Thursday, 18 September 2025
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मुख्यमन्त्री के साथ फोटो के सहारे ही हो गयी एक प्रवासी भारतीय से धोखाधड़ी

शिमला/शैल। फरीदाबाद के एक ओपी शर्मा ने मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह के साथ अपने फोटो दिखाकर एक अमरीका का लोरिडा निवासी प्रवासी भारतीय सुरेन्द्र सिंह बेदी के साथ धोखा धड़ी किये जाने का मामला चर्चा में आया है। इस मामलें को पूर्व मुख्यमन्त्री प्रेम कुमार धूमल के बेटे अरूण धूमल ने हमीरपुर और फिर सोलन में पत्रकार वार्ता करके जन संज्ञान में लाकर खड़ा किया है। आरोप है कि इस धोखा धड़ी में वीरभद्र मन्त्रीमण्डल के ही एक सहयोगी मन्त्री और एक निगम के उपाध्यक्ष ने भी भूमिका निभाई है। यह भूमिका एक गैर कृषक और गैर हिमाचली को प्रदेश के भू सुधार अधिनियम की धारा 118 के तहत जमीन खरीद की अनुमति हासिल करने के संद्धर्भ में रही है। आरोप है कि यह अनुमति हासिल करने के लिये 56 लाख रूपये की रिश्वत दी गयी है। अरूण धूमल ने दावा किया है कि इस मामले में अब तक हुई जांच में कई खुलासे अब तक सामने आये हैं जिन्हे वह शीघ्र ही सार्वजनिक करेंगे। इस मामले की गंभीरता वीरभद्र के मन्त्री ठाकुर सिंह भरमौरी द्वारा दी गई प्रतिक्रिया से और बढ़ जाती है क्योंकि भरमौरी ने इस मामले में अपनी संलिप्तता से तो इन्कार किया है लेकिन वह धोखा देने वाले ओपी शर्मा को कितना जानते हैं या नहीं इस बारे में कुछ नही कहा है। इसी से यह सन्देह उभरता है कि संभवतः इन लोगों की ओपी शर्मा से अच्छी जान पहचान रही हो।
आरोप है कि इस प्रवासी भारतीय को सोलन के कण्डाघाट में तीन करोड़ की जमीन 23 करोड़ में देने का खेल खेला जा रहा था। अरूण धूमल ने प्रधानमन्त्री से गुहार लगाई है कि इस मामलें की जांच करवाई जाये। अरूण धूमल ने जिस तर्ज में यह मामला उठाया है उससे इसके छींटे अपरोक्ष में मुख्य कार्यालय तक भी पहुंचते हैं। इसलिये इस प्रकरण में दर्ज हुई एफआईआर पाठकों के सामने रखी जा रही है। यह एफआईआर सीजेएम फरीदाबाद की अदालत में सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत मामला जाने के बाद दर्ज हुई है। एफआईआर के मुताबिक प्रवासी भारतीय सुरेन्द्र सिंह वेदी की दिल्ली में पहले की भी संपत्ति है और वह भारत के साथ अपने रिश्ते बढ़ाने के लिये यहां पर और निवेश करना चाहता था। इस निवेश की ईच्छा से वह एक प्रापर्टी डीलर मुल्क राज जुनेजा के संपर्क में आया और जुनेजा के माध्यम से ओपी शर्मा के संपर्क में आया। यह संपर्क 5.3.2014 से शुरू हुआ और ओ पी शर्मा ने जुनेजा को किनारे करके वेदी से सीधे संबंध बना लिये। ओपी शर्मा ने संबन्ध बढ़ाते हुए बेदी को अपने प्रभाव में लेकर यहां पर प्रापर्टी में निवेश करने के लिये प्रोत्साहित किया और 17.3.2014 को उसे कण्डाघाट लेकर आ गया। काण्डाघाट में बेदी को एक होटल और उसके साथ लगती जमीन दिखाई गयी। ओपी शर्मा ने दावा किया कि यह जमीन उसकी है और इसमें उसका एक हिस्सेदार अनिल चौधरी है जो कि एक इन्सपैक्टर है और वह उसे हटाना चाहता है। इस पृष्टभूमि में ओपी