शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस विधायक राजेन्द्र राणा के एक प्रश्न के जवाब में आयी जानकारी के मुताबिक सरकार के विभिन्न विभागों में संदिग्ध आचरण वाले 64 अधिकारी कार्यरत हैं। इस सूची में पुलिस, स्वास्थ्य, आयुर्वेद और पशुपालन आदि विभागों के कई अधिकारी शामिल हैं। लेकिन इस सूची में किसी भी आई ए एस अधिकारी का नाम शामिल नहीं है। जबकि सरकार के प्रधान सचिव वित्त प्रबोध सक्सेना चिंदम्बरम प्रकरण में जमानत पर हैं और उनके खिलाफ सीबीआई अदालत मे दिल्ली में चालान दायर हो चुका है। मामले में ट्रायल चल रहा है। इस संद्धर्भ में राज्य सरकार ने शायद यह तर्क ले रखा है कि उन्हें सीबीआई के मामले की जानकारी नही है। सक्सेना चिदम्बरम के साथ सहअभियुक्त हैं और इस प्रकरण की जानकारी देश के हर आदमी को है। क्योंकि चिदम्बरम प्रकरण मोदी-शाह की प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है। देश की राजनीति का बहुत कुछ इस मामले पर निर्भर करता है। ऐसे में राज्य सरकार को अपने ही अधिकारी के बारे में यह जानकारी न हो यह कैसे संभव हो सकता है। आज जिन अधिकारियों के नाम संदिग्ध आचरण की सूची में आये हैं उनमें यह मामला विशेष चर्चा का विषय बना हुआ है। सरकार की नीयत और नीति पर गंभीर सवाल उठने लग पड़े हैं।
संदिग्ध आचरण के अधिकारियों को चिन्हित करने और उन पर नजर रखने की चिन्ता संसद में 1961 में व्यक्त की गयी थी। 10 अगस्त 1961 को लोकसभा और 24 अगस्त को राज्यसभा में इस आश्य के प्रस्ताव लाये गये थे। यह प्रस्ताव पारित होने के संबंध में यह स्कीम तैयार की गयी थी The list will be termed as the list of public servants of gazetted status of doubtful integrity, It will include names of those officers only who, after enquiry or during the course of enquiry, have been found to be lacking in integrity. It will thus include the names of the officers, with certain exceptions mentioned below, falling under one of the following categories.
Convicted in a court of law on a charge of lack of integrity or for an offence involving moral turpitude but on whom, in view of exceptional circumstances, a penalty other than dismissal, removal or compulsory retirement is imposed.
Awarded departmentally in major penalty (a) on charges of lack of integrity (b) on charges of gross dereliction of duty in protecting the interests of Govt. although the corrupt motive may not be capable of proof.
(iii) Against whom proceedings for a major penalty or a court trial are in process for alleged acts of involving lack of integrity or moral turpitude.
(iv) Who were prosecuted but acquitted on technical grounds, and on whose case on the basis of evidence during the trial there remained a reasonable suspicion against their integrity.
