलाफ जब अदालत में लंबित मुद्दों को उठाने का प्रयास किया गया और उसका जबाव लीगल नोटिस जारी करके दिये जाने से मुद्दे उठाने वाले ही कमजोर हुये हैं। क्योंकि भाजपा प्रत्याशी के खिलाफ क्षेत्र के टमाटर उत्पादकों में ही रोष है। अब इस रोष को कांग्रेस को तालिबान से जोड़कर दबाने का प्रयास किया जा रहा है परंतु इसका जबाव सोलन में एक भाजपा नेता की गाड़ी से एक समय चिट्टा पकड़े जाने से दिया जा रहा है। इस प्रकरण में पुलिस ने नेता के ड्राइवर के खिलाफ तो मामला बना दिया था परंतु नेता की गाड़ी को छोड़ दिया गया था। इस कांड का वीडियो भी वायरल हो चुका है। इन मुद्दों के आने से अर्की में भी समीकरण बदलने शुरू हो गये हैं।

उपचुनाव में भ्रष्टाचार पर खामोशी क्यों ? क्या कोई राजनीतिक सहमति है

शिमला/शैल। क्या भ्रष्टाचार पर चुप रहने के लिए राजनीतिक दलों में कोई आपसी सहमति बन गयी है। यह सवाल अब जनता में उठने लग पड़ा है। क्योंकि इस उपचुनाव में कोई भी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार पर बात नहीं कर रहा है। जबकि महंगाई और बेरोजगारी सिर्फ भ्रष्टाचार की ही देन होते हैं। भाजपा जब विपक्ष में थी तब कांग्रेस की सरकार के खिलाफ कई आरोप पत्र लाये गये थे। लेकिन जयराम सरकार के अब तक के कार्यकाल में उन आरोप पत्रों पर कोई कार्यवाही सामने नहीं आ पाई है। शायद यही कारण है कि कांग्रेस ने भी अभी तक कोई आरोप पत्र सरकार के खिलाफ जारी नहीं किया है। कुछ हल्कों में यह तर्क दिया जा रहा है कि कोविड के कारण जब सारा कामकाज भी बंद था तो फिर भ्रष्टाचार होने की कोई संभावना ही नहीं बची थी। लेकिन यह लोग भूल रहे हैं कि कोविड के कारण लॉकडाउन 24 मार्च 2020 को हुआ था और इस सरकार ने सत्ता 2018 जनवरी में संभाली थी। सत्ता संभालने से लेकर लॉकडाउन लगने तक 2019 का लोकसभा चुनाव भी हुआ है। इस चुनाव से पहले ही 2018 से ही प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना शुरू हो गई थी। इस योजना के तहत ‘‘59 मिनट में एक करोड़ ले जाओ’’ किया गया था। हिमाचल सरकार ने इस योजना के तहत 2541 करोड़ का ट्टण बांटा है । 2020 के आर्थिक सर्वेक्षण में यह एक बड़ी उपलब्धि के रूप में दर्ज है। यह योजना भी 2019 में ही समाप्त हो गयी थी। यह जो ऋण बांटा गया था यह सार्वजनिक धन है। इसलिए इस धन का कितना सदुपयोग हुआ है इसमें कितने उद्योग लगे हैं कितना रोजगार पैदा हुआ है इस ऋण में से कितना वापस आया है। कितने लोग नियमित किस्तें दे रहे हैं। इन सवालों के जवाब जानना प्रदेश की जनता का हक है क्योंकि यह उनका पैसा है। लेकिन यह जानकारी तभी सामने आयेगी जब विपक्ष सदन में यह सवाल पूछेगा और विपक्ष ने इस बारे में एक बार भी सवाल नहीं उठाया है। जबकि चर्चा है कि इस ऋण का अधिकांश एनपीए होकर बैड लोन हो चुका है। यही नहीं जिस कोविड के कारण लॉकडाउन हुआ और सारी गतिविधियां शुन्य हो गयी थी उसी कोविड के नाम पर आपदा प्रबंधन में जो खर्च हुआ है आज शायद उस खर्च के हिसाब किताब के वांछित दस्तावेज ही उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। कोविड की रोकथाम के लिए स्थापित किए गए क्वारेन्टिन केंद्रों की अधिसूचना और इन केंद्रों में रखे गए संक्रमितों तथा उन पर हुए खर्च के दस्तावेज भी उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। यह सारा खर्च आपदा प्रबंधन के नाम पर किया गया है। सूत्रों के मुताबिक आपदा प्रबंधन में जब इस खर्च की समीक्षा की जाने लगी तब इन दस्तावेजों की आवश्यकता हुई और यह नहीं मिल पाये हैं। आपदा प्रबंधन ने इस संबंध में जिलों को एक कड़ा पत्र भी लिखा है और इसका पूरा लेखा तैयार करने के लिए ए.जी. की टीम को भी बुला लिया गया है। कोविड के नाम पर हुये इस करोड़ों के खर्च पर गंभीर प्रश्न खड़े हो गये हैं। परंतु विपक्ष इस पर भी मौन है। इसी तरह इस सरकार को सर्वोच्च न्यायालय में भी कई मामलों में गंभीरता ना दिखाने के लिए जुर्माने लग चुके हैं। कई मामलों में तो इसके लिए जिम्मेदार अधिकारियों से यह जुर्माना वसूलने के आदेश हैं। जब भी किसी विभाग की लापरवाही के लिए सर्वोच्च न्यायालय जुर्माना लगता है तो कायदे से सरकार संबद्ध अधिकारी से जवाब मांगती है। लेकिन इस सरकार में आज तक एक भी मामले में ऐसी कारवाई नहीं हो पायी है। यही नहीं करीब आधा दर्जन ऐसे मामले हैं जिनमें अदालतों के फैसलों पर अमल नहीं किया गया है और यह सारे मामले भ्रष्टाचार से जुड़े हुए हैं। ऐसे मामलों में कोई कार्यवाही ना किया जाना और इन पर विपक्ष के खामोश रहने को ही शायद सरकार विकास मान रही है। वैसे आज तक प्रदेश में कोई भी सरकार विकास के नाम पर चुनाव नहीं जीत पायी है। हर चुनाव में भ्रष्टाचार केंद्रीय मुद्दा रहा है। इस उपचुनाव में भ्रष्टाचार पर कांग्रेस-भाजपा दोनों का बराबर चुप रहना है क्या गुल खिलायेगा यह देखना रोचक होगा। 

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