शर्मा बेदी के साथ जमीन बेचने का एक अनुबन्ध साईन कर लेता है। यह सारा क्रम 5.3.2014से शुरू होकर 17.4.2015 तक चलता है। इस बीच बेदी शर्मा को 2,62,84,010 रूपये की किश्तों में पैमेन्ट भी कर देता है। इतना पैसा देने के बाद भी जब ओपी शर्मा बेदी को जमीन की मलकियत के मूल दस्तावेज नही देता है तब वह 17.4.2015 को स्वंय कण्डाघाट आता है और यहां आकर उसे पता चलता है कि जमीन शर्मा के नाम है ही नहीं और उसके साथ बड़ा धोखा हुआ है।
इसके बाद वह ओपी शर्मा से अपने पैसे वापिस मांगता है जो उसे नही मिलते हैं। उसने सोलन पुलिस से भी सहायता मांगी लेकिन नही मिली। फरीदाबाद पुलिस ने भी उसकी नहीं सुनी और अन्त में 156(3) के तहत उसे अदालत से गुहार लगानी पड़ी और फिर यह एफआईआर दर्ज हुई। लेकिन इसमें ओपी शर्मा के अलावा और किसी का नाम नही है। इस प्रकरण में ओपी शर्मा को किस ने क्या सहयोग दिया यह सब जांच में ही सामने आ सकता है। बेदी ने ओपी शर्मा के अतिरिक्त और किसी पर सन्देह व्यक्त नही किया है और मुख्यमन्त्री के साथ किसी का फोटो होने से ही इस मामले में ओपी शर्मा को मुख्यमन्त्री या उनके कार्यालय का सहयोग/संरक्षण हालिस होने का आरोप नही लगाया जा सकता। क्योंकि जब बेदी ने ही ओपी शर्मा के अलावा और किसी पर कोई आरोप नहीं लगाया है तब इस मामले में मुख्यमन्त्री का नाम लिया जाना तर्कसंगत नहीं बनता।

सरकार और संगठन पर भारी पड़ सकती है मनकोटिया की बर्खास्तगी

शिमला/शैल। प्रदेश के पर्यटन विकास बोर्ड के उपाध्यक्ष पूर्व मन्त्री विजय सिंह मनकोटिया को वीरभद्र सिंह ने जनहित में अपने पद से हटा दिया है। राज्यपाल के नाम से मुख्य सचिव वीसी फारखा के हस्ताक्षरों से जारी पत्र में यही कहा गया है कि ‘‘जनहित’’ की एक बहुत ही व्यापक परिभाषा है जिसके मूल में यही निहित रहता है कि ऐसे फैसले से प्रदेश का बहुत बड़ा सार्वजनिक हित जुड़ा हुआ था। जनहित के परिदृश्य में यदि मनकोटिया के बतौर उपाध्यक्ष काम का आकलन किया जाये तो यह सामने आता है कि उनके विरूद्ध पर्यटन विकास बोर्ड या किसी भी अन्य मामले में भ्रष्टाचार का कोई आरोप नही लगा है। यह भी नही रहा है कि वह सरकार के विरूद्ध कोई षडयंत्र रच रहे थे। ऐसे में जनहित के नाम पर मनकोटिया की वर्खास्तगी कतई गले नही उतरती है। फिर मनकोटिया ने जब इस जनहित के छदम आरोप पर मीडिया के माध्यम से अपना पक्ष प्रदेश की जनता के सामने रखा और उस पर मुख्यमन्त्री तथा उनके कुछ सहयोगीयों ने जो प्रतिक्रियाएं जारी की है उनसे भी जनहित का कोई खुलासा सामने नही आया है।
जबकि दूसरी ओर से मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह और उनका बेटा तथा पत्नी आयकर सीबीआई और ईडी की जांच झेल रहे हैं। सीबीआई तो अदालत में चालान तक दायर कर चुकी है और इसमें सब अभियुक्तों को जमानत लेनी पड़ी है। विपक्ष इस मामले में वीरभद्र से नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र की मांग कर रहा है। बल्कि राज्यपाल से वीरभद्र सिंह को जनहित में हटाने की मांग कर चुका है। संगठन और सरकार में कैसा तालमेल चल रहा है इसको लेकर वीरभद्र और सुक्खु