Thursday, 18 September 2025
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नियमो के खेल में चढ़ी जन मुद्दो की बलि सत्र के एक भी दिन नही हो पाया प्रश्नकाल

शिमला/शैल। वर्तमान विधानसभा के चार दिन के अन्तिम सत्र में एक भी दिन प्रश्नकाल नही हो पाया। क्योंकि भाजपा ने सत्र के पहले ही दिन प्रश्नकाल स्थगित करके नियम 67 के तहत प्रदेश की कानून एवं व्यवस्था पर चर्चा करने का प्रस्ताव दिया था। अध्यक्ष बृज बिहारी बुटेल ने भाजपा के इस आगृह को अस्वीकार करते हुए सुझाव दिया मुद्दे पर नियम 67 की बजाये नियम 130 के तहत चर्चा करवाई जा सकती है। सरकार भी इस पर नियम 130 के तहत चर्चा के लिये तैयार थी। लेकिन भाजपा इस पर नियम 67 के तहत ही चर्चा के लिये अडी रही और परिणामस्वरूप पूरा सत्र शोर-शराबे और नारेबाजी के बीच ही निकल गया। प्रदेश की कानून और व्यवस्था पर चर्चा का मुद्दा कोटखाई के गुड़िया प्रकरण पर उभरे जनाक्रोश की पृष्ठभूमि में भाजपा के हाथ लगा था और इसी प्रकरण सदन में भी यह नारा आया कि ‘‘गुड़िया हम शर्मिन्दा है तेरे कातिल जिनदा है’’।
स्मरणीय है कि यह गुड़िया प्रकरण अब जांच के लिये सीबीआई के पास पिछले डेढ़ महीने से चल रहा है। इस मामले में प्रदेश में एक जनहित याचिका भी आ चुकी है और उच्च न्यायालय ने तो इस मामले पर स्वतः ही 10 जुलाई को संज्ञान ले लिया था। बल्कि सीबीआई को मामला सौंपने में भी न्यायालय के निर्देश महत्वपूर्ण है। उच्च न्यायालय इस मामले पर अपनी नज़र भी बनाए हुए है तथा सीबाआई से स्टे्टस रिपोर्ट भी तलब की जा रही है। गुड़िया न्याय मंच के नाम से अभी भी इस मामले में धरना चल रहा है। इस मामले पर उभरे जनाक्रोश में उग्र भीड़ ने कोटखाई पूलिस थाने को आग तक लगा दी थी। इसमें थाने का रिकार्ड तक जला दिया गया। हर तरह का नुकसान यहां पर हुआ। यहीं पर एक कथित आरोपी सूरज की पुलिस कस्टडी में हत्या तक हो गयी। पुलिस ने इसका आरोप दूसरे आरोपी पर लगाया है। नाबालिग गुड़िया से हुए गैंगरेप और फिर हत्या तथा पुलिस कस्टडी में हुई आरोपी सूरज की मौत के दोनो मामलों की जांच अब सीबीआई के पास है लेकिन किसी भी मामले में अब तक कोई परिणाम सामने नही आया है। यही नही कोटखाई और ठियोग पुलिस थानों में जो आगजनी और तोड़-फोड़ हुई है उस पर पुलिस ने बाकायदा मामले दर्ज किये हुए हैं। इन घटनाओं के मौके के विडियोज उस समय सामने आ गये थे पुलिस के पास भी इसकी जानकारी है लेकिन इस मामले में भी अब तक कोई कारवाई सामने नही आयी है।
इस परिदृश्य में जब प्रदेश की कानून और व्यवस्था पर चर्चा का मुद्दा सदन में सामने आया तो उम्मीद हुई थी कि अब प्रदेश की जनता के सामने आयेगा कि किस मामले की जांच मे पुलिस ने कहां क्या किया है। क्या सच में ही असली आरोपीयों को बचाने का प्रयास किया है पुलिस ने। इसी के साथ यह भी सामने आता कि जनाक्रोश के नाम पर जन संपति को हानि पहुंचाने वाले लोग कौन थे? किन लोगों ने कोटखाई पुलिस थाने के मालखाने में जाकर लूटपाट की? किसने वहां रिकार्ड को आग के हवाले किया? लेकिन पक्ष और विपक्ष के नियमों के खेल में जनता के यह सारे मुद्दे बलि चढ़ा दिये गये। जबकि चर्चा चाहे नियम 67 में होती या नियम 130 में मुद्दे की विषयवस्तु पर कोई फर्क नही पड़ना था। इस चर्चा में प्रदेश के सामने यह आ जाता कि 2014 से लेकर 31.3.17 तक हत्या, बलात्कार और आत्महत्या के कुल 1621 मामले घट चुके हैं जिनमें 1618 की जांच प्रदेश पुलिस और 3 की जांच सीबीआई के पास है। वर्षवार यह आंकड़े इस प्रकार है।
लेकिन इन मामलों पर अब तक गुड़िया मामले जैसा जनाक्रोश देखने को नही मिला है। इनमें पुलिस जांच कहां कितनी पक्षपात-पूर्ण और कितनी निष्पक्ष रही होगी इस पर कोई कुछ कहने की स्थिति में नही है। क्योंकि इनके लिये कभी कोई न्याय मंच नही बन पाया था। शायद यह मंच इसलिये नही बन पाया होगा क्योंकि उस समय कोई विधानसभा चुनाव नही थे। अन्यथा बलात्कार के इन मामलों में भी कई नाबालिग और स्कूल छात्राएं रही होंगी।

