Thursday, 18 September 2025
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विधानसभा का मानसून सत्र राजनीतिक चरित्र की पराकाष्ठा रहा वीरभद्र का मुकरना,रवि का माफी मांगना और मीडिया की खामोशी

शिमला/शैल। विधानसभा का यह मानसून सत्र लोक जीवन के गिरते मानकों की एक ऐसी इवारत लिख गया है जो शायद कभी मिट न सके। लोक जीवन में लोक लाज एक बहुत बडा मानक होता है और सत्र में यह लोक लाज तार -तार होकर बिखर गयी। लेकिन इन मानको के वाहक लोक तन्त्र के सारे सतम्भ मूक होकर बैठे रहे। सत्र के पहले ही दिन जब सदन में मुख्य मन्त्री के उस वक्तव्य का मुद्दा आया जिसमें उन्होने कहा था कि भाजपा में एक दो को छोड़ कर कोई भी सदन में आने लायक नही है। यह वक्तव्य खूब छपा था लेकिन जब सदन में बात आयी तो छठी बार मुख्य मन्त्री बने वीरभद्र सिंह सिरे से ही मुकर गये और कहा कि उन्होनें ऐसा कोई वक्तव्य दिया ही नही है। उनके सज्ञांन में तो यह बात आयी ही अब है। यदि अखबारों ने छापा है तो झूठ छापा है। जो कुछ छपता है उसे सूचना तन्त्र मुख्यमन्त्री के सामने रखता है गुप्तचर विभाग भी मुख्यमन्त्री के संज्ञान में ऐसी चीजे लाता है। लेकिन मुख्यमन्त्री का इस सबसे सिरे से ही इन्कार कर देना राजनीतिक, चरित्र को तो उजागर करता ही है। साथ ही पूरे तन्त्र की कार्यशैली ओर विश्वनीयता पर भी गंभीर सवाल खड़े कर जाता है। पहला दिन इसी हंगामे की भेंट चढ़ जाता है।
सत्र के दूसरे दिन अखबारों में खबर छपी की सीबीआई वीरभद्र के खिलाफ चार्ज शीट तैयार करके अदालत में दायर करने जा रही है। इस खबर पर भी सदन में चर्चा की बात आयी। वीरभद्र और कांग्रेस इस पर चर्चा के लिये तैयार नही थे। वीरभद्र ने उनके खिलाफ चल रही जांच को जेटली, अनुराग, अरूण और प्रेम कुमार धूमल का षड्यंत्र करार दिया। यहंा तक कह दिया कि उनके खिलाफ साजिश करने वालों का मुंह काला होगा। वीरभद्र यहीं नही रूके और यह भी कह दिया कि ऐसी खबरें छापने वाले अखबारों का भी मुंह काला होगा। मुद्दा संवेदनशील था और मुख्यमन्त्री इससे बुरी तरह आहत भी है। अपने राजनीतिक जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहे है। जैसे-जैसे वीरभद्र के खिलाफ सीबीआई और ईडी की जांच आगे बढ़ रही है उसका असर सरकार पर पड़ रहा है पूरा प्रशासन चरमरा गया है। निश्चित रूप से यह पूरा मुद्दा एक ऐसे मुकाम पर पहुंच चुका है जहां इसे आसानी से नजर अन्दाज करना संभव नही है केन्द्रिय वित्त मन्त्री और नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमन्त्री तथा उनके सांसद पुत्र पर इसमें षड्यंत्र रचने का आरोप लग रहा है। ऐसे में इस मुद्दे पर सदन के पटल से ज्यादा उपयुक्त मंच चर्चा के लिये और क्या हो सकता है। प्रदेश की जनता को सच्चाई जानने का पूरा हक है। इसके लिये सदन में भाजपा का इस पर चर्चा की मांग उठाना और सत्ता पक्ष के इससे इन्कार करने पर रोष और आक्रोश का उभरना स्वाभाविक था। इसी आक्रोश में रवि ने माईक पर हाथ दे मारा और इसी हंगामे में कार्यवाही समाप्त हो गयी।
तीसरे दिन सदन के शुरू होते ही पिछले दिन की घटना को लेकर रवि के खिलाफ सत्ता पक्ष की ओर से कारवाई की मंाग उठी और स्पीकर ने रवि के निलंबन का आदेश पढ़ दिया। इस पर फिर हंगामा हुआ। दोनो ओर से पूरे प्रहार किये गये। थोडी देर के लिये सदन की कार्यवाही रोक कर इस मसले का हल निकालने का आग्रह आया। आग्रह स्वीकार हुआ कार्यवाही रोकी गयी। इसके बाद जब सदन की कार्यवाही पुनः शुरू हुई तो रवि के माफी मांगने से मामले का पटाक्षेप हो गया। राजनीतिक तौर पर भाजपा के हाथ से मुद्दा फिसल गया। यदि निलंबन जारी रहता तो भाजपा के पास पूरी स्थिति को जनता की अदालत में ले जाने का पूरा पूरा मौका था जो माफी मागने से निश्चित् रूप से कमजोर हुआ है। इसी के साथ जिस बिन्दु पर यह हंगामा आगे बढ़ा और जेटली -धूमल पर षडयन्त्र रचने का आरोप लगा वह यथा स्थिति खड़ा रह गया।
चैथे दिन भी हंगामा रहा है सदन में आये सारे विधेयक बिना किसी बड़ी चर्चा के पारित हो गये। जिन मुद्दो पर जनता ने रोष व्यक्त किया हुआ था और शिमला नगर निगम जैसी चयनित संस्था ने रोष और सुझाव व्यक्त किये थे वह सब सदन में चर्चा का विषय ही नहीं बना। अपने लाभों सहित सब कुछ ध्वनि मत से पारित हो गया। इस पूरे परिदृश्य को यदि पूरी निष्पक्षता से आंका जाये तो राजनीतिक चरित्र का इससे बड़ा हल्कापन और कुछ नहीं हो सकता हैै। मीडिया को कोसने से सच्चाई पर ज्यादा देर तक पर्दा नही डाला जा सकता है लेकिन इसी के साथ मीडिया के लिये भी अपनी भूमिका पर आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता आ खडी होती है।