की अब तक सामने आ चुकी ब्यानबाजी से इसका खुलासा हो जाता है। परिवहन मन्त्री जीएस बाली की कार्यप्रणाली को लेकर भी जिस तरह की प्रतिक्रियाएं मुख्यमन्त्री अब तक देते रहे हैं उनमें भी कभी जनहित के तहत कारवाई की नौबत नही आयी है। राजेश धर्माणी, राकेश कालिया के विद्रोही होने पर भी जनहित का प्रश्न नही उठा। ऐसे में यह स्पष्ट हो जाता है कि जनहित के नाम पर मनकोटिया की वर्खास्तगी में वीरभद्र एक बहुत बड़ी राजनीतिक भूूल कर बैठे हैं।
अब यह सवाल खड़ा होता है कि फिर मनकोटिया को हटाया क्यों गया? इसके लिये सबसे पहले पर्यटन विभाग के अन्दर ही झांकना पड़ेगा। क्योंकि मनकोटिया पर्यटन विकास बोर्ड के ही उपाध्यक्ष थे। इस समय पर्यटन में एशियन विकास बैंक के करीब 260 करोड़ के ऋण से शिमला और कुछ अन्य स्थानों के सौंर्दयकरण की योजना चल रही है। इस योजना के तहत जिस तरह का काम हो रहा है और उस पर जो खर्च हो रहा है उसको लेकर बहुत सारे सवाल जनता में उठ चुके हैं। भाजपा ने इस सौंदर्यकरण को अपने आरोप पत्र में भी मुद्दा बनाया है और इसकी जांच करवाने का दावा किया है। इस सौंदर्यकरण के नाम पर शहर के दो चर्चों की रिपेयर पर ही 25 करोड़ खर्च किये जा रहे हैं। पर्यटन के नाम पर फारखा की स्पेन यात्रा भी सवालों में रह चुकी है। बल्कि इस यात्रा पर जब माकोटिया ने कुछ विवरण मांगा था उस समय मुख्यमन्त्री ने इस मुद्दे को आगे न बढाने का आग्रह मनकोटिया से किया था। पर्यटन के कुछ मामलों में ओ पी गोयल की शिकायत को सीबीआई अधिकारिक तौर पर जांच के लिये स्टेट विजिलैन्स को भेज चुकी है। पर्यटन के प्रचार -प्रसार के नाम पर विज्ञापनों के माध्यम से जो खर्च किया जा रहा है उसकी आरटीआई के तहत बाहर आयी सूचना काफी रौंगटे खड़े करने वाली है। अभी जो तिलक राज शर्मा की गिरफ्तारी हुई है उसमें भी मुख्यमन्त्री के कुछ विश्वस्त मंत्रीयों और अधिकारियों के नाम सामने आने की चर्चा है। आने वाले दिनों में यह सबकुछ चर्चा का विषय बनेगा यह तय है।
इस परिदृश्य में विजय सिंह मनकोटिया की वर्खास्तगी की राय देकर मुख्यमन्त्री के सलाहकारों ने विपक्ष के हाथ एक ऐसा हथियार थमा दिया है जिसकी काट से बचना संभव नही होगा। प्रदेश के भूत पूर्व सैनिको में मनकोटिया की विश्वसनीयता आज भी बरकरार है क्योंकि उसके ऊपर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा है। पार्टी के प्रति वीरभद्र की निष्ठा को मनकोटिया ने 2012 के चुनावों से पहले शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल के साथ हुई सांठगांठ को सार्वजनिक करके हाईकमान के सामने भी एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। वीरभद्र के इस कार्यकाल में लोकसभा चुनाव हारने से राजनीतिक लोकप्रियता पर भी गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। माना जा रहा है कि वीरभद्र ने मनकोटिया की वर्खास्तगी का फैसला उन अधिकारियों की सलाह पर लिया है जिन्होने सचिवालय से बाहर जनता में वोट मांगने नही जाना है। अभी विधानसभा चुनावों को केवल चार माह का समय शेष बचा है ऐसे में मनकोटिया जैसे नेता को इस तरह से बाहर धकेलना केवल अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने की कहावत को चरितार्थ करता है।