ये है 4 सालों  का अपराध रिकार्ड
वर्ष             2014              2015                2016               2017
हत्या           142                106                  101                  61
बलात्कार       284               244                   253                145
आत्महत्या      88                 74                     75                  48

जांच की स्थिति
                                कुल मामले              जांच पूर्ण                    लंबित
हत्या                             410                            359                                51
बलात्कार                        926                             831                               95
आत्महत्या                      285                             236                               49


क्या आखिरी सत्र मैच फिक्सिंग था

शिमला/शैल। विधानसभा के आखिरी सत्र में चारो दिन प्रश्नकाल नियमों के खेल की भेंट चढ़ा दिया गया। प्रश्नकाल से सदन कार्यवाही शुरू होती है और इसी प्रश्नकाल में सरकार विभिन्न विषयों पर आये विधायकों के प्रश्नो का उत्तर देती है। तारांकित प्रश्नों का उत्तर संबधित मन्त्री का सदन में प्रश्नकर्ता को सीधे देना पड़ता है और अतांरिकत का लिखित में सदन में आता है। प्रश्न पूछने में यह भी प्रावधान है कि प्रश्नकर्ता विधायक के अतिरिक्त अन्य विधायक भी मन्त्री का जबाव सुनने के बाद उस पर अनुपूरक प्रश्न पूछ सकते है। कई बार कई प्रश्नों पर काफी लम्बी चर्चा तक हो जाती है। इस तरह प्रश्न पूछने का प्रावधान केवल प्रश्नकाल में ही है और संभवतः इसी कारण से प्रश्नकाल को स्थगित नही करने का प्रयास किया जाता है। इसमें तो यहां तक बंदिश है कि similarly a matter which can be rised under any other procedural device, viz, calling attention notices, questions, short notice questions, half-an-hour discussions, short duration discussions, etc. 81 cannot be raised through an adjournment motion 82.

