हाईड्रोकाॅलेज निर्माण में 8 करोड़़ के घपले पर चुप्पी क्यों
राजकुमार राजेन्द्र सिंह बनाम एसजेवीएनएल में आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर अमल कब
शिमला/शैल। प्रदेश की जनता को इन्वैस्टर मीट के माध्यम से 85000 करोड़ के निवेश का सपना दिखाने वाली जयराम सरकार ने दिवाली के बाद पैट्रोल, डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़ा कर आम आदमी से इस सपने की पूरी- पूरी कीमत वसूल ली है। मजे की बात तो यह है कि चुनावों से पहले इन्हीं की कीमतों में राहत देकर वोट हासिल कर लिया और अब इन्हीं राहतों को न केवल वापिस लिया बल्कि इनके दाम और ज्यादा बढ़ाकर सरकार बनाने का ईनाम भी जनता को दे दिया है। इसमें भी मज़ाक तो यह है कि जहां खुले आम भ्रष्टाचार हो रहा है उस पर तो यह सरकार कोई कारवाई करने का साहस ही नहीं जुटा पा रही है क्योंकि शायद उसमें कुछ अपनों पर भी आंच आने का डर हो। भ्रष्टाचार का आलम यह है कि प्रदेश में बन रहे हाईड्रो कालिज के निर्माण में न्यूनतम दर 92 करोड़ को नजरअन्दाज कर 100 करोड़ वाले को काम दे दिया। यदि कार्य आवंटन के स्तर पर ही आठ करोड़ का चूना लगाया जा सकता है तो आगे चलकर और क्या होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इसी तरह राज कुमार, राजेन्द्र सिंह बनाम एसजेवीएनएल मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की अनुपालना अभी तक नही हो पायी है। जबकि सितम्बर 2018 में आये इस फैसले पर दो माह के भीतर अमल किया जाना था। इस मामले में फैलसे के अनुसार करीब छः करोड़ रूपये की 12ः ब्याज सहित वसूली की जानी है और यह रकम 30 करोड़ से अधिक की बनती है। लेकिन सरकार और प्रशासन की प्राथमिकता में यह मामले नहीं आते। क्योंकि एक आदेश से पैट्रोल -डीजल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ाना आसान है। 85000 करोड़ के निवेश के सपने की विश्वसनीयता बढ़ाने के लिये प्रधानमन्त्री तक को इस मीट के लिये आमन्त्रित किया गया है।
इन्वैस्टर मीट में प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री एवम् अन्य कुछ मंत्रीयों का आना ही अपने में कई सवाल खड़े करता है। कांग्रेस ने सवाल उठाया है कि क्या प्रधानमंत्री इस अवसर पर प्रदेश को कोई विशेष आर्थिक पैकेज दे कर जायेंगे। प्रधानमंत्री और अन्य मन्त्रीयों के आने की संभावनाओं से ही यह सवाल एक बार फिर उछल गये हैं कि 2014 में जब डा0 मनमोहन सिंह ने सत्ता छोड़ी थी तब बेरोज़गारी की दर 3.4% थी जो आज बढ़कर 8.1% हो गयी है। ब्डप्म् की जनवरी 2019 की रिपोर्ट के अनुसार नोटबंदी के बाद करीब 90 लाख लोगों का रोज़गार समाप्त हुआ है। यूपीए दो के शासनकाल में देश की जीडीपी 7.4% थी जो 2018 -19 में 5% से भी कम रह गयी है। 2014 में डालर की कीमत 58 रूपये थी जो आज बढ़कर 75 रूपये हो गयी है। जनधन के नाम पर बैंकों में जीरो बैलेन्स सुविधा के आश्वासन पर खाते खुलावाये गये थे उनमें अब न्यूनतम बैलेन्स की शर्त लगाकर जुर्माना लगाया जा रहा है। एक समय गृहणी सुविधा योजना के नाम पर गरीबों को मुफ्त में गैस कनैक्शन देकर सरकार ने जो वाहवाही और वोट आम आदमी से ले लिया था आज गैस सिलैण्डर के दाम एक मुश्त 77 रूपये बढ़ाकर उस सबकी कीमत वसूल कर प्रदेश के 17 लाख से कुछ अधिक के गैस उपभोक्ताओं को सरकार ने झटका दिया है। यह सबकुछ इन्वैस्टर मीट की पूर्व संध्या पर घटा है। इसलिये इस समय इसकी चर्चा एक अनिवार्यता बन गयी है।