विक्रमादित्य ने फिर की वीरभद्र की एकछत्र लीडरशिप की वकालत

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री वीरभद्र के पुत्र और प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष विक्रमादित्य ने वीरभद्र की गैर मौजुदगी में पिता के सरकारी आवास ओक ओवर में एक पत्रकार वार्ता को संबोधित करते हुए प्रदेश विधानसभा के आगामी चुनाव वीरभद्र की ही एकछत्र लीडरशिप में करवाये जाने की वकालत की है। विक्रमादित्य ने नगर निगम शिमला के चुनाव हारने के बाद प्रैस वार्ता को संबोधित करते हुए यह स्वीकार किया कि निगम के चुनाव समन्वय की कमी के कारण हारे हैैं। लेकिन इस समन्वय में कमी सुक्खु के संगठन की ओर से रही या वीरभद्र की सरकार की ओर से। इसका खुलासा भी विक्रमादित्य ने नही किया। जबकि इससे पहले वीरभद्र और सुक्खु एक दूसरे पर निगम चुनावों की हार का ठिकरा फोड़ चुके हैं। विक्रमादित्य ने प्रदेश विधानसभा के चुनाव पंजाब माॅडल पर करवाये जाने की वकालत की है। स्मरणीय है कि पंजाब में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को चुनावों से काफी पहले प्रदेश का भावी मुख्यमन्त्री घोषित कर दिया गया था और इसका निश्चित रूप से कांग्रेस को लाभ मिला था। हिमाचल में जब से वीरभद्र सिंह के गिर्द केन्द्र की सीबीआई, ईडी और आयकर ने घेरा डाल रखा है तभी से कांग्रेस के अन्दर नेतृत्व परिवर्तन के स्वर भी मुखर होते रहे हैं। परन्तु हाईकमान ने इस सवाल पर अभी तब अपनी खामोशी नही तोड़ी है। जबकि वीरभद्र और उनके शुभचिन्तक तो उनको सातवीं बार मुख्यमन्त्री बनाने के दावे कर चुके है। विक्रमादित्य एक अरसे से प्रदेश कांग्रेस की बागडोर भी अप्रत्यक्षः सरकार के साथ ही वीरभद्र को सौंपने की वकालत करते आ रहे है। लेकिन विक्रमादित्य के ऐसे प्रयासों और ब्यानों पर संगठन की ओर से कभी कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। वीरभद्र और विक्रमादित्य जिस ढंग से सुक्खु की अध्यक्षता पर परोक्ष/अपरोक्ष से हमला बोलते आ रहें हैं उससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि पार्टी इस समय सुक्खु और वीरभद्र के खेमों में बुरी तरह बंटी हुई है और इसी बंटवारे के कारण नगर निगम में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है।
लेकिन नगर निगम शिमला की हार वीरभद्र और उनके बेटे विक्रमादित्य के लिये व्यक्तिगत तौर पर एक बड़ा झटका है, क्योंकि निगम चुनाव के परिणाम आने के बाद विक्रमादित्य ने मीडिया में यह दावा किया था कि भाजपा के कई पार्षद उनके संपर्क में है, जबकि यह दावा इतना खोखला साबित हुआ कि भाजपा के पार्षद तो दूर बल्कि निर्दलीय पार्षदों को भी कांग्रेस संभाल नही सकी। निश्चित है कि विक्रमादित्य ने ऐसा दावा उनके सहयोगीयों/सलाहकारों के फीड वैक के दम पर किया होगा। यह दावा और फीड बैक कितना आधारहीन था इसका अनुमान विक्रमादित्य को अब तक हो गया होगा। विक्रमादित्य शिमला ग्रामीण से अपनी संभावित उम्मीदवारी बहुत