क्या विधानसभा उपचुनावों के लिये सरकार और कांग्रेस भी बराबर की जिम्मेदार नहीं है
शिमला/शैल। चुनाव प्रचार अन्तिम चरण में पहुंच चुका है। कांग्रेस और भाजपा का शीर्ष नेतृत्व प्रदेश में चुनावी रैलियां संबोधित कर गया है। इससे दोनों पार्टियों के राष्ट्रीय एजेंडे सामने आ चुके हैं। लेकिन क्या प्रदेश में राष्ट्रीय एजेंडे कहीं चुनाव का मुद्दा बन भी पाये हैं यह अपने में बड़ा सवाल हो गया है। क्योंकि प्रदेश में लोकसभा के साथ ही विधानसभा के लिये हो रहे छः उपचुनाव ने चुनावी एजेंडे को ही बदल दिया है। विधानसभा के लिये हो रहे छः उपचुनावों पर प्रदेश सरकार का भविष्य टिका हुआ है। यह छः उपचुनाव राज्यसभा में चुनाव में कांग्रेस के छः और तीन निर्दलीयों द्वारा भाजपा के पक्ष में वोटिंग करने से उत्पन्न स्थिति के कारण हो रहे हैं। इन नौ लोगों के भाजपा के पक्ष में वोट करने से राज्यसभा में कांग्रेस और भाजपा के 34-34 वोट हो गये थे और पर्ची के माध्यम से चुनाव परिणाम का फैसला होने से यह निर्णय भाजपा के पक्ष में आ गया। इस परिणाम के बाद कांग्रेस ने अपने छः लोगों को दल बदल कानून के तहत सदन की सदस्यता से बाहर कर दिया। लेकिन तीन निर्दलीयों को कानूनी दाव पेचों में उलझाकर आज तक उनके त्यागपत्र स्वीकार नहीं किये हैं। जबकि छः कांग्रेसियों ने अपने निष्कासन और तीनों निर्दलीयों ने त्यागपत्र देने के बाद भाजपा ज्वाइन कर ली थी। भाजपा ने सभी नौ लोगों को उपचुनाव के लिए अपना उम्मीदवार भी बना दिया था। यदि निर्दलीयों की तर्ज पर ही कांग्रेस के छः लोगों के खिलाफ भी कानूनी प्रक्रिया का सहारा लेकर उनके भाजपा में जाने को लटका दिया जाता तो शायद यह छः उपचुनाव न हो रहे होते। लेकिन ऐसा इसीलिये नहीं किया गया क्योंकि उनके जाने से सरकार को कोई खतरा नहीं था। आज इन छः का भाजपा में जाना चुनाव का कांग्रेस की ओर से मुख्य मुद्दा बना हुआ है। यदि कांग्रेस के पास यह मुद्दा न आता तो किन मुद्दों पर लोकसभा चुनाव लड़ा जाता। निश्चित रूप से तब सरकार की पन्द्रह माह की परफारमैन्स और विधानसभा चुनाव में दी गयी गारंटीयां इस समय बड़े सवाल होते। सरकार द्वारा पन्द्रह माह में दिया गया कर्ज चर्चा का विषय होता। भ्रष्टाचार न तो जयराम सरकार के समय में कोई मुद्दा रहा और न ही अब सुक्खू सरकार के समय में कोई मुद्दा है। जयराम ने भाजपा के आरोप पत्रों पर कोई कार्यवाही नहीं की। ठीक उसी तर्ज पर आज सुक्खू सरकार भी कांग्रेस के आरोप पत्र पर कोई कारवाई नहीं कर रही है। बल्कि मुख्यमंत्री जिस तरह धन बल के सहारे सरकार गिराने के प्रयास करने का आरोप भाजपा पर लगा रहे हैं उसका कोई ठोस जवाब दिया जा रहा है। अभी धर्मशाला में मुख्यमंत्री ने सुधीर शर्मा पर भू-माफिया होने के जो आरोप लगाये हैं और सुधीर शर्मा ने दस्तावेजी प्रमाणों के साथ मुख्यमंत्री को घेरा है उस पर भी भाजपा नेतृत्व की चुुप्पी अपने में बहुत कुछ बयां कर जाती है। इस चुप्पी से यह संकेत उभर रहे हैं कि दोनों पार्टियों में लोकसभा और विधानसभा को लेकर कोई अघोषित सहमति है। चारों लोकसभा सीटों पर कांग्रेस की कार्यशैली से यह संदेह पुख्ता हो जाता है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सारे वायदों के बावजूद के 0.6% के अंतर से सरकार की जीत हुई है और पन्द्रह माह में इस अन्तर को सरकार बड़ा नहीं कर पायी है।