कांट्रेक्ट पर हुई नियुक्तियां नही हो सकती नियमित

उच्च न्यायालय के फैंसले के बाद काॅलेज काडर के 80 लेक्चररों का नियमितिकरण लिया वापिस

शिमला/शैल। प्रदेश उच्च न्यायालय ने 11 अप्रैल 2013 को दिये फैसले में कांट्रेक्ट के आधार पर की गयी नियुक्तियों को चोर दरवाजे से की गयी बैक डोर एंट्री करार देते हुए ऐसी नियुक्तियों के नियमितिकरण को अवैध करार दिया है। प्रदेश उच्च न्यायालय ने अपने 69 पन्नों के आदेश में साफ कहा है कि सरकार द्वारा कांट्रेक्ट नियुक्तियों के 9-9-2008 और फिर 8-6-2009 को जारी की नियमितिकरण की पाॅलिसी संविधान की धारा 14 और 16 के प्रावधानों की अनुपालना नही करती है। कर्मचारियों की नियुक्तियों और प्रोमोंशन के लिये संविधान की धारा 309 के तहत नियम बने है। धारा 309 के तहत बने नियमो को सरकार की 9-9-2008 और 8-6-2009 को जारी पॅालिसी को ओवर रूल नही कर सकती है।

स्मरणीय है कि 9-9-2008 और 8-6-2009 को जारी कांट्रेक्ट पालिसी के आधार पर सरकार के हर विभाग में आज तक नियुक्तियां होती आ रही है। सरकार हर वर्ष ऐसी नियुक्तियों का नियमितिकरण भी घोषित करती रही है। काॅलेज काडर के प्रवक्ताओं ने नियमितिकरण के संद्धर्भ में 2009़ में CWP 2336 याचिका दायर की थी। इसके बाद CWP 5047 जब 2010 और CWP 8709 of 2011 उच्च न्यायालय में आयी। उच्च न्यायालय ने इन सारी याचिकाओं को इकट्ठा करके अप्रैल 2013 में इनका एक साथ निपटारा करते हुए कांट्रेक्ट आधार पर की गयी नियुक्तियों के नियमितिकरण को सविंधान के प्रावधानों के विपरीत करार देते हुए अवैध करार दिया है।
प्रदेश उच्च न्यायालय का फैसला अप्रैल 2013 मे आ गया था। लेकिन इस फैसले के बाद भी काॅलेज काडर के कांट्रेक्ट  पर रखे गये प्राध्यापकों के नियमितिकरण के आदेश जून 2014 में जारी कर दिये। इन आदेशों का जब चुनौती दी गयी तब अब 18 अगस्त को इस नियमितिकरण के आदेश को वापिस लेते हुए इन प्राध्यापकों कोे पुनः कांट्रेक्ट पर नियुक्त करार दिया है। शिक्षा विभाग स्वयं मुख्यमन्त्री के पास है। ऐसेे में सवाल उठता है कि क्या उच्च न्यायालय का यह फैसला मुख्यमन्त्री के संज्ञान में लाया गया था? क्या मुख्यमन्त्री ने स्वयं इस फैंसले को नजर अन्दाज करने का फैसला लिया? या फिर मुख्यमन्त्री को बताये बिना ही उच्च न्यायालय के फैसले को अगूंठा दिखा दिया गया? अब इस फैसले पर अमल करते हुए काॅलेज काडर के 80 प्रवक्ताओं पर गाज गिरा दी गयी है। लेकिन जिन अधिकारियों ने यह कारनामा कर दिखाया है क्या उनके खिलाफ भी कोई कारवाई हो पायेगी? कांट्रेक्ट पर नियुक्तियों का चलन आज भी जारी है जबकि प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले के मुताबिक ऐसी नियुक्तियों का नियमितिकरण नही किया जा सकता है।