पहले ही जता चुके हैं और वीरभद्र भी उनकी इस उम्मीदवारी को अपनी मोहर लगा चुके हैं। ऐसे मे शिमला ग्रामीण से ताल्लुक रखने वाले निगम के चारों वार्डो का हाथ से फिसल जाना एक गंभीर संकेत है। क्योंकि यहां जिन लोगों के सहारे वीरभद्र और विक्रमादित्य चले हुए थे संभवतः उनकी निष्ठाएं कहीं और जुड़ी हुई है, शायद इस सच्चाई को इनके अतिरिक्त बाकी सब जानते हैं। बल्कि इन दिनों तो शिमला ग्रामीण में कांग्रेस के कुछ नेताओं द्वारा खरीदी गयी भू-संपत्तियों की चर्चा के साथ ही इन नेताओं की राजनीतिक मंशा पर भी सवाल उठने शुरू हो गये है। क्योंकि बतौर युवा कांग्रेस अध्यक्ष विक्रमादित्य को मुख्यमन्त्री के सरकारी आवास की बजाये कांग्रेस दफ्तर में पत्रकार वार्ता को संबोधित करना चाहिये था लेकिन जिसने भी ओक ओवर में यह वार्ता का सुझाव दिया है उसकी नीयत का अनुमान लगाया जा सकता है।
इस समय नगर निगम की हार को जिला शिमला के बड़े परिदृश्य में समझा जाना आवश्यक है। शिमला जिला का मुख्यालय होने के साथ ही प्रदेश की राजधानी भी है। इस राजधानी के समानान्तर ही धर्मशाला में दूसरी राजधानी बनाये जाने की अधिसूचना तक जारी हो चुकी है। आज शिमला में प्रदेश के अन्य भागों से लोगों को यहां अपने कामों के लिये आना पड़ता है। कल को शिमला के लोगों को धर्मशाला जाने की नौबत आ जायेगी। वीरभद्र के इस फैसले का यहां के लोगों में इतना विरोध पनपा है कि संगठन बनाकर इसके खिलाफ आन्दोलन छेड़ने की योजना तैयार हो गयी थी। योजना के तहत राजधानी की इस अधिसूचना को प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा चुकी है। नगर निगम के चुनावों में सरकार के इस राजधानी के फैसले को लेकर भीतर ही भीतर बड़ा रोष था जो कि परिणामों में सामने आया है। जिन राजनेताओं और अधिकारियों की सलाह पर यह फैसला लिया गया था वह लोग इस चुनाव प्रचार में कहीं नजर तक नही आये। ऐसे और भी कई फैसले हैं जिनके कारण प्रदेश के अलग- अलग हिस्सों में रोष है। ऐसे फैसलों की पृष्ठभूमि मे विक्रमादित्य की 45 विधानसभा क्षेत्रों के लिये प्रस्तावित विकास यात्रा का क्या राजनीतिक प्रभाव रहेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

ठियोग रोहडू सड़क चड्डा एण्ड चड्डा को काम पूरा करने के लिये दिया छः माह का और समय तथा 45 करोड़ रूपया

                                   बाईसरकुलेशन मन्त्रीमण्डल ने किया यह फैसला
                           अन्तर्राष्ट्रीय विकास ऐसोसियेशन आईबीआरडी ने और ऋण देने से किया इन्कार
                            नौ वर्षोे में 80 कि.मी. सडक की रिपेयर नही कर पायी सरकार
शिमला/शैल। 80 किमी लम्बी ठियोग-रोहडू सड़क की रिपेयर का काम प्रदेश सरकार नौ वर्षो में भी पूरा नही कर पायी है जून 2008 में धूमल शासन के दौरान अन्र्तराष्ट्रीय विकास ऐसोसियशन आईबीआरडी से 228.26 करोड़ रूपये का ऋण लेकर यह काम शुरू हुआ था और जून 2011 में पूरा होने का लक्ष्य रखा गया था। इसके लिये अमेरिका के लूईस बर्गर ग्रुप को कन्सलटैन्ट नियुक्त किया गया था लेकिन जब तय समय सीमा के भीतर काम पूरा नही हुआ तो धूमल