सुक्खू के खुलासे की प्रासंगिकता पर उठने लगे सवाल
भाजपा में शामिल हुये कांग्रेस के बागीयों की राजनीतिक सुरक्षा की जिम्मेदारी अनचाहेे ही अनुराग-धूमल पर आ गयी।
सुक्खू का खुलासा कहीं बैक फायर न कर जाये उठने लगी आशंका
शिमला/शैल। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह ने एक चुनावी जनसभा में खुलासा किया है की प्रेम कुमार धूमल को 2017 में एक षडयंत्र करके सुजानपुर से टिकट देकर हरवाया गया था। स्मरणीय है कि 2017 में धूमल ने सुजानपुर में राजेन्द्र राणा के खिलाफ चुनाव लड़ा था और बड़े ही कम अन्तर से यह चुनाव हार गये थे। तब वह प्रदेश के मुख्यमंत्राी थे। राजेन्द्र राणा कांग्रेस के उम्मीदवार थे। 2017 में यदि धूमल न हारते तो जयराम की जगह वह प्रदेश के मुख्यमंत्री होते। सुजानपुर में धूमल के साथ क्या षडयंत्र हुआ था इसका कोई विस्तृत खुलासा तो सुखविंदर सिंह सुक्खू ने नहीं किया है। लेकिन प्रदेश के राजनीतिक हल्कों में एक ऐसी बहस को छेड़ दिया है जिसके परिणाम दूरगामी होंगे। सुक्खू भी धूमल की तरह हमीरपुर जिले से ही ताल्लुक रखते हैं। जिस राजेन्द्र राणा ने धूमल को हराकर मुख्यमंत्री की कुर्सी मण्डी जाने के हालात पैदा किये थे आज वही राणा सुक्खू के खिलाफ हुई बगावत का मुख्य किरदार है। ऐसे में राणा के प्रति सुक्खू का रोष और आक्रोश अपनी जगह जायज है। लेकिन इस खेल में धूमल को इस तरह एक चुनावी जनसभा में इंगित करना एक बहुत बड़ी राजनीतिक चाल है। क्योंकि 2017 में चुनाव हारने के बाद वह आज तक पार्टी नेतृत्व के साथ न प्रदेश में और न ही केंद्र में किसी टकराव में आये हैं। हालांकि उनके खिलाफ इस दौरान मानव भारती विश्वविद्यालय के प्रकरण को उछाला गया था। उसके परिणाम दूरगामी और घातक होते यदि दस्तावेज साक्ष्य उनके खिलाफ होते। इस प्रकरण को उछालने वालों को इन साक्ष्यों की जानकारी ही नहीं थी और उस समय जयराम प्रशासन की भी यही सबसे बड़ी भूल थी।
लेकिन आज धूमल के खिलाफ 2017 में हुये षडयंत्र का प्रसंग चुनावी जनसभा में उछाल कर सुक्खू क्या हित साधना चाहते हैं यह राजनीतिक विश्लेषकों के लिये एक बड़ा सवाल बन गया है। क्योंकि आज राजेन्द्र राणा अपने राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगाकर भाजपा में शामिल हुये हैं। कांग्रेस में राज्यसभा चुनाव के दौरान हुआ क्रॉस वोटिंग का खेल भाजपा प्रायोजित था यह कांग्रेस का आज सबसे बड़ा आरोप और इस चुनाव का केंद्रीय मुद्दा बना हुआ है। क्योंकि भाजपा ने सभी क्रॉस वोटिंग करने वालों को इस चुनाव में प्रत्याशी बनाया है। हालांकि इसके लिये प्रदेश भाजपा में थोड़ा रोष भी देखने को मिला है। भाजपा में सब केन्द्र की अनुमति के बाद हुआ है। क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की किसी प्रदेश सरकार को अस्थिर करना भाजपा की राजनीतिक आवश्यकता बन गया था और इसके लिये हिमाचल सबसे उपयुक्त स्थान था। क्योंकि यहां पर विधायकों में नेतृत्व के खिलाफ रोष के स्वर सार्वजनिक होते जा रहे थे और हाईकमान के संज्ञान तक आ चुके थे। भाजपा की यह आवश्यकता इसलिये थी क्योंकि उसे व्यवहारिक रूप से कांग्रेस को अक्षम प्रमाणित करना था। इसी के लिये कांग्रेस के नेताओं को भाजपा में शामिल करवाया जा रहा था।