14. After hearing learned counsel for the parties and perusing the contents of the record, the private respondents before us in CWP No. 2336 of 2009 have not been able to prove that their appointments were made after observing the provisions of Articles of 14 and 16 of the Constitution. The regularization policy, dated 9.9.2008 (Annexure P-3), appears to have not been issued in consonance to the settled position of law by Supreme Court in Umadevi’s case (supra). The policy dated 9.9.2008 and subsequent communication dated 8.6.2009 also appear to have been made by way of executive instructions, as such, the circulars dated 9.9.2008 and the communication letter dated 8.6.2009 cannot over-ride the rules framed under Article 309 of the Constitution. These circulars cannot be treated to be substitute of the rules for State Government for regularization and the circulars, mentioned above, as such, being in the teeth of the settled position of law by Hon’ble Supreme Court in Umadevi’s case (supra), these are not legally sustainable for regularizing the private respondents. The respondent / State is expected to make appointments and regularize the services of private respondents in consonance to the Recruitment & Promotion Rules framed under Article 309 of the Constitution.
In view of the above observations, CWP No.2336 of 2009 is disposed of.
15. In view of the analysis, made herein-above, no mandamus or direction of any kind can be issued for regularization of the petitioner in CWP No.5047 of 2010 as well as writ petitioner in CWP No.8709 of 2011, as such, these writ petitions are dismissed.

