Friday, 19 September 2025
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क्या टीसीपी का प्रस्तावित संशोधन संभावित निवेशकों के दबाव का परिणाम है

शिमला/शैल।  प्रदेश सरकार की टीसीपी के तहत प्लानिंग और साडा क्षेत्रों में शामिल किये गये ग्रामीण क्षेत्रों को टीसीपी से बाहर करने पर विचार कर रही है। इसके लिये आईपीएच मंत्री महेन्द्र सिंह की अध्यक्षता में मन्त्रीयों की एक उप समीति बनाई गयी है। कहा गया है कि इस उप समिति के पास ग्रामीण क्षेत्रों से इस आशय के 120 प्रस्ताव आये हैं। पिछले दिनों प्रदेश सचिवालय में हुई इस उप समिति की बैठक में फैसला लिया गया कि ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की समस्याओं के लिये जन सुनवाई की जायेगी। यह जन सुनवायी शिमला मे सुरेश भारद्वाज, कुल्लु -मनाली में गोविन्द ठाकुर और मण्डी में स्वयं महेन्द्र सिंह ठाकुर करेंगे। शिमला में हुई उप समिति की बैठक में इन मन्त्रीयों के अतिरिक्त विधायक सुखविन्दर सिंह सुक्खु, विधायक अनिरूद्ध सिंह और सचिव टीसीपीसी पालरासू और कुछ अन्य अधिकारी भी शामिल रहे हैं। इस बैठक में शिमला को लेकर यह सुझाव आया है कि यहां भवनों की ऊंचाई 21 मीटर तय कर दी जानी चाहिये। शिमला, मण्डी और कुल्लु, मनाली के अतिरिक्त प्रदेश में और कहां पर इस उप समिति की बैठकें होंगी तथा और कहां-कहां से प्रस्ताव आये हैं यह अभी सामने नही आया है।
स्मरणीय है कि प्रदेश के कई हिस्सों में हुए अवैध निर्माणों का मामला प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक सुर्खीयों में रहे हैं। अदालत के आदेश पर ऐसे निर्माणों के बिजली पानी तक काटे गये हैं। सर्वोच्च न्यायालय से ही एक मामला शुरू में एनजीटी में गया था और उसके बाद ही एनजीटी ऐसे मामलो पर गंभीर हुआ। कसौली का मामला एनजीटी के आदेशों का ही परिणाम है। कुल्लु में मन्त्री महेन्द्र सिंह ने एनजीटी के आदेशों पर अपने होटल का अवैध निर्माण स्वयं गिराया है। योगेन्द्र सेन की याचिका पर दिये गये फैसले में एनजीटी ने अढ़ाई मंजिल तक ही निर्माण सीमा इसलिये तय की है क्योंकि शिमला ही नही हिमाचल प्रदेश का 80% भाग संवदेनशील भूकंप जोन में आता है। आपदा प्रबन्धन के तहत सरकार द्वारा किये गये अपने अध्ययन की रिपोर्ट में यह दर्ज है कि यहां पर हल्का सा भी भूकंप का झटका आने पर 30,000 लोगों की जान जायेगी। इसी अध्ययन के बाद सचिवालय में सचिव स्तर की एक कमेटी गठित की गयी थी और पहली बार वर्ष 2000 में शिमला में सरकारी और गैर सरकारी निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगाया गया था। एनजीटी के 16-11-2017 के फैसले का आधार पर इसी सचिव कमेटी की सिफारिशें बनी हैं और फैसले