संदिग्ध आचरण के अधिकारियों को लेकर प्रदेश सरकार कई बार विभागीय सचिवों को इस बारे में निर्देश जारी का चुकी है। प्रदेश उच्च न्यायालय ने CWP 4916/2010 शेर सिंह बनाम स्टे्ट आॅफ हिमाचल प्रदेश में सरकार पर अपनी नाराज़गी भी प्रकट की थी। इसके बाद 23 अप्रैल 2011 को गृह विभाग द्वारा सारे प्रशासनिक सचिवों को पत्र भी जारी किया गया था। लेकिन व्यवहार में ऐसे मामलों में कैसा आचरण किया जाता है वह सक्सेना प्रकरण से स्पष्ट हो जाता है। सरकार के इस तरह के पक्षपात-पूर्ण आचरण से सरकार की नीयत पर आरोप आने शुरू हो जाते हैं। इसका प्रभाव नीचे तक पड़ता है।
शिमला/शैल। जयराम सरकार को सत्ता में आये दो वर्ष हो गये हैं सरकार ने सत्ता में आते ही प्रदेश लोक सेवा आयोग और अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड में कुछ बदलाव किये थे। लोकसेवा आयोग में तो दो नये पद सृजित किये गये थे परन्तु भरा उनमें से एक ही गया था। लोक सेवा आयोग की कार्य प्रणाली पर मुख्यमंत्री ने लम्बे आंकड़े सदन में रखते हुए गंभीर सवाल खड़े किये थे। इन सवालों से यह संदेश उभरा था कि इस सरकार में भर्तीयों के मामले में पारदर्शिता और सतर्कता दोनों पर ध्यान केन्द्रित रहेगा। पूर्व में घट चुके चिट्टों पर भर्ती जैसे मामले पुनः दोहराये नही जायेंगे। लेकिन इन जनापेक्षाओं पर यह सरकार खरी नही उतरी है।
इस सरकार में सबसे पहले पुलिस में भर्तीयां हुई। इन भर्तीयों में युवाओं को परीक्षा पास करने के बाद भर्ती किया गया। नियुक्ति पत्र मिलने के बाद ज्वाईनिंग हो गयी। भर्ती की प्रक्रिया काफी लंबी चली थी लेकिन प्रक्रिया के दौरान एक ही आरोप लगा कि बहुत सारे युवाओं के नाम भर्ती के लिये जारी हुए आनलाईन पोर्टल में आयी गड़बड़ी के कारण परीक्षा केन्द्रों में मिले ही नही थे। हजारों की संख्या में छात्र परीक्षा में बैठ नही पाये थे। यह प्रकरण भी जांच का विषय बना जिसका कोई परिणाम सामने नही आया है। इसी परिदृश्य में परीक्षा हो गयी और परीक्षा के दौरान कहीं किसी को शक नही हुआ कि ए के स्थान पर बी ही ए बनकर परीक्षा दे रहा है। जबकि हर परीक्षा में यह सामान्य नियम रहता है कि हाल के अन्दर उसी परीक्षार्थी को प्रवेश दिया जाता है जिसके पास पहचान के पूरे प्रमाण होते हैं। लेकिन अब आयी शिकायतों में यह सामने आया है कि मूल छात्रों के स्थान पर कोई और ही परीक्षा देकर चला गया। ऐसे घोटाले के कुछ लाभार्थीयों की गिरफ्तारीयां तक हो चुकी हैं। क्या इसमें उन लोगों की जिम्मेदरारी नही आती है जो परीक्षा के संचालन में लगे हुए थे? ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि संचालन में लगे लोगों को इसकी जानकारी ही न रही हो।
पुलिस भर्तीयों के बाद पटवारीयों की भर्ती हुई। यह मामला उच्च न्यायालय ने जांच के लिये सीबीआई को सौंप दिया है। इसमें आरोप लगा है कि इसकी परीक्षा में वही प्रश्न डाल दिय गये जो पहले जेबीटी के लिये डाले गये थे। जेबीटी और पटवारी दोनों के लिये न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता एक बराबर है। ऐसे में यह बहुत संभव है कि जो बच्चे पहले जेबीटी की परीक्षा में बैठे हों उन्ही में से कुछ जो उसमें सफल नही हो सके हों वह पटवारी परीक्षा में बैठे हों और उन्हें परीक्षा में इसका स्वभाविक रूप से लाभ मिल