हंगामेदार होगा विधानसभा का यह सत्र

शिमला/शैल। विधानसभा का मानसून सत्र किस तरह का रहेगा? क्या इसमें विधायी कार्य हो पायेंगे या फिर वाकआऊट और नारेबाजी की भेंट चढ़ जायेगा जैसा की एक बार 2015 में हुआ था। उस समय तो केवल मुख्यमन्त्री के प्रधान निजि सचिव सुभाष आहलूवालिया को ईडी के शिमला स्थित कार्यालय द्वारा बुलाये जाने पर प्रदेश सरकार द्वारा यहां तैनात सहायक निदेशक की प्रतिनियुक्ति रद्द करने को लेकर केन्द्र सरकार को भेजा पत्र ही चर्चा में आया था। जबकि आज तो स्वयं मुख्यमंत्री सीबीआई में और उनकी पत्नी पूर्व सांसद ईडी में पेश हो चुकी हैं उनका एलआईसी ऐजैन्ट आनन्द चैहान ईडी की गिरफ्तारी झेल रहा है जबकि आज तो पति-पत्नी के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति और मनीलाॅंडरिंग के मामले दर्ज हैं।
दूसरी ओर पूर्व मुख्यमन्त्री और नेता प्रतिपक्ष को उनके खिलाफ वीरभद्र की विजीलैन्स द्वारा चलाये जा रहे मामलों में लगातार अदालत से राहत मिलती जा रही है। वीरभद्र के सारे दावों के बावजूद विजिलैन्स द्वारा चलाये जा रहे मामलों में लगातार अदालत से राहत मिलती जा रही है। वीरभद्र के सारे दावों के वाबजूद विजिलैन्स चार वर्षों में धूमल के खिलाफ आय से अधिके संपति की शिकायत में मामला दर्ज करने लायक आधार नहीं जुटा पायी है। इससे यही सदेंश उभरता है कि वीरभद्र सरकार जबरदस्ती धूमल के खिलाफ कोई न कोई मामला खड़ा करना चाह रही है और उसमें भी उसे सफलता नही मिल रही है। इस वस्तुस्थिति से जनता का ध्यान हटाने के लिये वीरभद्र ने अलग रणनीति अपनाते हुए जनता में जाने का कार्यक्रम आरम्भ कर दिया। पूरे प्रदेश का तूफानी दौरा शुरू कर दिया। जंहा भी जा रहे हैं जनता में खुले हाथों वह सब कुछ बांट रहे हैं जिसके पूरा होने पर अब आम आदमी को भी सन्देह होने लग पडा है। क्योंकि अधिकांश घोषनाएं बिना बजट प्रावधानों के हो रही हंै। इन घोषनाओं पर अमल करने के लिये प्रशासन के भी हाथ खडे़ हो गये हैं। बहुत सारी ऐसी घोषनाएं हैं जिनकी अधिसूचनाएं अभी तक जारी नही हो सकी हैं। लेकिन मन्त्री मण्डल की हर बैठक में नौकरियों का पिटारा लगातार खुल रहा है। इससे अपने आप यह सदेंश जा रहा है कि अब तक नौकरियां देने के सारे दावे ओर आंकड़े केवल ब्यानबाजी तक ही सीमित रहे हैं। पूरा परिदृश्य हर कोण से मध्यावधि चुनावों के संकेत उभार रहा है।
लेकिन इन व्यवहारिक स्थितियों का आकलन करके जब नेता प्रतिपक्ष प्रेम कुमार धूमल समय पूर्व चुनावों की संभावना जता रहे हैं तो उन्हे ज्योतिषी होने का तमगा दिया जा रहा है। सीबीआई और ईडी की जांच में जैसे जैसे गति बढ़ती जा रही है उसी अनुपात में कांग्रेस नेताओं ने वीरभद्र के सांतवी बार भी मुख्यमन्त्री बनने के दावे करने शुरू कर दिये हैं। ऐसे में इन दावों-प्रति दावों के बीच विपक्ष के पास सरकार पर हमलावर होने का पूरा मौका है। बल्कि हमलावर होकर पूरी वस्तु स्थिति प्रदेश की जनता के सामने लाना भी विपक्ष का दायित्व है। ऐसे में यह उम्मीद की जा रही है कि इस परिदृश्य में जब सदन के पटल पर पक्ष और विपक्ष का आमना-सामना होगा तो जनता के सामने कई चैकाने वाले खुलासे आयेंगे।