सरकार ने इसका कार्यकाल 14.4.2012 तक बढ़ा दिया। परन्तु जब मार्च 2012 में काम का आकलन किया गया तो पाया कि केवल 13.49% काम ही पूरा हुआ है कंपनी ने काम पूरा न होने के जो कारण बातये उनमें तीन मामलों में अदालत से स्टे जमीन अधिग्रहण के बाद कुछ लोगों को मुआवजे का भुगतान न हो पाना और 875 पेड़ो का न काटा जाना प्रमुख थें। इसी सड़क को लेकर जुब्बल के एक देवेन्द्र चैहान ने 2010 में उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी। इस याचिका की सुनवाई के दौरान 20.5.2011 को भू- अधिग्रहण अधिकारी को जमीन के मुआवजों के मामलें में एक माह के भीतर शपथपत्र दायर करने तथा कंजरवेटर फाॅरेस्ट भारत सरकार चण्डीगढ़ को पेडो के संद्धर्भ में आवश्यक अनुमतियां देने के निर्देश दिये। उच्च न्यायालय के इन निर्देशों पर भू-अधिग्रहण अधिकारी ने 15,46,22,031 रूपये का मुआवजा जाम करवा दिया। जिसमें से 13, 36,66, 867 रूपये का संबधित लोगों को तुरन्त भुगतान भी हो गया पेड़ों के संद्धर्भ में भी तीन दिन के भीतर सारी कारवाई हो गयी। उच्च न्यायालय ने सत्र न्यायधीश को भी सड़क के संबंध में आयी सारी याचिकाओं का एक माह के भीतर निपटारा करने के निर्देश दिये और यह निपटारा भी हो गया। इस तरह सड़क से जुडे सारे मामलों का उच्च न्यायालय के निर्देशों पर एक माह में निपटारा हो गया। लेकिन जब 2.7.2012 को यह मामला पुनः उच्च न्यायालय में लगा तब जो टिप्पणी अदालत ने की है वह चैंकाने वाली है। अदालत ने कहा है कि That there is hardly   tangible progress in work,  apparently, neither the  contractor nor the          Government is serious in the matter, what action the Govt. has taken in the     matter is not quite clear   despite the unsatisfactory progress in the execution of work. The contractor has been raising one or the other evasive objection to justify  their in-action,   instead of taking proper action for completing the work as per contract. It is high time that the Govt. view tha matter with       required seriousness.सरकार और उसके तन्त्र पर की गयी इस टिप्पणी के बाद 2013 में सरकार ने चीन की कंपनी से करार रद्द करके एक चड्डा एण्ड कंपनी को शेष बचा हुआ काम 350 करोड़ में दे दिया। अब यह कंपनी भी तय समय के भीतर जब काम पूरा नही कर पायी तो अन्र्तराष्ट्रीय विकास ऐसोसियेशन आईबीआरडी ने इस काम से अपने हाथ पीछे खींच लिये है। इस संगठन ने सरकार और कंपनी के काम पर गंभीर टिप्पणीयां की है। लेकिन सरकार ने ठेकेदार कंपनी के विरूद्ध ठेके की शर्तो के मुताबिक कोई कारवाई करने की बजाये कंपनी को छः माह का और समय काम पूरा करने के लिये दे दिया है। शेष बचे हुए काम के लिये करीब 45 करोड़ रूपया प्रदेश सरकार अपने पास से कंपनी को देगी। इस आशय का प्रस्ताव मन्त्रीमण्डल से बाई सरकुलेशन 30 जून को पारित करवाया गया है क्योंकि उसी दिन लोक निर्माण विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव नरेन्द्र चैहान ने सरकार से त्यागपत्र देकर मुख्य सूचना आयुक्त का पदभार ग्रहण किया है।