में यह विशेष रूप से दर्ज भी है। इसी फैसले में निर्माणों को नियमित करने के लिये 5000 से 10,000 रूपये प्रति वर्ग फुट जुर्माने का प्रावधान रखा गया है। प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय और एनजीटी तक में प्रदेश में अवैध निर्माणो का आंकड़ा 35000 तक आया है। लेकिन सरकार आज भी सदन में यही जानकारी दे रही है कि अवैध निर्माणों के केवल 8782 मामले ही उसके सामने आये हैं। इनमें भी नगर क्षेत्रों के 5444 तथा नगरों से बाहर के 3338 मामले ही हैं। नगर निगम शिमला में एनजीटी के फैसले के बाद केवल 14 नये और 264 संशोधित मामले स्वीकृति के लिये आये हैं। लेकिन अवैध निर्माणों को लेकर निगम मौन रहा है जबकि पिछले दिनों उच्च न्यायालय में आये एक मामले में यह संख्या 8300 कही गयी है।
इन आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश में अवैध निर्माण एक बहुत बड़ी समस्या है। किसी भी आपदा की घड़ी में इनके कारण हजारों की संख्या में जान माल का नुकसान हो जायेगा। इसी नुकसान की आशंका निर्माणों पर रोक और उन्हे अढ़ाई मंजिल तक सीमित किया गया है। लेकिन जिस ढंग से टीसीपी में संशोधन की भूमिका ग्रामीण क्षेत्रों को प्लानिंग और साडा से बाहर करने की तैयार की जा रही है। उससे यह सवाल उठता है कि क्या संशोधन के बाद यहां पर बहुमंजिलों के निर्माण की तैयारी की जा रही है। आखिर किसके लिये इस माध्यम से यह सुविधा देने की तैयारी हो रही है। अभी शिमला के 30 किलोमीटर के दायरे में ज़मीन मांगने के 26 आवदेन आये हैं जिनमें से आठ तो सीधे आरएसएस से ही ताल्लुक रखते हैं। इसी किलो मीटर के दायरे में कुछ मंत्रीयों और अधिकारियों की भी ज़मीने हैं। मन्त्रीयों की जो उप समिति बनी है शायद उसके भी सदस्य की जमीन इस दायरे में आती है। एनजीटी के फैसले के खिलाफ सरकार सर्वोच्च न्यायालय में गयी थी लेकिन शायद वहां से इसमें कोई राहत नही मिली है। फिर भवन निर्माण क्षेत्र में आने वाले संभावित निवेशकों की ओर से भी शायद यह दबाव है कि निर्माण पर लगी अढ़ाई मंजिल की शर्त को हटाया जाये। क्योंकि कोई भी भवन निर्माता अढ़ाई मंजिल का निर्माण करके इसमें लाभ नही कमा सकता। चर्चा है कि अभी पंजीकृत हुए एक गुप्ता भवन निर्माता ग्रुप ने शिमला के 30 किलो मीटर के दायरे में सौ बीघा से अधिक ज़मीन की खरीद की है लेकिन एनजीटी के मौजूदा फैसले के तहत यह निर्माण लाभकारी न हों इसी आशंका के चलते ऐसे लोगों के दबाव में आकर टीसीपी में संशोधन का रास्ता अपनाया गया है और उसमें शिमला, मण्डी तथा कुल्लु मनाली पर ही फोकस रखा गया है। इस प्रस्तावित संशोधन पर पर्यावरण प्रेमियों की क्या प्रतिक्रिया रहती है यह आने वाले दिनों में सामने आयेगा।