इसी सब कुछ को सामने रखते हुए यह सवाल उछलने लग पड़ा है कि जब ग्लोबल मंदी है तो फिर यह निवेश का सपना कब और कैसे साकार हो पायेगा या फिर यह वर्तमान परिस्थितियों से ध्यान हटाने का एक सुनियोजित प्रयास है।
1924 में स्थापित हुये इस अस्पताल में अभी भी नही है एक्स रे जैसी सुविधायें
शिमला/शैल। प्रदेश के सबसे बड़े कमला नेहरू महिला शिशु अस्पताल को आज तक एक्स रे सुविधा उपलब्ध नही हो पायी है। जबकि इसकी स्थापना 1924 में हुई थी और यह एक लेडी रिड़िंग के नाम से जाना जाता था। वर्तमान में प्रशासनिक दृष्टि से इसका संचालन इन्दिरा गांधी मैडिकल कॉलेज शिमला के अधीन है। इसमें प्रतिदिन सैंकड़ों के हिसाब सें महिला मरीज आतें हैं। क्योंकि प्रसव का यह सबसे बड़ा केंद्र है। स्वभाविक है कि जब ऐसी गर्भवती महिलायें यहां आती हैतो उनके परीक्षण के बाद उन्हें कई तरह के टैस्ट आदि करवाने की आवश्यकता पड़ जाती है। लेकिन इस तरह के सारे टैस्ट यहां नही हो पाते हैं और उनके लिये मरीजों को आईजीएमसी भेजा जाता है। आईजीएमसी का कमला नेहरू अस्पताल से पैदल एक घन्टे से अधिक का रास्ता है और बस या अपने वाहन से जाने में यह रास्ता 8 से 10 किलोमीटर पड़ जाता है। ऐसे में अन्दाजा लगाया जा सकता है कि मरीजों को इसके लिये कितनी परेशानी का सामना करना पड़ता होगा। खून की जांच से संबंधित भी अधिकांश टैस्ट मैडिकल कॉलिज की लैब में ही होते हैं। ऐसे में अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यदि मरीज के साथ एक ही तामीरदार आया हो तो वह सैंपल लेकर मैडिकल कॉलेज जायेगा या मरीज की देखभाल के लिये उसके साथ रहेगा। एक्स-रे तक की सुविधा अभी तक यहां उपलब्ध नही है। एक्स- रे तो आस पास की प्राईवेट लैब में भी उपलब्ध नही है। ऐसें में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि एक और तो
सरकार आयुषमान भारत और हिमकेया जैसी स्वस्थ्य योजनाएं चलाकर हर गरीब आदमी को निशुल्क चिकित्सा सुविधायें प्रदान करने का दावा कर रही है लेकिन मरीजों को व्यवहारिक रूप् से किस तरह की असंविधाओं का सामना करना पड़ रहा है इस ओर प्रशासन का कोई ध्यान ही नही है।
कमला नेहरू अस्पताल के पुराने भवन की हालत अत्यन्त दयनीय है इसे तोड़कर नये सिरे से बनाने की अवश्यकता है। इस संद्धर्भ में करीब बीस वर्ष पहले इसमें एक नया पांच मजिलां ब्लॉक जोड़ा गया था। और आज उसी में अस्पताल का मुख्य काम चल रहा है। इसी कड़ी में 2013 में इसमें एक और ब्लॉक जोड़ने के लिये शिलान्यास किया गथा। यह सात मंजिला ब्लॉक बनकर तैयार भी हो गया है परन्तु इसके भीतर का काफी काम होना बाकी है। लेकिन हमारे राजनेताओं को अधूरे भवनों का उदघाटन करने