गया हो। लेकिन इसमें मूल प्रश्न यह उठता है कि पटवारी और जेबीटी दो अलग-अलग क्षेत्र हैं। इनमें एक जैसा ही प्रश्नपत्र डाल दिया जाना क्या स्वभाविक हो सकता है शायद नहीं। यह अपने में एक गंभीर विषय बन जाता है क्योंकि यह तभी संभव हो सकता है यदि जिसने पटवारी की परीक्षा का प्रश्न पत्र डाला हो उसी का कोई अपना पहले जेबीटी की परीक्षा में बैठा हो और उसके माध्यम से उसे जेबीटी का प्रश्नपत्र मिल गया हो और उसने उसी प्रश्नपत्र के सवाल पटवारी परीक्षा के लिये डाल दिये हों। अभी इस जांच की कोई रिपोर्ट सामने आयी नही है।
इसके बाद फरवरी में काॅलिज के हिन्दी प्रवक्ताओं के लिये परीक्षा हुई। अब इस परीक्षा के परिणाम भी रद्द कर दिये गये हैं। इसमें यह आरोप लगा है कि इस परीक्षा के प्रश्नपत्र में भी वही प्रश्न डाल दिये गये जो इससे पहले हो चुकी जिला भाषा अधिकारियों की परीक्षा में डाले गये थे। इस संद्धर्भ में भी वही तरीका अपनाया गया जो पटवारीयों की परीक्षा में अपनाया गया था। इस संद्धर्भ में जब सचिव प्रदेश सेवा आयोग के पास शिकायत पहुंची तब उन्होंने प्रवक्ताओं की परीक्षा को रद्द कर दिया है। लेकिन परीक्षा रद्द करने के साथ ही इस बारे में कोई जांच भी करवाये जाने की जानकारी अभी तक सामने नही आयी है।
प्रदेश में हुई इन तीन परीक्षाओं में से दो में एक जैसा फार्मूला अपनाया गया है। जो सवाल पहले किसी परीक्षा में पूछे गये हैं वही सवाल दूसरी परीक्षा में भी पूछ लिये गये। नियमानुसार इसमें कोई गलती नही है कि जो प्रश्न एक परीक्षा में पूछेे गये हैं वही प्रश्न दूसरी परीक्षा में नहीं पूछे जा सकते। क्योंकि जब दोनों परीक्षाओं के लिये मूल शैक्षणिक योग्यता एक जैसी ही है तो ऐसा हो सकता है। इसमें घपला तब नहीं हो सकता जब दोनों परीक्षाएं एक ही दिन हो रही हों। लेकिन जब परीक्षायें दो अलग-अलग दिन हो रही हों तो इसका लाभ बाद की परीक्षा में मिलना स्वभाविक है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इसकी जांच में यह सब एक संयोग निकलता है या इसके पीछे कोई सुनियोजित योजना रही है।
शिमला/शैल। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष डाॅ. बिन्दल के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद खाली हुये स्पीकर के पद को सत्र के शुरू में ही भरा जाना आवश्यक था और इसके लिये स्वास्थ्य मंत्री विपिन सिंह परमार का नाम आ गया है। स्पीकर के लिये जो नाम चर्चा में आये थे उनमें परमार का नाम ज्यादा नही था। लेकिन शैल का आकलन था कि स्पीकर के लिये अन्ततः किसी मंत्री का ही नाम आयेगा। इस कड़ी में शैल ने विक्रम ठाकुर, विपिन परमार और गोबिन्द ठाकुर के नामों की चर्चा की थी। इस चर्चा का आधार था कि जयराम के ये तीनों मंत्री किसी न किसी कारण से पत्र बम्बों की चर्चा का विषय बन गये थे। प्रशासन और राजनितिके विश्लेषक जानते हैं कि जब भी कोई मंत्री या दूसरा नेता ऐसी चर्चा का केन्द्र बन जाता है तो राज्य और केन्द्र की सारी ऐजैन्सीयां इसकी पड़ताल में लग जाती हैं। क्योंकि विपक्ष सरकार को इन्ही हथियारों के माध्यम से घेरता है।