इसीलिये नियम 296(3) में यह प्रावधान किया गया है।  The Speaker may in his discretion, convert any notice from one rule to another rule. भाजपा ने कानून एवम व्यवस्था पर चर्चा की मांग नियम 67 के तहत की थी। नियम 67 में प्रश्नकाल को स्थगित करके चर्चा करवाने का प्रावधान है। स्थगन प्रस्तावों पर नियम 67 से लेकर नियम 74 तक पूरी प्रक्रिया तय है। इसमें नियम 69(8) में यह कहा गया है कि The  Motion shall not deal with any matter which is    under     adjudication by a Court of Law having jurisdiction in any part of India and जबकि नियम 130 के तहत स्पष्ट है कि इसमें Motion to    consider policy,  situation, Statement, report or any other matter पर चर्चा की जा सकती है।
सरकार इस नियम के तहत चर्चा को तैयार थी लेकिन भाजपा को यह स्वीकार नही हुआ। परन्तु नियमों के इस खेल मेें केवल प्रश्नकाल की ही आहुति दी गयी। जबकि सत्र के अन्तिम भी प्रश्नकाल को इसी प्रतिष्ठा की भेंट चढ़ा कर बाद में अन्तिम सौहार्द के नाम पर एक विश्वविद्यालय खोलने का बिल पास कर दिया गया। इसके लिये दोनों पक्षों में सौहार्द बन गया। जबकि इस सत्र में भाजपा का प्रश्न था कि उसके इस कार्यकाल में सौंपे आरोप पत्रों पर क्या कारवाई हुई है। यह भी प्रश्न था कि 1.1.2013 से 31.10.2016 तक कितने कर्मचारी अनुबन्ध पर नियुक्त किये और इनमें से कितने नियमित हो पाये हैं। लेकिन यह जानकारियां सिर्फ सवाल बन कर ही रह गयी। इन पर सरकार की कारगुजारी क्या रही है। यह सामने नही आ पाया। वैसे सूत्रों के मुताबिक आरोप पत्रों पर अब तक कोई कारवाई नही हुई है और सरकार ने इस कार्यकाल में केवल 25159 कर्मचारियों की भर्ती अनुबन्ध के आधार पर की है और इनमें से 6901 को ही नियमित किया जा सका है। नियमों की इस स्थिति से जनता स्वयं आंकलन कर सकती है कि पक्ष और विपक्ष में से कौन कितना सही था। जबकि राजनीतिक विश्लेष्को की नजर में अन्तिम सत्र को मैच फिक्सिंग से अधिक कुछ नही था।