की जल्दबाजी रहती है और इसी सनक से इस ब्लॉक का उदघाटन फरवरी 2019 में कर दिया गया। क्योंकि उसके बाद लोक सभा चुनाव आने थे और उनमें इसका श्रेय लिया जाना था। जबकि उदघाटन का अर्थ होता है कि उसी दिन से भवन उपयोग में आ गया है। लेकिन यहां पर व्यवहारिक स्थिति यह है कि पूरे भवन को उपयोग में लाने के लिये अभी ऐ वर्ष से अधिक का समय लग सकता है। यही नही जिस पांच मजिला ब्लॉक में अस्पताल का मुख्यकाम चल रहा है उस तक पहुचनें वाले मार्ग पर काफी अरसा पहले भू सखलन हुआ था और उसके कारण बड़ी ऐंबुलैन्स भी वार्ड तक ले जाना कक्नि हो गया था। उससे अवरूद्ध हुये मार्ग को अभी तक पूरी तरह प्रशासन साफ नही कर पाया है। इससे स्वास्थ्य जैसे संस्थानों के प्रति भी प्रशासन की संवेदनशीलता का पता चल जाता है।
इसमें दिलचस्प तो यह है कि कमला नेहरू अस्पताल एकदम मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के आवास ओकओवर के साथ लगता है। मुख्यमंत्री की धर्मपत्नी भी स्वंय डॉक्टर हैं और कई अवसरों पर यहां मरीजों को फल -मिठाईयां आदि बांटने के उद्देश्य ये यहां आती रहती हैं। बल्कि जब वह अस्पताल में आती हैं तो पूरा प्रबन्धन उनके स्वागत में शामिल रहता है। लेकिन अभी तक इस सच्च की ओर मुख्यमन्त्री की डॉक्टर पत्नी का भी ध्यान नही गया है कि इस अस्पताल में बहुत सारी चिकित्सीय सुविधाओं की कमी है और मुख्यमन्त्री से अधूरे ही भवन का उदघाटन करवा दिया गया है।
शिमला/शैल। भाजपा प्रदेश के दोनों उप चुनाव जीत गयी है लेकिन इस जीत के बाद यह चर्चा शुरू हो गई है कि क्या इन चुनाव परिणामों पर जय राम सरकार को सही में खुश होना चीहियेया उसे आत्म मंथम करना चाहिये। क्योंकि इसी सरकार ने पांच माह पहले हुये लोकसभा चुनावो में प्रदेश की चारों सीटों पर रिकार्ड तोड जीत दर्ज की थी। इसी जीत के दम पर यह उप चुनाव बीस-बीस हजार से अधिक की बढ़त के साथ जीतने का दावा किया था। बल्कि गुप्तचर ऐजैन्सीयों ने भी शायद इसी तरह का आकलन सरकार को परोसा था। इसी तर्ज पर प्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री पवन राणा ने हमीरपुर में पार्टी की एक बैठक में यह फैसला सुनाया था कि संगठन ने पचास से कम आयू के कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाने का फैसला लिया है। पवन राणा के इसी ऐलान के परिणाम स्वरूप दोनों जगह युवाओं को तहरीज दी गयी। अब जो परिणाम आये हैं वह इन सब दावों की हवा निकालने वालें हैं बल्कि चर्चाएं तो यहां तक हैं कि यदि कांग्रेस में आपसी फूट नही होती और वह गंभीरता से इस उप चुनाव को लेती तो शायद परिणाम कुछ और ही होते।