                                       यह हैं 26 आवेदक

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 



सहायक दवा नियंत्रक सरीन प्रकरण में सरकार की नीयत पर उठे सवाल

शिमला/शैल। स्वास्थ्य विभाग ने बद्दी में तैनात सहायक दवा नियंत्रक निशांत  सरीन के आवास -कार्यालय और अन्य ठिकानों पर 23 अगस्त को विजिलैन्स ने छापेमारी की थी। इस छापेमारी के दौरान कई संपत्तियों बैंक खातों और फार्मा कंपनीयों के पैसों से मंहगे होटलों में ठहरने तथा हवाई यात्राएं करने के सबूत मिलने का दावा किया गया था। सरीन की एक सहयोगी डा. कोमल की पंचकूला स्थित फार्मा कंपनी पर भी इसी संबंध में छापेमारी की गयी थी। इस छापेमारी के दौरान सरीन और उनकी सहयोगी डा. कोमल विजिलैन्स टीम के साथ नही थे जिसका अर्थ है कि शायद उन्हें इस संभावित छापेमारी की भनक पहले ही लग गयी थी इसी कारण से वह इन ठिकानों पर हाथ नही लगे। इस छापेमारी के बाद विजिलैन्स ने दोनों के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत मामला दर्ज करके इन्हें सोलन कार्यालय में जांच में शामिल होने का नोटिस जारी कर दिया था।
लेकिन विजिलैन्स के नोटिस के बावजूद यह लोग जांच में शामिल नही हुए। बल्कि सोलन की अदालत मे अग्रिम जमानत के लिये याचिका दायर कर दी। इस याचिका के दौरान भी सरीन अदालत मे नही आये। यह याचिका भी खारिज हो गयी है। सरीन को जमानत नही मिली है। जमानत न मिलने के बावजूद भी विजिलैन्स ने उन्हें अभी तक गिरफ्रतार नही किया है न ही सरीन अब तक जांच में शामिल हुए हैं। वह बद्दी में अपने कार्यालय में भी नही आ रहे हैं। माना जा रहा है कि वह भूमिगत हो गये हैं और जमानत के लिये प्रदेश उच्च न्यायालय में प्रयास करेंगे। अग्रिम जमानत के लिये प्रयास करना उनका कानूनी अधिकार है लेकिन इस अधिकार से विजिलैन्स की कारवाई नही रूक जाती है। जब सरीन को सोलन की अदालत से जमानत नही मिली है तब कायदे से विजिलैन्स को उनकी गिरफ्रतारी के प्रयास तेज कर देने चाहिये थे। लेकिन ऐसा कुछ सामने नही आया है।
सरीन एक सरकारी कर्मचारी हैं जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज है और विजिलैन्स छापेमारी कर चुकी है और वह उन्हें नही मिले हैं। वह अपने कार्यालय में भी नही आ रहे हैं क्या उन्होंने विभाग से कोई छुट्टी ले रखी है। यदि ऐसी कोई छुट्टी है तो क्या वह यह मामला दर्ज होने के बाद रद्द नहीं हो जानी चाहिये थी? यदि वह बिना किसी छुट्टी के अपने कार्यालय से गायब है तो क्या उसके खिलाफ एक और आपराधिक मामला नही बन जाता है? क्योंकि कोई भी सरकारी कर्मचारी बिना सूचना के गायब नही रह सकता। लेकिन विभाग की ओर से इस तरह की कोई कारवाई अबतक अमल में नहीं लायी गयी है। स्मरणीय है कि बहुत पहले बिलासपुर में भी सरीन के खिलाफ ऐसा ही एक मामला बना था उस समय भी राजनीतिक दबाव होने की चर्चाएं उठी थी। अब भी माना जा रहा है कि शायद राजनीतिक दबाव फिर हावि हो गया है जिसने सरकार और विजिलैन्स दोनों के हाथ बांध रखे हैं।