वीरभद्र की धमकी के बाद सरकार और संगठन का टकराव पहुंचा अन्तिम मोड पर

शिमला/शैल। कांग्रेस में चल रहा सरकार और संगठन का टकराव अब एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गया है जहां किसी एक का नुकसान होना तय है। वीरभद्र सिंह ने चुनावों से पूर्व संगठन पर पूर्ण कब्जे के लिये अपना आखिरी दाव चल दिया है। वीरभद्र ने हाईकमान को स्पष्ट संकेत दे दिये हैं कि जिस ढंग से संगठन चल रहा है उसमें वह चुनावों में पार्टी का नेतृत्व नही कर सकते। संगठन और सरकार का यह टकराव तो वीरभद्र सिंह के शपथ लेने के साथ ही शुरू हो गया था। क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ था कि नेता के चुनाव के समय विधायक दल आधा-आधा बंट गया था। इसी कारण से विभिन्न निगमो/बोर्डो में हुई ताजपोशीयों को लेकर चला यह टकराव आज इस मुकाम पर पहुंच गया। इस दौरान विद्या स्टोक्स, कौल सिंह ठाकुर और जीएस बाली जैसे मन्त्रीयों ने कई बार अपने-अपने तरीके से वीरभद्र को चुनौती देने के प्रयास किये। लेकिन कोई भी सफल नही हो सका। आनन्द शर्मा और आशा कुमारी भी इस खेल के परदे के पीछे के खिलाड़ी रहे हैं। राजेश धर्माणी और राकेश कालिया तो अपने पदों से त्यागपत्र देने तक पहुंच गये थे। लेकिन यह सब लोग मिलकर भी हाईकमान को आश्वस्त नही करवा पाये कि प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की आश्यकता है। न ही यह लोग अपने स्टैण्ड को अन्तिम परिणाम तक ले जा पाये। बल्कि सबकी यही छवि बनती चली गयी कि इनकी नाराजगियां केवल अपने-अपने काम निकलावने के लिये थी।
दूसरी ओर सुक्खु ने भी संगठन में अपनी ईच्छा से पदाधिकारियों की नियुक्तियां करनी शुरू कर दी। वीरभद्र ने भी इन नियुक्तियों के विरोध में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। यहां तक की वीरभद्र के समर्थकों ने उनकेे नाम से एक बिग्रेड़ खड़ा कर दिया। यह बिग्रेड़ एक प्रकार से समानान्तर संगठन बन गया। जब इसका संज्ञान लेकर कुछ शीर्ष लोगों के खिलाफ अनुशासन की कारवाई शुरू हुई तो इसे भंग करके इसे एक एनजीओ के रूप में पंजीकृत करवा दिया गया। यही नही इसके प्रमुख ने सुक्खु के खिलाफ मानहानि का मामला तक दायर कर दिया जो अब तक चल रहा है। संयोगवश इस बिग्रेड से बने एनजीओ और विभिन्न निगमो/बोर्डो में ताजपोशीयां पाने वाले अधिकांश लोगों की वफादारीयां और वीरभद्र के बेटे युवा कांग्रेस के अध्यक्ष विक्रमादित्य समय-समय पर आने वाले विधानसभा चुनावों में टिकट दिये जाने के मानदण्डोें को लेकर ब्यान देते आये हैं। लेकिन जब सरकार और संगठन में यह सब चल रहा था तब उस समय की प्रभारी चुपचाप आंख बन्द करके तमाशा देखती रहीं। शायद