विपिन परमार को लेकर जो विवाद उठा था उसमें जब सरकार ने उस पत्र बम्ब की जांच करवाने के लिये एक माध्यम से एफ आई आर करवा दी और उसमें पूर्व मंत्री रविन्द्र रवि का फोन जब्त कर लिया गया और डी एस पी चम्बा ने अखबारों से यह पूछना शुरू कर दिया कि उन्होने वायरल हुए पत्र को किसके कहने से छाप दिया तब यह अपने आप की स्पष्ट हो गया था कि पत्र में लगे आरोपों का कोई बड़ा आधार है। डी एस पी ने शैल से भी यह जानकारी मांगी थी क्योंकि शैल में यह वायरल पत्र छपा था। राजनीति के विश्लेषक जानते हैं कि जब प्रशासनिक स्तर पर इस तरह के फैसले ले लिये जाते हैं तो उनका परिणाम राजनीतिक फैसलों के माध्यम से ही सामने आता है। शायद इस बार विपक्ष और भाजपा के भी कुछ विधायकों ने इन विषयों पर सवाल उठाये हैं। माना जा रहा है कि जब यह सारी जानकारी केन्द्र सरकार और हाईकमान तक पहुंची तब यह राजनीतिक फैसला लिया गया।
स्पीकर के लिये मुख्यमंत्री कर्नल इन्द्र सिंह के पक्ष में थे और बिन्दल के नाम से राजीव सैजल का नाम चर्चा में आया था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि स्पीकर के लिये विपिन परमार के नाम का कोई भी आभास मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष बिन्दल तक को नही था। अब परमार के स्पीकर बन जाने पर मंत्री का एक और पद खाली हो जाता है। मंत्री के दो पद कांगड़ा से खाली हो गये हैं और एक मण्डी से। लेकिन पदों को कब भरा जायेगा और कौन होंगे मंत्री बनने वाले विधायक इस पर अभी फैसला नही हो पाया है। इस समय हमीरपुर, बिलासपुर और सिरमौर से कोई मंत्री नही है। कांगड़ा से भी अकेली सरवीण चौधरी ही मंत्री रह गयी है। क्योंकि विक्रम ठाकुर कांगड़ा के साथ ही हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में गिने जाते हैं। इस क्षेत्र से ही विरेन्द्र कंवर और महेन्द्र सिंह ठाकुर आते हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि शायद हमीरपुर और बिलासपुर को प्रतिनिधित्व न मिल सके। इस समय कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से एक, मण्डी से दो और शिमला से भी दो ही मंत्री हैं। ऐसे में कुल 12 मन्त्रियों में क्या हर के संसदीय क्षेत्र से तीन तीन ऐसे मंत्री हो पाते है या नही । सरकार और संगठन यह तालमेल कैसे बिठा पाते हैं यह देखना महत्वपूर्ण होगा। माना जा रहा है कि अभी राकेश पठानिया के अतिरिक्त और कोई भी नाम मंत्री पद के लिये फाईनल नही हो पाया है। रमेश धवाला, नरेन्द्र बरागटा और सुखराम चौधरी आदि के नाम अभी चर्चा से बाहर ही माने जा रहे हैं। संभव है कि अभी एक ही मंत्री पद भरकर काम चला लिया जाये।
शिमला/शैल।क्या मुख्यमन्त्री जयराम अपने मन्त्रीमण्डल के दो खाली पदों को विधानसभा सत्र से पहले भर लेंगे? क्या सरकार धर्मशाला प्रवास पर जायेगी और अगला विधानसभा अध्यक्ष कौन होगा। यह सवाल इन दिनों सचिवालय के गलियारों से लेकर सड़क तक हर जगह चर्चा में सुने जा सकते हैं। यह चर्चा इसलिये उठ रही है क्योंकि पिछले वर्ष मई में हुए लोकसभा चुनावों के परिणाम स्वरूप मन्त्रीमण्डल में दो पद खाली हुए थे जो अभी तक भरे नही गये हैं। अब डाॅ. बिन्दल के विधानसभा अध्यक्ष पद छोड़कर पार्टी अध्यक्ष बनने के कारण स्पीकर का पद भी खाली हो गया है। आगे बजट सत्र आना है इसलिये नये अध्यक्ष का चुनाव अनिवार्य हो गया है और इसके लिये चयन की तारीख भी तय हो गयी है। ऐसे में यह सवाल चर्चित होना स्वभाविक है कि अगला अध्यक्ष कौन होगा और जब अध्यक्ष का चयन