इस परिप्रेक्ष में यह कहना गलत होगा कि हिमाचल में जो कुछ घटा उस पर भाजपा हाईकमान की स्वीकृति और निर्देशन नही था। ऐसे में आज प्रदेश भाजपा का कोई भी बड़ा नेता केंद्र द्वारा निर्देशित किसी की योजना का विरोध करने की कल्पना भी नहीं कर सकता। निर्दलीय विधायकों के प्रकरण में आयी जटिलता के लिये प्रदेश नेतृत्व कितना जिम्मेदार है और छः बागियों के भाजपा उम्मीदवार बनने के बाद चुनाव में कौन परोक्ष/ अपरोक्ष में भीतरघात करने की जद में आता है इस पर कई स्तरों पर निगरानी चल रही है। कांग्रेस भाजपा पर धन बल के सहारे सुक्खू सरकार को गिराने के प्रयास करने के आरोप लगा रही है। लेकिन प्रदेश भाजपा के कई बड़े नेता इन आरोपों पर मौन साधकर चले हुये हैं। मुख्यमंत्री सुक्खू ने इसी मौन पर धूमल के माध्यम से प्रहार करने का प्रयास किया है ताकि भाजपा के अपने भीतर परोक्ष में एक वाकयुद्ध की स्थिति उभर जाये। वैसे आज तक सुक्खू ने धूमल-अनुराग के खिलाफ कभी जुबान नहीं खोली है और न ही धूमल-अनुराग ने सुक्खू पर कभी कोई निशाना साधा है।
ऐसे में सुक्खू के धूमल पर अपरोक्ष निशानों का असर क्या होता है यह देखने लाईक होगा। क्योंकि हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में यदि किसी भी विधानसभा उपचुनाव में भाजपा को कोई परेशानी या फिर हार का सामना करना पड़ता है तो उसकी सीधी जिम्मेदारी धूमल-अनुराग पर आ जायेे इसकी पृष्ठभूमि सुक्खू के खुलासे ने तैयार कर दी है। अब तक कांग्रेस और भाजपा में हमीरपुर क्षेत्र ए बी टीमें होने के जो आरोप लगते थे सुक्खू के खुलासे ने उसे पुखता कर दिया है। क्योंकि सुक्खू के ब्यान ने भाजपा में बैठे धूमल-अनुराग विरोधियों को भी मुखर होने का मौका दे दिया है।
शिमला/शैल। नामांकन वापसी के बाद चुनाव प्रक्रिया अब अंतिम चरण में दाखिल हो चुकी है। अब चुनाव मैदान में कांग्रेस और भाजपा के अतिरिक्त निर्दलीयों के साथ कुछ अन्य दल भी है। इन दलों की मौजूदगी इसलिये महत्वपूर्ण हो जाती है की विधानसभा चुनाव कांग्रेस केवल 0.6 प्रतिशत वोट के अन्तराल से ही जीत हासिल कर पायी है। उस समय भी कांग्रेस के चुनावी हथियारों में कर्मचारियों को ओ.पी.एस. और महिलाओं को 1500 रूपये प्रति माह और युवाओं को पांच लाख रोजगार देने के वायदे उपलब्ध थे। अब सरकार को सत्ता में आये पन्द्रह माह का समय हो गया है। इस पन्द्रह माह के कार्यकाल में क्या सुक्खू सरकार 0.6 प्रतिशत के अन्तराल को फांन्द कर अपने पक्ष में दो-चार प्रतिशत की बढ़ौतरी अर्जित कर पायी है। यह सवाल इन चुनावों में एक बड़ा सवाल बनकर कांग्रेस के आम कार्यकर्ता से लेकर मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्षा तक सबसे बराबर जवाब मांग रहा है। क्योंकि ओ.पी.एस को लेकर कई निगमों बोर्डांे के कर्मचारी अपना रोष व्यक्त कर चुके हैं। 