उन्होने हाईकमान को इस सबके बारे में कभी कोई जानकारी दी ही नही है। बल्कि इसी दौरान कांग्रेस के कुछ मन्त्रीयों  सहित कई नेताओं के नाम इस चर्चा में आ गये कि यह लोग कभी भी भाजपा का दामन थाम सकते हैं। भाजपा भी यह खुला दावा करती रही कि कांग्रेस के कई लोग उसके संपर्क में चल रहे हैं। वीरभद्र के परिवहन मन्त्री जीएस बाली के प्रदेश से लेकर दिल्ली तक भाजपा के कई बड़े नेताओं के साथ बहुत निकट के संबंध हैं और इन्ही संबन्धों ने इन अटकलों को और हवा दी कि भाजपा का दावा सच हो सकता है। इसी पृष्ठभूमि में जब पिछले दिनों शिंदे की मौजूदगी बाली के कांगड़ा में कार्यकर्ता सम्मेलन हुआ तो उसमें जिस तर्ज में बाली और अन्य नेताओं ने मंच से जो खुला प्रहार वीरभद्र के खिलाफ किया उससे यह और भी पुख्ता हो गया कि कुछ लोग भाजपा का दामन थामने की तैयारी में है। इस सम्मेलन के बाद हुए विधानसभा के आखिरी सत्र में भाजपा के हमले का जबाव देने के लिये कौल सिंह और मुकेश अग्निहोत्राी के अतिरिक्त कोई आगे नही आया। अब इस परिदृश्य में वीरभद्र ऐसी टीम का चुनावों में नेतृत्व करने का जोखिम क्यों और कैसे उठायें यह सवाल आज प्रदेश से लेकर दिल्ली तक सबके लिये गंभीर मुद्दा बन गया है।
लेकिन इसी के साथ एक बड़ा सच यह है कि वीरभद्र और सुक्खु दोनों ही पक्ष बराबर के कमजोर भी है। क्योंकि किसी के पास भी भाजपा के खिलाफ ठोस आक्रामकता अपनाने वाला कोई नेता नही है। वीरभद्र खेमें को सबसे बड़ा रणनीतिकार माने जाने वाले हर्ष महाजन तो जब वह आवास मन्त्री के रूप में विवादित हुए थे तब से लेकर आज तक चुनाव लड़ने का साहस ही नही कर पाये हैं। आशा कुमारी के सिर पर भी केस की तलवार लटकी हुई है। वीरभद्र के मन्त्री मुकेश, सुधीर, भरमौरी और प्रकाश चौधरी तो स्वयं भाजपा के निशाने पर चल रहे हैं फिर अपना चुनाव क्षेत्रा छोड़कर भाजपा पर अटैक का समय कैसे निकाल पायेंग। फिर चुनाव तो सरकार के काम काज पर लड़ा जाता है और वीरभद्र सरकार इस पूरे कार्यकाल में भाजपा नेताओं को किसी भी मामले में घेर ही नही पायी है। इसमें वीरभद्र के गिर्द बैठे अधिकारियों और विजिलैन्स टीम की जो भूमिका रही है उससे सरकार की केवल फजीहत ही हुई है। प्रदेश अध्यक्ष सुक्खु के लिये इस बार भी उनका गृहक्षेत्र नादौन सुरक्षित नही है। वह शायद शिमला से लड़ने के प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में आज प्रदेश में कांग्रेस का सबकुछ आकर एक प्रकार से वीरभद्र के गिर्द ही केन्द्रित होकर रह गया है। लेकिन वीरभद्र इसी के साथ अपने मामलों में भी उलझे हुए हैं और इसी के लिये उन्हे न केवल चुनाव लड़ना ही बल्कि जीतना भी राजनीतिक विवशता बन गयी है।