होना ही है तो क्या उसी के साथ मन्त्री पदों को भी भर लिया जायेगा या नही। इन्ही सवालों के साथ मुख्यमन्त्री का धर्मशाला प्रवास होना या न होना एक मुद्दा बन गया है। क्योंकि धर्मशाला में विधानसभा भवन बनने और धर्मशाला को प्रदेश की दूसरी राजधानी घोषित करने के बाद जनता में इसके औचित्य पर सवाल उठे हैं। यहां तक कि कांग्रेस-भाजपा के कई बड़े नेताओं ने ईमानदारी से यह स्वीकारा है कि यह सब फिजूल खर्ची है और इसे बन्द कर दिया जाना चाहिये। क्योंकि वर्ष में एक सप्ताह के लिये वहां पर विधानसभा सत्र आयोजित करना और मुख्यमन्त्री द्वारा वहां से पन्द्रह दिन या एक महीना बैठकर सरकार चलाने का सही में कोई औचित्य नही बनता। फिर अब जब दिल्ली चुनावों के लिये प्रदेश की पूरी सरकार मुख्यमन्त्री और उनके मन्त्री तथा विधायक भी करीब एक माह के लिये प्रदेश से बाहर थे तब भी प्रशासन सुचारू रूप से चल रहा था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार ईच्छा शक्ति से चलती है इसके लिये ऐसे प्रवासों की आवश्यकता नही होती है। फिर दूसरा बड़ा सवाल प्रदेश के आर्थिक साधनों का आ जाता है और वहां स्थिति यह है कि जब जयराम सरकार ने पदभार संभाला था तब प्रदेश पर 46000 करोड़ से थोड़ा अधिक का कर्ज था जो अब बढ़कर 53000 करोड़ हो गया है। इस कर्ज की स्थिति को सामने रखते हुए सरकार को सारे अनुत्पादक खर्चो पर रोक लगाने की आवश्यकता हो जाती है और इसमें धर्मशाला में सरकार का प्रवास और वहां एक सप्ताह के लिये विधानसभा का सत्र आयोजित करना हर गणित से अनुत्पादक खर्चा ही बनता है। इस खर्चे पर रोक लगाना मुख्यमन्त्री का ही दायित्व है और उनकी सूझबूझ का भी यह परिचायक बन जाता है। इससे हट कर विधानसभा अध्यक्ष का चयन और मन्त्री पदों को भरना सीधे राजनीतिक प्रश्न बन जाते हैं। विधानसभा अध्यक्ष का चयन टाला नही जा सकता है यह तय है। विधानसभा अध्यक्ष के लिये वरीयता और अनुभव दोनों एक साथ आवश्यक हैं। वैसे तो कायदे से विधानसभा उपाध्यक्ष को ही अध्यक्ष बना दिया जाना चाहिये क्योंकि उसे अब तक दो वर्ष का अनुभव हो गया है। उपाध्यक्ष के बाद वरीयता के दायरे में वर्तमान और पूर्व मन्त्री आते हैं। इस समय सदन में दो पूर्व मन्त्री नरेन्द्र बरागटा और रमेश धवाला हैं जो जयराम की इस टीम में मन्त्री नही बन पाये हैं। इन दोनों को अब मन्त्रीमण्डल या स्पीकर के लिये रखा जाता है या नही यह राजनितिक दृष्टि से बड़ा सवाल होगा। डाॅ. बिन्दल के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद अब डाॅ. सैजल का नाम भी स्पीकर के लिये चर्चा में आ गया है और इसे बिन्दल की पसन्द माना जा रहा है। यदि ऐसा है तो अध्यक्ष नाते सैजल को स्पीकर बनवाना बिन्दल का पहला राजनीतिक फैसला होगा। इस फैसले को सिरे चढ़ाना पार्टी और हाईकमान में उनकी पकड़ की पहली परीक्षा होगा और इसमें असफल होने का जोखिम वह नही ले सकते। माना जा रहा है कि स्पीकर के चयन में जयराम बिन्दल की अनुशंसा का विरोध नही करेंगे।