खरीद नीति मे बदलाव के कारण 14 रू प्रति किलो मंहगा मिलेगा सरसों तेल

शिमला/शैल। प्रदेश सरकार पीडीएस के तहत दिये जाने वाले राशन की खरीद नागरिक आपूर्ति निगम के माध्यम से करती है इसके लिये नीति निर्धारित मन्त्री परिषद करती है। पीडीएस के तहत राशन इसलिये दिया जाता है ताकि उपभोक्ता को यह राशन सस्ता मिल सके। क्योंकि जब किसी चीज की खरीददारी सरकार करेगी तो उसका आर्डर थोक में होगा। थोक में आर्डर होने के कारण कीमत का कम होना स्वाभाविक है। इसलिये लोगों को सस्ता राशन देने को सरकार अपनी उपलब्धि मानती है। लेकिन जब सरकार की अपनी गलती से चीज की कीमत बढ़ जाये तो उस स्थिति में दोष किसको दिया जाये। किसके सिर इसकी जिम्मेदारी डाली जाये। यह सवाल इन दिनों वीरभद्र सरकार से जवाब मांग रहा है।
सरकार ने प्रदेश के लाखों उपभोक्ताओं को सस्ता राशन उपलब्ध करवाने की नीति बना रखी है। इस नीति के तहत सरकार सरसों का तेल और रिफाइंड की खरीद करती है इसके लिये नीति थी कि सरसों तेल और रिफांइड के लिये नागरिक अपाूर्ति निगम एक साथ टैण्डर आमन्त्रित करेगी। दोनों के टैण्डर खुलने पर कीमतों का आकलन करने पर यदि दोनों की कीमतों में दस रूपये तक का अन्तर होगा तो मंहगा होने पर भी खरीद लिया जायेगा। इस नीति के तहत तेल खरीद के मई में टैण्डर आमन्त्रित किये गये और खोले गये। इन टैण्डरो में रिफाईड का रेट 67 रूपये और सरसों तेल का रेट 86 रूपये प्रति किलो आया। नीति के मुताबिक दोनों की कीमतों में दस रूपये से ज्यादा का अन्तर होने के कारण रिफाइंड की खरीद की जानी थी। लेकिन जब इस आश्य का प्रस्ताव तैयार होकर मन्त्री के सामने रखा गया तो मन्त्री ने उस पर यह मंशा जाहिर की कि उपभोक्ता रिफाइंड से ज्यादा सरसों का तेल ज्यादा पंसद करते हैं। इसलिये रिफाइंड के स्थान पर सरसों का तेल की खरीद की जानी चाहिये।
मंत्राी की मंशा को पूरा करने के लिये खरीद नीति में बदलाव किया जाना था और टैण्डर खुलने के बाद आपूर्ति निगम के अपने स्तर पर यह बदलाव किया नही जा सकता था। इसके लिये पूरे मामले को मन्त्री परिषद के सामने रखने की बाध्यता आयी और 22 जून को यह मामला मन्त्री परिषद में रखा गया। मन्त्री परिषद ने तीन माह के लिये सरसों तेल के लिये फिर से टैण्डर मंगवाये गये। नये आये टैण्डरों में सरसों तेल की न्यूनतम रेट 99.39 रूपये और उसके बाद 99.99 रूपये आया है सयोंग वश 99.99 रूपये रेट उसी फर्म का आय है जिसने मई में 86 रूपये रेट दिया था। लेकिन अभी तक यह फैसला नही हो पाया है कि स्पलाई आर्डर 99.39 पर दिया जाये या 99.99 रूपये पर।
फैसला कुछ भी लिया जाये लेकिन इसमें उपभोक्ता को 14रूपये प्रति किलो के अधिक दाम चुकाने पडेंगें उपभोक्ताओं को सामूहिक तौर पर छः करोड़ से अधिक की चपत लग जायेगी। स्पलायर को छः करोड़ का लाभ मिल जायेगा। यहां पर यह सवाल उठता है कि खरीद नीति को बदलने की आवश्यकता क्यों आ पड़ी? यदि खरीद बदलने की आवश्यकता समझी गयी तो सरकार के पास मई में 86 रू0 किलो का जो रेट आया था मन्त्री परिषद ने उसी का अनुमोदन क्यों नहीं कर दिया। अब जो उपभोक्ता को प्रति किलो 14 रूपये की अधिक कीमत चुकानी पडेगी उसके लिये कौन जिम्मेदार है विभाग का प्रशासनिक तन्त्र संबधित मन्त्री या फिर पूरी मन्त्री परिषद इससे सरकार का कोई नुकसान नही है केवल उपभोक्ता का नुकसान और लाभ सीधे स्पलायर का है।