कर्ज के आंकड़ों पर जयराम को मुकेश की खुली चुनौती

शिमला/शैल। मानसून सत्र के अन्तिम दिन विधानसभा में विधायक रमेश धवाला और जगत सिंह नेगी तथा राजेन्द्र राणा का प्रश्न था कि गत तीन वर्षों में दिनांक 31-7- 2019 तक प्रदेश सरकार ने विश्व बैंक, एशियन विकास बैंक तथा अन्य ऐजैन्सीयों से कितना ऋण लिया है (क) किन योजनाओं हेतु कितनी राशी ऋण के रूप में स्वीकृत हुई है। (ख) स्वीकृत ऋण में से कितनी धन राशी कहां और किस योजना पर खर्च हुई ब्योरा दें। इस प्रश्न के उत्तर मे सदन में रखी गयी जानकारी के मुताबिक 2017-18 में कुल ऋण 5200.13 करोड़ लिया गया जिसमें से 3099.68 करोड़ वापिस कर दिया है। 2018-19 में 4932.03 करोड़ लिया और 3177.41 करोड़ वापिस किया गया तथा 2019-20 में (31-7-2019) में 1197.69 करोड़ लिया और 240.42 करोड़ वापिस किया। इसके  मुताबिक तीन वर्षों में 11329.85 करोड़ का ऋण लिया गया जिसमें से 6517.51 करोड़ वापिस करने के बाद 4812.34 करोड़ का ऋण शेष बचा है।
ऐसा ही एक सवाल बजट सत्र के दौरान भी मुकेश अग्निहोत्री और रामलाल ठाकुर ने पूछा था। इसके जवाब में बताया गया था कि 3451 करोड़ का कर्ज लिया गया है जिसमें से 3000 करोड़ खुले बाजार से लिया गया। इसमें से कुछ कर्ज वापिस करने के बाद 1838.75 करोड़ का ऋण शेष बचा है। इन दोनों सूचनाओं को इकट्ठा रखने के बाद 6600 करोड़ से अधिक का ऋण इस सरकार के अब तक के कार्यालय में लिये गये ऋण में से अभी वापिस दिया जाना बाकी है। लेकिन मुख्यमन्त्री ने सदन में आये इन आंकड़ो को नज़रअन्दाज़ करते हुए यह जानकारी दी कि उनकी सरकार ने केवल 2711 करोड़ का ऋण लिया है। मुख्यमन्त्री के इस दावे को नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने सदन में खुली चुनौती देते हुए आरोप लगाया है कि मुख्यमन्त्री सदन को गुमराह कर रहे हैं। सरकार द्वारा स्वयं सदन में रखे इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि मुकेश अग्निहोत्री की चुनौती बिना आधार के नही है।
मुख्यमन्त्री के ब्यान और इन आंकड़ों के बाद यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या मुख्यमन्त्री सही में सदन से कुछ छुपा रहे हैं या अफसरशाही ने जानबूझ कर मुख्यमन्त्री को इन आंकड़ों को नज़रअन्दाज़ करके कुछ और ही तस्वीर उनको दिखा दी है। मुख्यमन्त्री ने सदन में माना है कि प्रदेश की वित्तिय स्थिति  ठीक नही है और इसके लिये उन्होंने कांग्रेस के पिछले कार्यालय में 18000 करोड़ से कुछ अधिक का ऋण लेने को जिम्मेदार ठहराया है।
लेकिन यह जिम्मेदार ठहराने के बाद यह सरकार राजस्व बढ़ाने के लिये क्या कदम उठा रही है इसका कोई खुलासा अभी तक सामने नही आया है। बल्कि सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि क्या कर्ज की ही सही स्थिति को सरकार समझ पायी है या नही। क्योंकि बजट में जो पूंजीगत प्राप्तियां दिखायी जाती हैं वह वास्तव में कर्ज ही होती हैं और बजट दस्तावेजों में उसे पूरी स्पष्टता के साथ कर्ज ही दिखाया गया होता है। परन्तु जब कर्ज पर सदन में सवाल पूछा जाता है और उसका उत्तर दिया जाता है तो इस ऋण का कोई जिक्र ही नही उठाया जाता है। क्योंकि यह ऋण अधिकांश में उस पैसे में से लिया जाता है जो आम आदमी की स्माल सेविंग्ज और कर्मचारियों की भविष्य निधि या और किसी तरीके से सरकार के पास जमा होता है लेकिन सरकार उसकी मालिक नही होती। यह कर्ज वापिस किया जाता है। 2018 -19 में 7730.20 करोड़ और 2019-20 में 8330.75 करोड़ का ऐसा ऋण लिया जायेगा। बाजार और अन्य ऐजैन्सीयों से लिया जा रहा है ऋण इस कर्ज से अलग होता है। पूंजीगत प्राप्तियों के रूप में लिया जाने वाला ऋण सिद्धान्त रूप में भविष्य के लिये संसाधन खड़े करने के लिये लिया जाता है जिनसे आगे आने वाले समय में सरकारी कोष में निश्चित और नियमित आय हो सके। आज प्रदेश में कर्जभार 50,000 करोड़ से पार हो गया है लेकिन इस कर्ज से कौन से संसाधन खड़े किये गये और उनसे कितनी आय हो रही है इसको लेकर आजतक कोई खुलासा जनता के सामने नही रखा गया है। इस परिदृश्य में यदि प्रदेश की पूरी वित्तिय स्थिति का सरकारी दस्तावेजों के आईने में ही आकलन किया जाये तो कोई भी सरकार जनता के सामने सही स्थिति नही रख रही है।