2016 में हुये वेतनमान संशोधन के बकाया का भुगतान न हो पाने के कारण कई पैन्शन संगठन चुनावों के बहिष्कार तक की धमकी दे चुके हैं। लाहौल-स्पीति की 803 महिलाओं के बाद बाकी प्रदेश में अभी पन्द्रह सौ पाने के लिये केवल फॉर्म भरवाने का ही काम चल रहा है। फिर पन्द्रह सौ पाने की पात्रता के लिये जितनी शर्तें लगा दी गयी हैं उसके बाद यह लाभ व्यवहारिक रूप से मिल पाना अपने में प्रश्नित होकर रह गया है। यही स्थिति रोजगार के क्षेत्र में युवाओं की होती जा रही है। सरकार में 70 हजार पद खाली चल रहे हैं। इनमें से पन्द्रह माह में सरकार कितने भर पायी है इस आश्य के हर सवाल के जवाब में आंकड़े एकत्रित करने की ही सूचना दी गयी है। यह सवाल उठ रहा है कि जो सरकार पन्द्रह माह में परफॉर्म नहीं कर पायी है वह शेष बचे कार्यकाल में कैसे परफॉर्म कर पायेंगी?
विधानसभा के छः उपचुनाव छः बागियों द्वारा राज्यसभा में भाजपा प्रत्याशी हर्ष महाजन के पक्ष में क्रॉस वोटिंग करने के कारण उभरी राजनीतिक स्थिति का प्रतिफल है। इन बागियांे पर जनता के विश्वास को भाजपा की मण्डी में नीलाम करने का आरोप हर छोटे बड़े मंच से कांग्रेस के हर नेता द्वारा लगाया जा रहा है। इस संबंध में कांग्रेस के दो विधायकों द्वारा बालूगंज थाना में एक एफ.आई.आर. भी दर्ज करवाई गई है। जिसकी जांच रिपोर्ट अभी तक नहीं आयी है। इस एफ.आई.आर को रद्द करवाने की याचिका भी दूसरे पक्ष द्वारा प्रदेश उच्च न्यायालय में दायर है और अभी लंबित चल रही है। न तो एफ.आई.आर. की जांच पूरी हुई है और न ही इसे रद्द करवाने की याचिका पर कोई फैसला अब तक आ पाया है। सब कुछ लंबित चलते हुये जिस तरह से विधायकों के बिकने का आरोप हर मंच से दोहराया जा रहा है उससे स्पष्ट हो जाता है कि इस मामले में राजनीति से हटकर कुछ नहीं हो रहा है। क्योंकि इसी प्रकरण में एक और बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि क्या भाजपा ने राज्यसभा में सारा खेल कांग्रेस-भाजपा दोनों के 34-34 वोट बराबर होने के लिये खेला था? सामान्य राजनीतिक समझ भी 34-34 वोट बराबर होने के तर्क को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है। क्योंकि यदि पर्ची कांग्रेस के पक्ष में निकल जाती तो भाजपा को क्या लाभ मिलता। इसलिये यह गेम 34 की जगह 36 करने की थी जिसे सत्ता पक्ष नेे दो संभावित क्रॉस वोट मैनेज करके भाजपा का खेल बिगाड़ दिया। क्योंकि यदि भाजपा के पक्ष में 36 वोट पड़ जाते तो कांग्रेस के 32 वोट ही रह जाते और सरकार तभी गिर जाती। इसलिये दो वोट मैनेज करके सरकार को सदन में ही गिरने से बचा लिया गया। इस पर यह सवाल भी उठ रहा है कि जब दो वोट कंट्रोल करके सरकार बचा ली गयी तब छः बागी क्यों कंट्रोल नहीं किये गये? क्या इसलिये कि उनके जाने से सरकार को कोई खतरा नहीं था। यह सवाल चर्चा में भी नहीं आ पाया जबकि इस खेल का अपने में यह केंद्रीय प्रश्न है।