यदि सैजल स्पीकर बन जाते हैं तो एक और मन्त्री पद खाली हो जाता है। ऐसे में जब तीन मन्त्री पद भरने के लिये उपलब्ध हो जाते हैं तो इन्हें तीनों सत्ता केन्द्र आपस में एक-एक बांट सकेंगे। मुख्यमन्त्री के साथ ही अब पार्टी अध्यक्ष बिन्दल भी स्वभाविक रूप से सत्ता केन्द्र हो गये हैं। अगले चुनाव उनकी भी परीक्षा होंगे। ऐसे में सरकार के हर नीतिगत फैसलें में उनका दखल बनता है और रहेगा भी। परन्तु जयराम और बिन्दल के साथ ही इस समय संयोगवश पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और केन्द्रिय वित्त राज्य मन्त्री अनुराग ठाकुर दोनों ही हिमाचल से हैं। इस नाते इन दोनों की नजर और दखल भी प्रदेश की सरकार तथा राजनीति पर बराबर बनी रहेगी। मन्त्री पद भरने और पार्टी के पदाधिकारियों के चयन में इनका दखल भी बराबर रहेगा यह तय है। फिर दिल्ली के चुनावों में अनुराग ठाकुर ने विवादित होने का जो जोखिम उठाया है वह उनका अपने स्तर का ही फैसला नही हो सकता। क्योंकि अनुराग का ब्यान उसी हिन्दु ऐजैन्डा का हिस्सा है जिसके गिर्द 2014 से लेकर अब तक पार्टी घूम रही है। हिन्दु ऐजैन्डा आज कितना अहम है भाजपा-संघ के लिये इसका अन्दाजा असम उच्च न्यायालय के उस न्यायाधीश के फैसले से लगाया जा सकता है जिसने स्वतः संज्ञान लेकर एक याचिका में कहा था कि भारत को भी पाकिस्तान की तर्ज पर धार्मिक राष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिये और यह काम मोदी ही कर सकते हैं। स्वभाविक है कि जो भी पार्टी नेता हिन्दु ऐजैन्डे पर आक्रामक लाईन लेगा उसे सरकार और संगठन में हल्के से नही लिया जा सकता। इस परिप्रेक्ष में प्रदेश में मन्त्री पद भरते समय नड्डा के साथ ही अनुराग की राय भी महत्वपूर्ण रहेगी। इस समय हमीरपुर, बिलासपुर और सिरमौर ही ऐसे जिले हैं जिन्हे मन्त्रीपरिषद में स्थान हासिल नही है। यदि सैजल स्पीकर बन जाते हैं तब सोलन भी इस श्रेणी में आ जायेगा। सैजल के स्पीकर बनने के बाद मन्त्रीमण्डल में कोई दलित मन्त्री नही रह जाता है। जनजातिय क्षेत्रों से पहले ही कोई मन्त्री नही है। इसलिये अब मन्त्री पद भरने के लिये जिलों को प्रतिनिधित्व देना और दलित वर्ग को भी सरकार में स्थान देना ऐसे मुद्दे होंगे जिन्हे आसानी से नज़रअन्दाज कर पाना संभव नही होगा। फिर मुख्यमन्त्री को भी क्षेत्र और वर्ग के आधार पर सरकार में सन्तुलन बनाने के लिये यही मौका होगा। बहुत संभव है कि अब जो मन्त्री बनाये जायें उन्हे वरियता का गणित लगाकर राज्य मन्त्री ही रखा जाये और इससे पूर्व मन्त्रियों को भी इस दौड़ से बाहर किया जा सकता है।
इस परिदृश्य में मन्त्री पद भरना और धर्मशाला प्रवास पर जाना ऐसे राजनीतिक फैसले होंगे जिनका असर सरकार के शेष बचे पूरे कार्यकाल पर पड़ेगा।
शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस 2017 का विधानसभा चुनाव हारने के बाद अब तक संभल नही पा रही है। यह धारणा बनती जा रही है प्रदेश की राजनीति पर नजर रखने वालों की। क्योंकि 2014 से आयी मोदी सरकार के बाद से प्रदेश कांग्रेस का नेतृत्व अपने को संभाल नही पाया है। 2014 में प्रदेश में वीरभद्र के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। वीरभद्र उस समय आयकर का मामला झेल रहे थे जो बाद में सीबीआई और ईडी तक पहुंच गया और आज तक लटका हुआ है। भाजपा ने वीरभद्र की इस स्थिति का पूरा-पूरा राजनीतिक लाभ उठाया है। वीरभद्र की इस स्थिति के कारण ही कांग्रेस प्रदेश में कमजोर हुई क्योंकि सत्ता में बैठकर भी वह भाजपा के प्रति आक्रामक नही हो पाये। वीरभद्र के शासनकाल में प्रेम कुमार धूमल और अनुराग