इस परिदृश्य में यदि प्रदेश के राजनितिक परिदृश्य में उपचुनाव का आकलन किया जाये जो यह सपष्ट है कि 2022 मे भाजपा और जय राम के लिये राहें आसान नही होंगी। क्योंकि पिछले दिनों कांगड़ा की भाजपा राजनिति के अन्दर संगठन मंत्री पवन राणा और ज्वाला मुखी के विधायक रमेश ध्वाला को लेकर जो अलग-अलग ध्रुव खडे हुये थें उनका राजनितिक प्रतिफल उपचुनाव के परिणमों के बाद अपना रंग दिखाने की तैयारी में है।भाजपा के भीतरी सुत्रों की माने तो धर्मशाला मे जो समर्थन पार्टी के बागी राकेश चौधरी को मिला है उसके लिये कांगड़ा से ताल्लुक रखने वाले पार्टी के तीन चौधरी नेताओं रमेश धवाला सरवीण चौधरी और संजय चौधरी की जबाव तल्वी की जा रही है। इसी तरह का खेल पच्छाद मे भी खेलने की तैयारी की जा रही है। इस खेल के परिणाम क्या होंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन यह तय है कि जहां संगठन ने युवा नेतृत्व का आगे उभारने का फैसला लिया है वहीं पर उसे इस चुनाव में लोक सभा के अनुपात में बहुत कम अन्तर से जीत की समीक्षा करके इसकी जिम्मेदारी केन्द्र या राज्य सरकार किसी एक पर तो डालनी ही होगी। क्योंकि केन्द्र के कारण ही प्रदेश में सरकार बन पायी थी। फिर लोस चुनाव से पहले घटे पुलवामा और बालाकोट के कारण प्रदेश की चारों लोकसभा सीटें भाजपा को इतने बडे़ अन्तराल से मिल पायी हैं। लेकिन अब इन उपचुनावों में तो राज्य सरकार के कामकाज का आकलन जनता के लिये एक आधार बनता ही है और इस पैमाने पर राज्य सरकार अपनी सफलता का कोई दावा नही कर सकती है। बल्कि आने वाले दिनों में यदि पार्टी के भी तर यह सवाल भी खड़ा हो जाये कि क्या वर्तमान नेतृत्व के साये में 2022 पार्टी के लिये सुरक्षित हो सकता है या नही तो कोई आश्चर्य नही होना चाहिये।
अभी सरकार के दो मंत्री पद भरे जाने हैं। इन पदों को भरने के लिये परफारमैन्स के पैमाने की बाते अब फिर उठनी शुरू हो गई हैं। इस परफारमैन्स के आईने में यह सपष्ट है कि यदि पच्छाद में उपचुनाव की कमान आई पी एच मंत्री ठाकुर महेन्द्र सिंह न संभालते तो यहां पर जीत संभव नही हो पाती।यह महेन्द्र सिंह ही थे जिन्होने हर रोज आचार संहिता उल्लंघन की शिकायते सहते हुये भी अपनी कार्यप्रणाली नही बदली। ऐसे मे सिरमौर से मंत्री पद का दावा उनकी संस्तुति के बिना आगे नही बढ़ पायेगा यह तह है। इसी तरह धर्मशाला में उप चुनाव की कमान स्वास्थ्य मंत्री विपिन परमार के पास थी। वहां पर परमार के साथ राकेश पठानिया ने भी सक्रीय भूमिका निभायी है। लेकिन इस सब के बाद भी धर्मशाला में जीत का अन्तर वह नही रह पाया जिसका दावा किया जा रही था। अब यदि धर्मशाला के लिये चौधरी नेताओं की संभावित जवाब तल्वी सही में ही हो जाती है तब पार्टी के अन्दर कई और सच सामने आयेंगे। इस जवाब तल्वी के साथ ही कांगड़ा से मंत्री पद के दावे पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े हो जायेंगे। इसी के साथ यह सवाल भी चर्चा मे आयेगा कि पार्टी से बगावत करके निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले राकेश चौधरी और दयाल प्यारी को क्या पार्टी कुछ बड़ें नेताओं का आर्शीवाद तो हासिल नही था। क्योंकि जितने वोट यह विद्रोही केन्द्र और राज्य सरकार दोनों का विरोध सहते हुये ले गये हैं उससे प्रमाणित हो ही जाता है कि पार्टी में निष्ठा से काम करने वालों के लिये कोई जगह नही रह गयी है निष्ठा का स्थान जब नेतृत्व के गिर्द परिक्रमा ले लेती है तब ईमानदार कार्यकर्ता के पास बगावत के अतिरिक्त और कोई विकल्प शेश नही रह जाता है।