इसी तरह अब बागियों को बिकाऊ और भू-माफिया तथा खनन माफिया करार दिया जा रहा है। यह आरोप लगाया जा रहा है कि राजेन्द्र राणा और भूट्टों अपने क्रेशरों का काम लेकर ही मुख्यमंत्री के पास आते थे। भूट्टों और उसके बेटे के खिलाफ देहरा में एक एफ.आई.आर. भी दर्ज करवा दी गयी है। मुख्यमंत्री जो आरोप लगा रहे हैं संभव है कि उन में कुछ सच्चाई भी हो। परन्तु यह आरोप आज भूट्टों और राजेन्द्र राणा से ज्यादा तो मुख्यमंत्री से जवाब मांग रहे हैं। क्योंकि यह आरोप इनके बागी होने के बाद ही अब क्यों उठ रहे हैं। जब तक यह लोग कांग्रेस में थे और मुख्यमंत्री के साथ थे तब इन पर यह आरोप नहीं थे क्यों? क्या तब इनका सारा कारोबार वैध था? क्या कांग्रेस में रहते हुये सारी अवैधताएं दोष नहीं थी? क्या यह स्टोन क्रेशर बागी होने के बाद लगाये गये या अब इनके माध्यम से इन्हें परेशान करने के लिये प्रशासन को सक्रिय किया गया है। ऐसा लग रहा है कि मुख्यमंत्री के सलाहकार उन्हें अब भी सही राय देने के लिये तैयार नहीं है। आने वाले दिनों में यह कारवाई राजनीतिक तौर पर भारी पड़ने की संभावना ज्यादा बढ़ गयी है।
शिमला/शैल। देवाशीष भट्टाचार्य बनाम रचना गुप्ता मामले में प्रदेश उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति बिपिन चंद्र नेगी की एकल पीठ ने कहा है कि Exception 8 to Section 499 clearly indicates that it is not a defamation to prefer in good faith and accusation against any person to any of those who have lawful authority over that person with regard to the subject matter of accusation. इस आधार पर मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी की अदालत में रचना गुप्ता बनाम देवाशीष भट्टाचार्य मामले में चल रही कारवाई को निरस्त कर दिया है। यह मामला मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी की अदालत में 2021 में दायर हुआ था जिसका 9-5-2024 को उच्च न्यायालय में इस तरह निपटारा हुआ है।
स्मरणीय है कि जब डॉ. रचना गुप्ता जनवरी 2018 में प्रदेश लोकसेवा आयोग की सदस्य नियुक्त हुई थी तब उनके खिलाफ जोगिन्दर नगर की अदालत में एक आपराधिक मामला लंबित था जिसमें उस समय वह जमानत पर थी। देवाशीष भट्टाचार्य ने महामहिम राज्यपाल से इस संबंध में यह शिकायत कर दी कि रचना गुप्ता ने अपने खिलाफ आपराधिक मामला लंबित होने की सूचना राजभवन को नहीं दी है। रचना गुप्ता ने इस शिकायत पर देवाशीष भट्टाचार्य के खिलाफ आपराधिक मामला दायर कर दिया था। जिसका अब निपटारा हुआ है। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि लॉ फुल अथॉरिटी के पास की गई शिकायत मानहानि नहीं होती। लोकसेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति माहामहिम राज्यपाल करते हैं ऐसे में उनके पास दस्तावेज आधारित की गई शिकायत को अवमानना नहीं माना जा सकता।
इस फैसले से इस तरह के मामलों की स्थिति स्पष्ट हो गयी है। बहुत सारे ऐसे मामले भी सामने आये हैं जिनमें शिकायत की विधिवत्त जांच किये बिना ही शिकायतकर्ता को प्रताड़ित करने की घटनाएं घट चुकी हैं। बल्कि मानहानि को प्रताड़ना का हथियार बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा था। प्रभावशाली लोग इसका खुलकर दुरुपयोग कर रहे हैं। अब इस पर रोक लगने की संभावनाएं बन गयी हैं।