कोटखाई प्रकरण से जुड़े शिमला पुलिस के अधिकारीयों को बनाया गया प्रतिवादी सबको अलग - अलग शपथ पर दायर करने के निर्देश

 

 

शिमला/शैल।  कोटखाई  क्षेत्र की दसवीं कक्षा की नाबालिग छात्रा की हत्या और गैंगरेप मामले की जांच पिछले एक माह से सीबीआई के पास है। इस एक माह की जांच में सीबीआई किस नतीजे पर पहुंची है इसकी कोई जानकारी अधिकारिक तौर पर सामने नही आयी है। सीबीआई को यह मामला स्थानीय पुलिस की जांच पर उभरे सन्देहों के परिणाम स्वरूप सामने आये जनाक्रोश के दवाब पर सौंपा गया था। जनाक्रोश के दवाब मे सरकार ने सीबीआई को पत्र भेजकर इस मामले की जांच अपने हाथ में लेने का आग्रह किया था। लेकिन जब सरकार के इस आग्रह पर सीबीआई ने तत्परता  नही दिखाई तब उच्च न्यायालय ने सीबीआई को यह जांच अपने हाथ में लेने के निर्देश दिये क्योंकि अदालत पहले ही मामले का संज्ञान ले चुकी थी। इसी संज्ञान के कारण उच्च न्यायालय एक प्रकार से इसकी निगरानी भी कर रहा है और इसी निगरानी के तहत सीबीआई दो बार इसमें स्टे्टस रिपोर्ट दायर कर चुकी है। सीबीआई ने पहली रिपोर्ट सौंपने पर ही इस जांच के लिये दो माह का समय मांगा था जिसे अस्वीकार कर दिया गया था। अब दूसरी रिपोर्ट सौंपने के बाद उच्च न्यायालय ने सीबीआई को दो सप्ताह में यह जांच पूरी करने को कहा है।
 लेकिन सीबीआई की दूसरी रिपोर्ट को देखने के बाद उच्च न्यायालय ने शिमला पुलिस के नौ अधिकारियों ज़हूर ज़ैदी, आईजी भजन देव नेगी, एएसपी, मनोज जोशी, डीएसपी रत्न सिंह, डीएसपी धर्म सेन, दीप चन्द, राजीव कुमार और राजेन्द्र सिंह को इस मामले में प्रतिवादी बनाकर इनसे व्यक्तिगत रूप में इस संद्धर्भ में शपथ पत्र दायर करने के निर्देश दिये हैं। इसमें डीजीपी पहले ही प्रतिवादी है। उच्च न्यायालय ने अपने निर्देश में कहा है

We direct respondents No.9 to 17 to file their personal affidavits, narrating the facts which came to their knowledge during the course of investigation so conducted by them or in any manner while dealing with FIR No.97 of 2017 and FIR No. 101 of 2017 so registered at police station, Kotkhai, District Shimla, H.P. They shall also disclose such facts which have otherwise come to their knowledge in connection with the crime in question, Also the basis which led to the conclusion of the alleged complicity of all the accused, including the one who died in police custody.