ठाकुर की एचपीसीए के खिलाफ मामले तो बनाये गये परन्तु एक भी मामले में सफलता नही मिली। केन्द्र की मोदी सरकार की ऐजैन्सीयों ने वीरभद्र के लिये यह हालात पैदा कर दिये थे कि सत्ता में बने रहना उनकी राजनीतिक आवश्यकता बन गयी थी। लेकिन इसमें वह पार्टी को आगे बढ़ाने और कांग्रेस को अपना राजनीतिक वारिस नही दे पाये। बल्कि संगठन के साथ टकराव में ही चलते रहे। टकराव की यह स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि पार्टी अध्यक्ष सुक्खु को ही हटवाने में उनका पूरा ध्यान केन्द्रित होकर रह गया। जबकि कांग्रेस का 2017 के चुनावों में सबसे अच्छा प्रदर्शन सुक्खु के हमीरपुर जिले में ही रहा जहां पांच में से तीन सीटें कांग्रेस ने जीत ली।
वीरभद्र सुक्खु का यह टकराव चुनावों के बाद भी बरकरार रहा और लोकसभा चुनावों से पहले सुक्खु को हटाकर पार्टी की कमान कुलदीप राठौर को थमा दी गयी। लेकिन लोकसभा चुनावों में भी जिस तरह की ब्यानबाजी वीरभद्र की रही है उससे स्पष्ट था कि कांग्रेस बुरी तरह से हारेगी और हुआ भी वही। लोकसभा चुनावों के बाद राठौर पार्टी को संभाल पाते उसमें कुछ नये लोगों को ला पाते तो इससे पहले ही प्रदेश ईकाई को भंग कर दिया गया। प्रदेश ईकाई को भंग करते हुए अध्यक्ष को तो बनाये रखा लेकिन शेष कार्यकारिणी को ब्लाकस्तर तक भंग कर दिया गया। राजनीतिक विश्लेषक जानते हैं कि पार्टीयों में इस तरह के फैसले एक विशेष फीडबैक की पृष्ठभूमि में लिये जाते हैं। राठौर को नियुक्त करते समय जिन नेताओं की अनुशंसा पर अमल किया गया था अब प्रदेश ईकाई को भंग करते हुए भी उन्ही लोगों की सहमति के बाद ऐसा किया गया है। क्योंकि राठौर के पदभार संभालने के बाद पार्टी में पदाधिकारी नियुक्त किये गये थे जो निश्चित रूप से अधिकांश में उन्ही की पसन्द थे। लोकसभा चुनाव हारने के बाद जिस तरह से कुछ पदाधिकारियों की कार्य प्रणाली और हैलीकाप्टर के दुरूपयोग पर सवाल उठे हैं उसी सब के परिणामस्वरूप प्रदेश ईकाई को भंग किया गया है।
इस समय देश की राजनीति जिस मोड़ पर पहुंची हुई है उसमें आने वाले समय में उग्र आक्रामकता आने के साफ संकेत उभर रहे हैं। यह आक्रामकता 2014 की तरह भ्रष्टाचार और आर्थिक मुद्दों पर रहेगी यह स्पष्ट है। इस परिदृश्य में प्रदेशों से लेकर केन्द्र तक कांग्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी क्योंकि भाजपा के मुकाबले में वही एक राष्ट्रीय पार्टी रह जाती है जो देश के हर गांव में सुनने, देखने को मिल जायेगी। इसी परिप्रेक्ष में हर प्रदेश में कांग्रेस को आक्रामकता की भूमिका में आना होगा। इस संद्धर्भ में जब प्रदेश कांग्रेस के पुनर्गठन की बात आती है तो निश्चित रूप से गठन के समय यह ध्यान रखना होगा कि जिन लोगों को जिम्मेदारीयां दी जायें उनके अपने खिलाफ ऐसा कुछ न हो जिस पर उन्हे ही घेर लिया जाये। इस गणित में राठौर स्वयं उसी श्रेणी में आते हैं जिनकी अपनी स्लेट साफ है। लेकिन जो लोग भाजपा के आरोप पत्रों में दर्ज हैं यदि ऐसे लोगों के हाथों में कमान दे दी जाती है तो पार्टी को अगले चुनावों में सफल बनवा पाना आसान नही होगा। इस समय नये गठन का फैसला जिस तरह से लंबित होता जा रहा है उससे यह संकेत उभर रहे हैं कि पार्टी के वरिष्ठ लोगों ने अभी तक पिछली हार से कोई सबक नही लिया है।