अब इन उपचुनावों के बाद दो मंत्री पदो ंके साथ ही विभिन्न निगमों बोर्डों में भी ताजपोशियां होनी है। इनमें यह सामने आ जायेगा कि पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं को कहां क्या स्थान हासिल हो पाता है। फिर जो लोग एक समय हिलोपा और आम आदमी पार्टियों में चले गये थे उनकी वापसी तो भाजपा में हो गई है लेकिन भाजपा का वरिष्ठ कार्यकर्ता होने के सम्मान के अतिरिक्त उन्हे अभी तक कुछ भी हासिल नही हो पाया है। ऐसे में कांग्रेस आदि के जिन नेताओं के भाजपा मे शामिल होने की परोक्ष /अपरोक्ष चर्चा चली थी और इस चर्चा के संकेत एक समय पार्टी अध्यक्ष सतपाल सती तक ने दे दिये थे अब उनकी भूमिका और रिश्ते भाजपाके साथ क्या मोड़ लेते हैं यह देखना भी दिलचस्प होगा। ऐसे में इस उपचुनाव के परिणाम प्रदेश भाजपा के लिये कई ऐसे सवाल खड़े कर गये हैं जिनके उतर तलाशना आसान नही होगें।
शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश बिजली बोर्ड की कर्मचारी यूनियन ने राज्य सरकार को एक पत्रकार वार्ता के माध्यम से सीधी चेतावनी दी है कि यदि उनकी मांगे न मानी गयी तो बोर्ड के दस हजार कर्मचारी प्रदेश सचिवालय का घेराव करने को बाध्य हो जायेंगे। बोर्ड कर्मचारी इस घेराव के रास्ते पर आने के लिये तब विवश हुए हैं जब मुख्यमन्त्री उनके सम्मेलन में आने का न्योता स्वीकार करने के बाद भी नहीं पहुंचे। स्वभाविक है कि यदि मुख्यमन्त्री इस सम्मेलन में पहुंच जाते तो यह कर्मचारी उनके सामने अपनी मांगो के साथ-साथ बोर्ड के भीतर की असली तस्वीर भी उनके सामने रखते जिसे शायद प्रबन्धन सार्वजनिक नहीं होने देना चाहता है।
कर्मचारी यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप सिंह खरबाड़ा ने बोर्ड केअध्यक्ष ई0 जेपी काल्टा को तुरन्त उनके पद से हटाने की मांग की है। स्मरणीय है कि बोर्ड अध्यक्ष अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने के बाद भी इसी पद पर बने हुए हैं। यूनियन ने आरोप लगाया है कि अध्यक्ष राजस्व की उगाही में भी पूरी तरह से विफल रहे हैं और उनके कार्यकाल में बोर्ड में भ्रष्टाचार अपने चरम सीमा पर पहुंच चुका है। भ्रष्टाचारियों को सजा देने के स्थान पर उन्हे संरक्षण दिया जा रहा है। राजस्व की उगाही का एक बड़ा खुलासा सोलन में सामने आया है जहां पर 29,81,869.95 पैसे के बिजली के बिलों का भुगतान लम्बे समय से लटका हुआ है लेकिन यह भुगतान न होने पर भी इनके बिजली कनैक्शन नहीं काटे जा रहे हैं।
यूनियन ने यह भी आरोप लगाया है कि फील्ड मे काम कर रहे कर्मचारियों को आवश्यक उपकरणों के बिना काम करना पड़ रहा है जिसके कारण दुर्घटनाएं बढ़ती जा रही है। पिछले दो वर्षों में ही इन उपकरणों की कमी के कारण 50 से अधिक दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। लेकिन प्रबन्धन को इन हादसों की कोई चिन्ता नही है। कर्मचारी यूनियन ने बोर्ड में खाली पड़े 7000 पदों को शीघ्र भरने और निजिकरण को तुरन्त बन्द करने की मांग की है। बोर्ड