अभी भी यह काम छः माह मे पूरा हो पायेगा इसको लेकर सन्देह व्यक्त किया जा रहा है। जब 20.5.2011 को उच्च न्यायालय के निर्देशों पर एक माह के भीतर सारे मामलों का निपटारा हो गया था तो उसके बाद तय समय के भीतर काम क्यों पूरा नही हुआ? वीरभद्र सरकार आने के बाद 2013 में नयी कंपनी चड्डा एण्ड चड्डा को 350 करोड़ में काम दिया गया लेकिन 30 जून 2017 तक फिर काम पूरा नही हुआ और कंपनी को छः माह का और समय तथा करीब 45 करोड़ प्रदेश सरकार को अपने साधनों से देने का फैसला लेना पड़ा है। इस तरह 228 करोड़ से शुरू हुआ काम 400 करोड़ से भी अधिक में पूरा होगा लेकिन इस बढे़ हुए खर्च के लिये कौन जिम्मेदार है इसके लिये किसी की जवाबदेही क्यों तय नही की गयी है? कंपनी को और समय तथा पैसा देने की बजाये कंपनी के खिलाफ कारवाई क्यों नही की गयी? क्योंकि इस नयी कंपनी को तो काम करने के लिये कोई रूकावट ही नही थी। रूकावटें तो चीन की कंपनी के सामने थी जो उच्च न्यायालय के निर्देशों से जुलाई 2011 में ही समाप्त हो गयी थी, फिर यह चड्डा एण्ड चड्डा समय के भीतर काम क्यों नही कर पायी? इस काम के लिये नियुक्त कन्सलटैन्ट लुईस बर्गर से जवाब तलब क्यों नहीं किया गया? क्योंकि आखिर इस ऋण की भरपायी तो यहीं से होनी है। क्या यह कर्ज लेकर घी पीने का काम हो रहा है? ऐसे बहुत सारे सवाल जिनका जवाब सरकार को आने वाले समय में सरकार को देना होगा।

क्या अधिकारियों के आपसी हितों के टकराव का परिणाम है 14 करोड़ का सब्सिडी प्रकरण

शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश का बागवानी विभाग इन दिनों अचानक चर्चाओं का केन्द्र बन गया है, क्योंकि राष्ट्रीय बागवानी मिशन के तहत 2010-11 में स्थापित की गयी एंटीहेल गन खरीद को लेकर विजिलैन्स विभाग ने अब एक एफआईआर दर्ज की है। मिशन निदेशक और हेलगन स्पलाई करने वाली कंपनी ग्लोबल एवियेशन हैदराबाद के नाम यह मामला दर्ज हुआ है। जब से यह हेलगन स्थापित हुई है तभी से संबंधित क्षेत्र के बागवान इसके परिणामों से सन्तुष्ट नहीं रहे है। इस खरीद की जांच किये जाने की मांग तभी से उठती आयी है। कांग्रेस के आरोप पत्र में भी इस मामले को उठाया है लेकिन इस मामले में एफआईआर अब नगर निगम चुनावों के बाद हुई है। स्मरणीय है कि भारत सरकार ने वर्ष 2008- 09 में प्रदेश सरकार को इसके लिये 80 लाख रूपये दिये थे। इसके बाद वर्ष 2009 -10 में 2.80 लाख रूपया प्रदेश को दिया और इस तरह तीन करोड़ में से 2.89 करोड़ में ग्लोबल एवियेशन से हेलगन की खरीद हो गयी। इस पूरे प्रकरण की प्रक्रिया सचिवालय और सरकार के स्तर पर ही अंजाम में लायी गयी है। इसलिये विजिलैन्स की जांच इस सं(र्भ में तत्कालीन बागवानी मन्त्री और सचिव तक अवश्य आयेगी। इस हेलगन के आप्रेशन के लिये संभवतः रक्षा मन्त्रालय से भी अनुमति ली जानी थी जो कि शायद नही ली गयी है।