हिलोपा के विलय से विकल्प की संभावनाओं पर फिर लगा प्रश्न चिन्ह

शिमला/शैल। महेश्वर सिंह हिमाचल लोक हित पार्टी के भाजपा में विलय से एक बार फिर प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा के विकल्प की संभावनाओं की हत्या हुई यह मानना है उन लोगों का जो विकल्प की तलाश में है। प्रदेश में एक लम्बे अरसे से कांग्रेस और भाजपा का ही शासन चला आ रहा है। इस शासन की विशेषता यह रही है कि दोनों ने विपक्ष में बैठकर सत्तापक्ष के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के गंभीर आरोप पत्र राजभवन को सौंपे हैं लेकिन सता में आने पर उनकी जांच का जोखिम न उठाया है। दोनों ने इस धर्म का ईमानदारी से पालन किया है। भ्रष्टाचार पोषण की इस संस्कृति का प्रदेश पर यह असर पडा है कि सरकार का कर्ज भार हर वर्ष लगातार बढ़ा है और इसी अनुपात में हर बार बेरोजगारों का आंकडा बढ़ा है। बढ़ता कर्ज और बढ़ती बेरोजगारी सत्ता में बैठे इन मामनीयों के अतिरिक्त हर व्यक्ति के लिये गंभीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बना हुआ हैं। इसलिये आम आदमी आज ईमानीदारी से कांग्रेस और भाजपा का विेकल्प चाहता है।
प्रदेश में कई बार विकल्प के प्रयास हुए हैं इनमें 1989-90 में जनता दल ने 17 सीटों पर चुनाव लड़कर 11 पर जीत हासिल की थी। स्व. ठाकुर राम लाल स्व. रणजीत सिंह के अतिरिक्त विजय सिंह मनकोटिया और श्यामा शर्मा जैसे लोगों के हाथ में इसका नेतृत्व था। लेकिन भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था जिसमें भाजपा को अपनी ही 46 सीटें मिल गयी थी और शान्ता कुमार ने जनता दल को सत्ता में भागीदार नहीं बनाया। इसका परिणाम यह हुआ कि जनता दल भी विकल्प बनने से पहले ही समाप्त हो गया। उसके बाद पंडित सुखराम ने कांग्रेस से निष्कासित होकर हिमाचल विकास कांग्रेस का गठन किया। हिविंका ने 1998 के चुनाव में पांच सीटों पर जीत हासिल की। पांचों विधायक धूमल की सरकार में मन्त्री बन गये और आगे चलकर आधी हिविंका भाजपा में और आधी कांग्रेस में शामिल हो गयी। हिविंका के बाद विजय सिंह मनकोटिया ने बसपा के हाथी का दामन थामा। मायावति के पूरे सहयोग के वाबजूद यह हाथी पहाड़ पर नहीं चड़ पाया और मनकोटिया फिर कांग्रेस में वापिस चले गये।
मनकोटिया के बाद महेश्वर ने भाजपा के भीतर विरोध और विद्रोह के स्वर मुखरित किये। धूमल के खिलाफ गडकरी को अरोप पत्र सौपें और अन्त में भाजपा से बाहर निकलकर हिमाचल लोक हित पार्टी बनाकर चुनाव लडा। हिलोपा को चुनाव में समाप्त भारत पार्टी के सुदेश अग्रवाल ने तो वित्तिय सहयोग भी बहुत दिया था। हिलोपा के चुनाव लड़ने पर अमेरीकी दूतावास तक ने रूची ली थी और उसके लोग तो हिलोपा के शिमला स्थिति मुख्यालय भी पहुंचे थे। इस सहयोग से ही यह सकेंत उभरे थे कि हिलोपा प्रदेश में एक विकल्प के रूप में अवश्य अपनी पहचान बनायेगी। आज हिलोपा के विलय से इस उम्मीद की निश्चित तौर पर हत्या हुई है। बल्कि एक समय तो यह उम्मीद भी बन्ध गयी थी कि हिलोपा और आम आदमी पार्टी प्रदेश में एक होकर एक कारगर विकल्प बन पायेंगे लेकिन आम आदमी पार्टी को तो प्रदेश में दो वर्ष बाद अपनी ईकाई तक भंग करनी पड गयी है। जून में ईकाई भंग करने के बाद केजरीवाल ने प्रदेश में दिल्ली से एक छः सदस्यों की टीम राजनीतिक स्थितियों का आकलन करने के लिये भेजी थी लेकिन यह टीम तो भंग ईकाई से भी ज्यादा अप्रभावी सिद्ध हुई है। क्योंकि यह टीम अभी तक कोई आकलन ही सामने नही ला पायी हैं।
ऐसे में राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि प्रदेश में विकल्प के प्रयास सफल क्यों नही हो पा रहे हैं। इस सवाल की गंभीरता से पडताल करने के बाद यह सामने आता है कि विकल्प का प्रयास करने वाले मुख्यरूप से वही लोग रहे हैं जिन्होने कभी न कभी भाजपा या कांग्रेस में सत्ता का सुख भोगा हुआ था। सत्ता का हिस्सा रह चुके लोग सत्ता के खिलाफ कभी भी ईमानदारी से आक्रामक नही हो पाते हैं। जबकि सता का विकल्प बनने के लिये सता पक्ष और उसके दावेदारों के खिलाफ खुलकर आक्रमक होना एक अनिवार्यता है। लेकिन विकल्प होने का दम भरने वाला कोई भी नेता ऐसी आक्रमकता नही निभा पाया है और इसलिये उसकी विश्वसनीयता नही बन पायी है। आज जिस ढंग से आम आदमी पार्टी प्रदेश में काम कर रही है उसमें भी आक्रमकता कहीं देखने को नही मिल रही है। दो वर्षों से आप प्रदेश में काम करते हुए आम आदमी को यह नही समझा पायी है कि प्रदेश में विकल्प क्यों चाहिये? कांग्रेस और भाजपा ने प्रदेश का अहित क्या किया है? उस अहित का समाधान क्या है? जब तक इन प्रश्नो पर कोई खुलकर प्रदेश की जनता के सामने पूरी निष्पक्षता के साथ स्थिति को नही रखेगा तब तक विकल्प का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सकता है।

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