में पिछले दिनों 48 श्रेणियों के कर्मचारियों के वेतन मान कम किये जाने पर कड़ा रोष जताते हुए इसे तुरन्त प्रभाव से बहाल करने की मांग की है। कर्मचारी 2003 के बाद भर्ती किये कर्मचारियों के लिये भी पुरानी पैन्शन योजना बहाल किये जाने की मांग कर रहे हैं। माना जा रहा है कि यदि कर्मचारियों की मांगो का समय रहते हल न किया गया तो यह आन्दोलन 1990 के शान्ता कुमार के कार्यकाल में हुए बड़े आन्दोलन का कारण बन जायेगा क्योंकि आऊट सोर्स कर्मचारी वीरभद्र सरकार के समय से ही अपने लिये सीधी सरकारी नौकरी की मांग करते आ रहे हैं और आज भी वह बड़े संघर्ष के लिये तैयार है।
शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा की दो सीटों के लिये हुए उपचुनावों के परिणाम भविष्य की राजनीति पर निर्णायक प्रभाव डालेंगे यह तय है क्योंकि लोकसभा चुनावों के छः माह के अन्दर ही यह उपचुनाव आ गये हैं। इन उपचुनावों में जहां जयराम सरकार के अब तक के कामकाज पर लोग फतवा देंगे वहीं पर इस बात की भी परख हो जायेगी कि इन छः महीनों में मोदी सरकार के प्रभाव में कितनी कमी या बढ़ौत्तरी हुई हैं। इसी के साथ जनता की सामान्य समझ का भी पता चल जायेगा कि विपक्षी नेतृत्व के अभाव में उसे अपने तौर पर राष्ट्रीय और प्रादेशिक मुद्दों की कितनी समझ आ पायी है।
उपरोक्त संद्धर्भ में यदि इस उपचुनाव की समीक्षा की जाये तो सबसे पहले जयराम सरकार के अब तक के कामकाज का सवाल आता है। प्रदेश सरकार ने जब सत्ता संभाली थी तब उसे किस तरह की आर्थिक विरासत मिली थी उसको लेकर यह सरकार कोई श्वेतपत्र प्रदेश की जनता के सामने नही रख पायी है। इसलिये आज यह सरकार खराब आर्थिक स्थिति का कोई कवर नही ले सकती है। अब अगर सरकार की आर्थिक सेहत की बात की जाये तो सरकार केवल कर्ज के सहारे ही चली हुई है। हर माह सरकार को कर्ज लेना पड़ रहा है यह तथ्य विधानसभा सत्रों में इस संद्धर्भ में पूछे गये सवालों के जवाबों से हर बार सामने आ चुका है और शैल यह आंकड़े हर बार अपने पाठकों तक पहुंचाता रहा है। आर्थिक स्थिति के बाद यदि रोजगार की उपलब्धता की बात की जाये तो प्रतिवर्ष जितने सरकारी कर्मचारी सेवानिवृत हुए हैं उतने उनके स्थान पर नये भर्ती नही हो पाये हैं। जो भी थोड़ा बहुत रोजगार दिया गया है वह आऊट सोर्स के माध्यम से दिया गया है और उसमें यहां तक आरोप लग चुके हैं कि सरकार के मन्त्री तक आऊट सोर्स के ऐजैन्ट बने हुए हैं। प्रदेश विश्वविद्यालय और राज्य बिजली बोर्ड इसके सबसे बड़े प्रमाण के रूप में सामने हैं। सरकार के विभागों की परफारमैन्स का अन्दाजा इसी से लग जाता है कि शिक्षा विभाग में मेधावी बच्चों को यह सरकार अब तक लैपटाॅप नहीं दे पायी है। यही नहीं बच्चों को दी जाने वाली मुफ्त बर्दी की भी यही कहानी है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में तो विभिन्न योजनाओं के कार्यान्वयन में जिलावार जो रैंकिंग स्वयं अतिरिक्त मुख्य सचिव स्वास्थ्य ने पत्रकारों के सामने रखी है उसमें मुख्यमन्त्री के अपने जिले की रैंकिंग से ही पता चल जाता है।