बाल्दी के मुख्य सचिव बनने के बाद कौन होगा मुख्यमन्त्री का प्रधान सचिव

शिमला/शैल। प्रदेश के मुख्य सचिव बी के अग्रवाल का केन्द्र में सचिव लोकपाल जाना तय हो गया है। अग्रवाल के केन्द्र में जाने के बाद डा. बाल्दी का मुख्य सचिव बनना भी तय माना जा रहा है। क्योंकि इस समय प्रदेश में कार्यरत अधिकारियों में बी सी फारखा के बाद वही वरिष्ठतम सेवारत अधिकारी हैं। फारखा वीरभद्र शासन में मुख्य सचिव रह चुके हैं इसलिये अभी उनकी दावेदारी नही मानी जा रही है। फिर डाक्टर बाल्दी लम्बे समय तक प्रदेश के वित्त सचिव रहे हैं और इस समय मुख्यमन्त्री को वित्तिय मामलों में उनसे अच्छी राय देने वाला कोई और नही है। इस नाते डा. बाल्दी से उपयुक्त इस समय मुख्य सचिव के लिये और कोई दूसरा नही हो सकता ऐसा माना जा रहा है। बाल्दी भी इसी वर्ष सेवा निवृत हो जायेंगे। ऐसे में इस अवधि में नये मुख्य सचिव की तलाश करने के लिये भी समय मिल जायेगा।
लेकिन इसी के साथ राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में यह चर्चा का विषय बना हुआ है कि बाल्दी की जगह मुख्यमन्त्री का अगला प्रधान सचिव कौन होगा। इस समय बाल्दी के बाद दूसरे वरिष्ठ अधिकारी अतिरिक्त मुख्य सचिव पर्यटन राम सुभाग सिंह है। लेकिन अभी जो पर्यटन ईकाईयों को लीज पर देने का मामला चर्चा में आया है उससे राम सुभाग सिंह की दावेदारी पर थोड़ा प्रश्नचिन्ह लग जाता है। राम सुभाग सिंह के बाद सचिवालय में दूसरे वरिष्ठ अधिकारी आईपी एस संजय कुण्डु उपलब्ध हैं संजय कुण्डु को सरकार केन्द्र से मुख्यमन्त्री कार्यालय में उनकी आवश्यकता होने के नाम पर ही लायी थी। लेकिन कुण्डु सचिवालय में मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव होना चाहेंगे या पुलिस में डीजीपी। वैसे इस समय भी वह मुख्यमन्त्री के अतिरिक्त प्रधान सचिव के पद पर ही तैनात है।
संजय कुण्डु के बाद इस समय प्रदेश में राम सुभाग के अतिरिक्त तीन और अतिरिक्त मुख्य सचिव तैनात हैं। इनमें से आरडी धीमान प्रदेश से भी ताल्लुक रखते हैं फिर विपक्ष ने यह खुला आरोप भी लगाया है कि सरकार को प्रदेश से बाहर के अफसर चला रहे हैं। मुख्यमन्त्री ने इस आरोप को सदन में सिरे से खारिज भी कर दिया है लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि अधिकारियों के कारण ही सरकार की कार्य प्रणाली पर सवाल भी उठ रहे हैं। माना जा रहा है कि अधिकांश अधिकारी नियमों/कानूनों को पूरी तरह समझने का प्रयास ही नहीं कर रहे हैं। हर छोटे बड़े फैसले के लिये हर मामले को मन्त्री परिषद में ले जाने की प्रथा चल पड़ी है अधिकारी अपने स्तर पर फैसला लेने से बच रहे हैं। ऐसे में सरकार के कार्यकाल तक कौन अधिकारी इस प्रधान सचिव की जिम्मेदारी को निभाने के लिये उपयुक्त होगा उसमें धीमान का नाम पहले स्थान पर चल रहा है क्योंकि उनकी सेवानिवृति भी दिसम्बर 2022 में सरकार के कार्यकाल के साथ ही होनी है।