We direct that such affidavits be filed in the Registry of this Court in a sealed cover, with an accompanying affidavit stating that the contents of the affidavit placed in the sealed cover is sworn by them and that contents thereof, are true and correct to their personal knowledge and belief as also noting material stands concealed by them. Needful shall positively be done before the next date.

सीबीआई ने जब से मामला अपने हाथ में लिया है उसके बाद इसमें कोई और गिरफ्तारी नही हुई है। सीबीआई द्वारा मामला संभालने से बहुत पहले ही नाबलिग पीड़िता के शव का पोस्टमार्टम होेने के बाद उसका अन्तिम संस्कार कर दिया गया था। लेकिन पुलिस कस्टडी में मारे गये आरोपी सूरज के शव  का अन्तिम  संस्कार नही हो सका था। इसलिये सीबीआई ने अपने सामने भी इसका पुनः निरीक्षण करवाया है लेकिन दोनों रिपोर्टें एक जैसी है या इनमे कोई भिन्नता पायी गयी है इस बारे में कुछ भी  बाहर नही आया है। इसी तरह जहां नाबालिग छात्रा का शव मिला था उस स्थल और उसके आस-पास के सारे स्थलों का निरीक्षण भी सीबीआई नये सिरे से कर चुकी है। कई लोगों से पूछताछ और कुछ के खून के नमूने तक ले चुकी है। गुड़िया के स्कूल में अध्यापकों और बच्चों से भी जानकारी ले चुकी है। कोटखाई और ठियोग पुलिस थानों का भी निरीक्षण कर चुकी है। पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टर से भी जानकारी ले चुकी है। फाॅरैन्सिक रिपोर्ट के परिणाम सीबीआई को मिल चुके हैं। लेकिन इस सबका अन्तिम परिणाम अब तक सामने नही आया है। पुलिस कस्टडी में हुई मौत का शक पुलिस पर ही जा रहा है। यह मृतक सूरज की पत्नी के मीडिया के माध्यम से सामने आये ब्यान से लेकर अब कोटखाई थाने के संत्तरी का ब्यान सामने आने से स्पष्ट हो चुका है लेकिन अभी तब सीबीआई सूरज की हत्या के मामले में भी कोई कारवाई सामने नही लायी है।  सूरज की हत्या के मामले में भी अभी तक आरोप राजू तक ही सीमित है। इसी तरह नाबालिग की हत्या और रेप का आरोप भी उन्ही लोगों के गिर्द है जिनको पुलिस पहले ही गिरफ्तार कर चुकी है। जबकि गुड़िया का स्कूल से निकलने का समय स्कूल के अध्यापकों और छात्रों के अनुसार शाम के 4 बजे से 4ः15 बजे का है और पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का समय भी 4 बजे से 5 बजे के बीच कहा गया है। जिसके मुताबिक स्कूल से निकलने और मौत होने के बीच कुल एक घन्टे का समय है और एक घन्टे में छः लोग रेप करने के बाद हत्या भी कर गये इस पर आसानी से विश्वास नही होता। फिर मृतका के परिजनों ने 4 और 5 तारीख को पुलिस को लड़की के घर आनेे की सूचना क्यों नही दी? क्योंकि एफआईआर के मुताबिक पुलिस को 6 तारीख को लाश मिलने के बाद सूचित किया गया। परिजनों ने पुलिस को देर से क्यों सूचित किया? क्या  उन पर कोई दवाब था? इसी तरह मुख्यमन्त्री के अधिकारिक फेसबुक पेज पर चार लोगों के फोटो किसकी सूचना पर अपलोड़ हुए और फिर किसके निर्देश पर हटाये गये? इन सवालों का जवाब अभी तक सामने नहीं आया है।
अब सीबीआई की रिपोर्ट देखने के बाद पुलिस जांच से जुड़े लोगों को प्रतिवादी बनाने के बाद उनके आने वाले शपथपत्रों में क्या अतिरिक्त जानकारी आती है उससे अदालत किस निष्कर्ष पर पहुंचती है और इन शपथ पत्रों और सीबीआई की स्टे्टस रिपोर्ट में कितना तालमेल बैठता है या विरोधाभास रहता है इसका खुलासा तो आने वाले समय में ही सामने आयेगा। लेकिन इस मामले में और खासतौर पर  सूरज के हत्या के मामले में भी सीबीआई द्वारा अब तक कोई बड़ी कारवाई सामने न आना यही इंगित करता है कि सीबीआई के पास अब तक कुछ ठोस नही है या फिर यह कारवाई चुनावों के आस-पास होगी क्योंकि इस आश्य की चर्चाएं चल पड़ी है लेकिन इसी के साथ यह भी माना जा रहा है कि अब विधानसभा सत्र के दौरान सदन में यह मुद्दा उठ सकता है और हो सकता है कि इस दौरान सीबीआई कुछ लोगों की पकड़- धकड़ के लिये छापेमारीयां शुरू कर दे।