लोक निर्माण विभाग मुख्यमन्त्री के अपने पास है। सरकार प्रदेश में तीन मैडिकल काॅलिजों का निर्माण करवा रही है लेकिन यह निर्माण कार्य अपने लोक निर्माण विभाग से न करवा कर केन्द्र सरकार के उपक्रमों से करवाया जा रहा है और उसमें खुली टैण्डर प्रक्रिया को सरकारी उपक्रम के नाम पर नजरअन्दाज कर दिया गया है जबकि प्रदेश सरकार के अपने निर्देशों और उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तथा सीबीसी के निर्देशों के अनुसार ऐसा नहीं किया जा सकता। केन्द्रिय उपक्रमों की कार्यशैली का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बिलासपुर के बन्दला में हाईड्रो कालिज का निर्माण किया जा रहा है इसके लिये भारत सरकार ने पैसा दिया है और सचिव तकनीकी शिक्षा की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी हुई है। इस निर्माण के लिये जब निविदायें आमन्त्रित की गयी तब भारत सरकार के उपक्रम एनपीसीसी ने इसमें भाग लिया और उसके रेट कम होने से काम उसको आवंटित हो गया। लेकिन जब आगे एनपीसीसी ने ठेकेदारों से इसके लिये निविदायें मांगी तो इस केन्द्र के उपक्रम ने न्यूनतम दर 92 करोड़ को नजरअन्दाज करके 100 करोड़ की दर वाली कंपनी को काम दे दिया और टैण्डर आवंटन में ही प्रदेश सरकार को आठ करोड़ का चुना लग गया। संवद्ध प्रशासन के संज्ञान में है यह सबकुछ लेकिन इस पर कोई कारवाई नही हो रही है। मान जा रहा है कि मैडिकल कालिज के निर्माण में भी इसी तरह का कुछ घट सकता है। इस प्रकरण से सरकार के खिलाफ विभिन्न वायरल हुए पत्रों के माध्यम से भ्रष्टाचार के जो आरोप अब तक लगे हैं उन्हें स्वतः ही प्रमाणिकता हासिल हो जाती है।
प्रशासनिक स्तर पर तो अधिकारियों के करीब हर माह हो रहे तबादलों का रिकार्ड सबकुछ ब्यान कर देता है। शायद इसी प्रशासनिक परामर्श के कारण सरकार इस पूरे साल इन्वैस्टर मीट क माध्यम से निवेश जुटाने के प्रयासों में लगी हुई है। इसी सरकार के कार्यकाल में कितना निवेश सही में आ पाता है इसका पता तो आने वाले समय में ही लगेगा। जबकि अब तक केन्द्र द्वारा घोषित राष्ट्रीय उच्च मार्ग अभी तक कोई शक्ल नहीं ले पाये हैं। ऐसे कई और उदाहरण हैं। इसलिये इस परिदृश्य में हुए इन उपचुनावों के परिणाम प्रदेश के भविष्य की राजनीति को प्रभावित करेंगे यह तय है। क्योंकि केन्द्र सरकार का धारा 370 हटाना और तीन तलाक से मुस्लिम महिलाओं को निजात दिलाना, मंहगाई और बैंकिंग क्षेत्र पर आये संकट के साये तले बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं रह जाते हैं। इसलिये इन उपचुनावों के बाद नड्डा, अनुराग और जयराम के नाम से उभरे तीनों सत्ता केन्द्रों में संघर्ष का शुरू होना अवश्यंभावी है। फिर इस उपचुनाव में जिस तरह से शांता कुमार के पुतले तक जलाने और उनके धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाने को लेकर आये ब्यान से राजनीतिक विवाद उभरा है उसकी भी प्रभावी भूमिका रहेगी यह तय है। इसलिये यह चुनाव परिणाम मुख्यमन्त्री की राजनीतिक सेहत पर सीधा प्रभाव डालेंगे यह स्पष्ट है।