जब अब तक कोई एम ओ यू साईन ही नहीं हुआ तो फिर हज़ारों करोड़ के निवेश के दावे कैसे

शिमला/शैल। जयराम सरकार प्रदेश में निवेश जुटाने के प्रयासों में लगी हुई है। इसमें सबसे पहले इसी वर्ष के शुरू में ही पीटरहाॅफ में एक इन्वैस्टर मीट आयोजित की गयी थी। इस मीट में 159 एमओयू साईन करके 17365 करोड़ का निवेश आने का दावा किया गया था। इसके बाद जून- जुलाई में 228 उद्योगों के साथ एमओयू साईन करके 27515 करोड़ के निवेश का दावा सामने आया। फिर तीन मंत्रीयों ने एक पत्रकार वार्ता करके इस दावे को और बड़ा करते हुए कहा कि 263 एमओयू साईन करके 29500 करोड़ का निवेश लाया गया है। मन्त्रीयों ने यह भी दावा किया कि 6103 करोड़ के निवेश के 103 प्रौजैक्टों पर काम भी शुरू हो गया है।
यह सारे दावे विधानसभा का मानसून सत्र शुरू होने से पहले किये गये हैं। लेकिन अब मानसून सत्र में कांग्रेस विधायक सुक्खु के प्रश्न के उत्तर में यह कहा गया है कि ‘‘मुख्यमन्त्री द्वारा अपने विदेश व देश के दौरों के दौरान 31-7-2019 तक कोई भी समझौता (MOU) हस्ताक्षरित नहीं किया गया है। भाजपा विधायक रमेश धवाला के एक प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि गत तीन वर्षों में दिनांक 31-7-19 तक उद्योग स्थापित/विस्तार करने हेतु कुल 17 औद्यौगिक इकाईयों के मामले राज्य एकल खिड़की समाधान एवम् अनुश्रवण प्राधिकरण के अनुमोदनार्थ लंबित पड़े हैं। यह सभी 17 प्रकरण नये मामले हैं। इनके अतिरिक्त सीमेन्ट और जल विद्युत परियोजनाओं को लेकर आये सवालों में भी यही सामने आया है कि निवेशक इसमें रूचि नही दिखा रहे हैं। सदन में आयी इन सूचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि निवेश को लेकर जो भी दावे किये जा रहे हैं उन्हें अमली शक्ल लेने में समय लग जायेगा। सुन्दरनगर, चम्बा और शिमला मे जो सीमेन्ट प्लांट दशकों से प्रस्तावना में चल रहे हैं वह अभी तक शक्ल नही ले पाये हैं। इसी तरह जल विद्युत परियोजनाओं के क्षेत्र में अब निवेशक सामने नही आ रहे हैं। जंगी थोपन पवारी परियोजना को लेकर अब ब्रेकल के खिलाफ अब आपराधिक मामला दर्ज करने की नौबत आ गयी है।
 इससे यह सवाल उठता है कि मुख्यमन्त्री के साथ अधिकारियों और मन्त्रीयों का जो काफिला विदेश और देश में जाकर रोड़ शो करके निवेशकों को आमन्त्रित करने का प्रयास कर रहा था। उन यात्राओं का आधार क्या था? यह यात्राओं के बाद जो हजारों करोड़ों का निवेश आने के वायदे प्रदेश की जनता को दिखाये गये हैं उनका आधार क्या था। क्यों अब सदन में उत्तर देते हुए यह कहा गया है कि कोई भी एमओयू साईन नही हुआ है। पीटरहाॅफ से लेकर विदेशों तक जो मीट किये गये हैं उन सबमें मुख्यमन्त्री शामिल थे उन्हीं के नेतृत्व में यह सब हो रहा था। पीटरहाॅफ की मीट के बाद ही इसमें 159 एमओयू साईन होने का दावा किया गया था। निवेशकों को आमन्त्रित करने के लिये एक वैन पोर्टल जारी किया गया है। इस पोर्टल में कृषि, बागवानी, पर्यटन उद्योग, जल विद्युत, स्वास्थ्य और आयुर्वेद आदि विभागों की कई महत्वकांक्षी प्रोपोजल डाले गये हैं।
पर्यटन के 13 होटलों को लीज़ पर देने की प्रोपोजल इस पोर्टल पर डाली गयी थी। इस प्रोपोजल को अब इस पोर्टल से हटाया गया जब इस पर विपक्ष की ओर से सवाल आने शुरू हुए। इस प्रोपोजल का खुलासा प्रैस के माध्यम से सार्वजनिक होने के बाद मुख्यमन्त्री का यह ब्यान आना कि उन्हें इस सबकी जानकारी ही नहीं है। मुख्यमन्त्री स्वयं पर्यटन विभाग के मंत्री हैं ऐसे में यह एक बहुत ही गंभीर मुद्दा बन जाता है कि मुख्यमन्त्री की जानकारी के बिना ही अधिकारी इतना बड़ा फैसला अपने स्तर पर ले लें जिसका प्रदेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यही स्थिति नियम 61 में नरेन्द्र ठाकुर, रामलाल ठाकुर और राजेन्द्र राणा के सवालों की चर्चा में आयी हैं नियम 61 में विधायक चर्चा तब मांगते हैं जब उनके सवाल पर सदन में सही जानकारी न दी गयी हो। इन विधायकों ने सदन में यह स्पष्ट कहा कि अधिकारियों द्वारा सरकार को सही जानकारी नही दी जा रही है। ऐसे में यह बड़़ा सवाल हो जाता है कि क्या अधिकारी वास्तव में ही मुख्यमन्त्री और सरकार को सही जानकारी नही दे रहे हैं। क्योंकि जिस निवेश को लेकर इतने बड़े -बडे़ दावे किये गये हों उसमेे लिखित उत्तर मे यह कह दिया जाये कि कोई एमओयू साईन ही नही हुआ है तो स्थिति बहुत ही हास्यस्पद हो जाती है।

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