 

 

क्या कुछ नेता पार्टी छोड़ने का मन बना चुके है कांग्रेस की गुटबन्दी के मायने से उभरा सन्देह

 

 

शिमला/शैल। कांग्रेस के नये प्रभारी शिंदे के प्रयासों के बावजूद संगठन में उभरी गुटबन्दी लगातार बढ़ती और खुलकर सामने आती जा रही है। पिछले दिनों बाली के गृहक्षेत्र नगरोटा में हुए कार्यकर्ता सम्मेलन के दौरान जिस तर्ज में निखिल राजौर और स्वयं बाली ने मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह पर शिंदे की मौजूदगी मे प्रहार किये है उससे स्पष्ट हो जाता है कि आने वाले दिनों में पार्टी के भीतर कोई बड़ा विस्फोट होने वाला है। इस समय सुक्खु की अध्यक्षता में पार्टी उसी तरह के घटनाक्रम की ओर बढ़ती जा रही है जिस तरह का विपल्लव की अध्यक्षता में 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान हमीरपुर से पार्टी उम्मीदवार के चयन को लेकर उभरा था। फर्क सिर्फ इतना सा है कि उस समय भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर आज के पायदान पर नही थी। क्योंकि आज भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रमाणित कर दिया है कि उसे राजनीतिक दलों में तोड़ फोड़ करने से कोई परहेज नही है। क्योंकि हिमाचल के संद्धर्भ में यह स्पष्ट है कि इस बार सरकार बनने के साथ ही सरकार और संगठन में टकराव शुरू हो गया था। बाली, धर्माणी, कालिया आदि नेता इस टकराव के प्रमुख किरदार रहे हैं। कई बार कईयो के त्यागपत्रों की चर्चाएं उठी और कई अन्य नाम भी इस टकराव के साथ जुडे़। सुक्खु, आनन्द शर्मा, आशा कुमारी जैसे बडे़ नाम भी इस सूची में जुड़े। यह सब शायद इसलिये भी हुआ क्योंकि जब नेता का चयन हुआ था उस समय 36 में से 18 विधायक ही वीरभद्र सिंह के साथ थे। राजनीतिक विश्लेषको का मानना है कि इसी टकराव के कारण वीरभद्र की विजिलैन्स पार्टी के उस आरोप पत्र को भी सिरे नही चढ़ा सकी जो उसने धूमल शासन के खिलाफ तब महामहिम राष्ट्रपति को सौंपा था। इस आरोप पत्र को लेकर भी शीर्ष नेताओं के ब्यान परस्पर विरोधी रहे है।
 लेकिन इस सबके बावजूद अपने स्थान पर बने रहे और सुक्खु अपने पर। क्योंकि सब अपने अपने  राजनीतिक स्वार्थो से बन्धे हुए थे विचारधारा और जनहित केवल दिखावे के उपकरण थे। इस परिदृश्य में आज जब चुनाव एकदम सिर पर है और कांग्रेस का ग्राफ राष्ट्रीय स्तर पर कमजोर चल रहा है। तब प्रदेश कांग्रेस के नेताओं का अपनी गुटबन्दी को सार्वजनिक मंचो से नंगा करना राजनीतिक भाषा में कुछ और ही पढ़ने को मजबूर करता है। क्योंकि आज चुनावों के परिदृश्य में जहां भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर आक्रामक होने की आवश्यकता है वहां नेता एक दूसरे के खिलाफ इस तरह से प्रहार करे तो निश्चित है कि यह लोग कोई नया गुल खिलाने की तैयारी मे है।
पार्टी की इस गुटबन्दी का प्रभाव शीर्ष प्रशासन पर भी स्पष्ट नजर आ रहा है पिछले काफी अरसे से मीडिया में यह प्रचार चल रहा था कि 15 अगस्त को मुख्यमन्त्री कुछ नये जिलों के गठन की घोषणा करने वाले हैं। इन नये जिलोें मे रामपुर का नाम भी लिया जा रहा था। फिर जब 15 अगस्त का प्रोग्राम मुख्यमन्त्राी का रामपुर का हो गया तो इन क्यासों को पुख्ता आधार मिल गया। रामपुर में हर किसी को उम्मीद हो गयी थी कि जिले की घोषणा हो जायेगी। लेकिन जब झण्डा फहराने के बाद मुख्यमन्त्री के भाषण में जिले की घोषणा नही हुई तब लोगों  में रोष फैल गया। परिणाम यह हुआ कि भाषण के बाद सांस्कृतिक प्रोग्राम का इन्तजार किये बिना ही लोग पंडाल से उठकर चले गये जबकि वीरभद्र और नन्दलाल मंच पर बैठे हुए थे। रामपुर अपने घर के आंगन से वीरभद्र के सामने लोग उठकर चले जायें तो वीरभद्र जैसेे व्यक्तित्व के लिये इससे बड़ा राजनीतिक झटका क्या हो सकता है। लेकिन जो कुछ हुआ उसके लिये सबसे अधिक प्रशासन जिम्मेदार है। जो यह आंकलन ही नही कर पाया कि लोगों को वहां मुख्यमन्त्री से क्या उम्मीद है। क्या सीआईडी ने इस बारे में कोई फीडबैक नही दिया था या उससे सचिवालय ने नजर अन्दाज कर दिया था। क्योंकि जब मीडिया में जिले बनाये जाने को लेकर एक नियमित प्रचार चल पड़ा था तब क्या उस पर शीर्ष प्रशासन का ध्यान नही गया? जो राजनीतिक फजीहत रामपुर में हुई है उसे रोका जा सकता था यदि शीर्ष प्रशासन सजग होता। रामपुर के घटनाक्रम का संदेश स्वयं जिला शिमला में भी नकारात्मक गया है।
यदि आज सरकार और संगठन के बढ़ते टकराव पर विराम न लगा तो तय है कि इससे आने वाले समय में भारी नुकसान होगा। क्योंकि आज सरकार और संगठन का एक भी व्यक्ति भाजपा के खिलाफ आक्रामक नही हो पा रहा है जबकि वीरभद्र से अपने -अपने काम करवाने के लिये लोग लगातार लाईने लगाकर खड़े है लेकिन वीरभद्र के समर्थन में खुलकर आने का साहस नही है। अभी विधानसभा के इस सत्र में यह स्थिति पूरी तरह स्पष्ट हो जायेगी कि भाजपा सरकार और वीरभद्र को किन-किन मुद्दों पर घेरती है और उसका कारगर जवाब देने क लिये कौन- कौन सामने आता है।


 

 

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