हेलगन प्रकरण अभी शान्त भी नही हुआ था कि ठियोग के बलघार में बने कोल्डस्टोर के लिये दी गयी 14 करोड़ की सब्सिडी पर सवाल उठ गये। मुख्यमन्त्री ने भी इस प्रकरण में जांच करवाये जाने की बात की है। मजे की बात यह है बागवानी विभाग के परियोजना निदेशक डा. प्रदीप संाख्यान जिन्होने यह सब्सिडी जारी की है उन्होने भी इसमें उच्च स्तरीय जांच की मांग की है। बलघार में यह कोल्डस्टोर भारत सरकार की 50ः उपदान योजना के तहत 2015-16 में स्थापति हुआ है। 28 करोड़ के निवेश का यह कोल्डस्टोर एक हिम एग्रो फ्रैश ने स्थापित किया है। केन्द्र सरकार में यह प्रौजैक्ट 20.7.2015 को स्वीकृत हुआ और फिर इसके निर्माण का कार्य शुरू हुआ। इसका निर्माण शुरू होनेे के बाद विभाग की पहली संयुक्त निरीक्षण कमेटी ने 11.7.2016 को इसका निरीक्षण किया। इस कमेटी का गठन विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव तरूण श्रीधर द्वारा किया गया था। परियोजना निदेशक, वरिष्ठ मार्किटिंग अधिकारी, फ्रूट टैक्नौलोजिस्ट, विषय विशेषज्ञ, बैंकर और कोल्डस्टोर स्थापित करने वाली कंपनी के प्रतिनिधि इस निरीक्षण कमेटी के सदस्य थे। इस कमेटी की रिपोर्ट के बाद कंपनी को तब तक हुए काम और निवेश के आधार पर 3.8.2016 को 20 लाख की सब्सिीडी रिलिज कर दी जबकि 25.93 लाख दी जानी थी। 5.93 लाख इसलिये नहीं दी गयी कि विभाग के पास पैसा ही नही था। इस निरीक्षण कमेटी ने मौके पर हुए काम के बारे में पूरा सन्तोेष व्यक्त किया है।
इस पहली निरीक्षण के बाद विभाग के निदेशक डा. बवेजा स्वयं 10.3.2017 को इस कोल्डस्टोर को देखने गये। इसी बीच विभाग को केन्द्र से इसकी सब्सिडी के 11 करोड़ मिल जाते हैं और 23.3.2017 को विभाग इस पैसे को ड्रा कर लेता है। यह पैसा आने के बाद कंपनी को 5.93 लाख की पैमैन्ट कर दी जाती है जो पहले नही हो पायी थी। जब निदेशक डा. बवेजा इसके निरीक्षण के लिये गये तो उन्होनेे इसके निर्माण आदि पर कोई सवाल खडे नहीं किये। बल्कि 29.4.17 को अपनी रिपोर्ट में केवल यह कहा कि निरीक्षण टीम में कुछ और विशेषज्ञ शामिल कर लिये जायें। निदेशक के इस सुझाव पर एसएलईसी की फिर प्रधान सचिव की अध्यक्षता में बैठक हुई और इसमें पहली कमेटी में एचपीएमसी के रैफरिजेटर इंजिनियर डीजीएम और नौणी विश्वविद्यालय के प्रौफैसर को भी शामिल कर लिया विभाग के प्रधान सचिव जेसी शर्मा ने 22.5.17 को यह दूसरी संयुक्त निरीक्षण टीम का गठन कर दिया। इसी टीम ने 26.5.2017 को कोल्डस्टोर का निरीक्षण करके अपनी रिपोर्ट उसी दिन सौंप दी। यह रिपोर्ट मिलने के बाद 27.5.17 को ही सब्सिडी का सारा शेष पैसा कंपनी को रिलीज कर दिया गया। जब यह दूसरी निरीक्षण टीम गठित हुई निरीक्षण पर की गयी, उसने अपनी रिपोर्ट सौंपी और रिपोर्ट के दूसरे ही दिन सब्सिडी रिलिज कर दी गयी। इस पूरी प्रक्रिया में पांच दिन का समय लगा। 22.5.17 को यह प्रक्रिया शुरू होती है और 27.5.17 को पेमैन्ट के साथ पूरी हो जाती है। सब्सिडी रिलिज करने के लिये कंपनी ने सर्वोच्च न्यायालय के एक वकील कंवर जीत सिंह के माध्यम से विभाग को एक नोटिस भी जारी किया था।
इस पूरे प्रकरण में यह सवाल उठाया जा रहा है कि पूरी प्रक्रिया केवल पांच दिन में ही क्यों पूरी कर गयी? इस दौरान विभाग के निदेशक संभवतः विदेश दौरे पर थे और यह सारी प्रक्रिया प्रधान सचिव जेसी शर्मा के आदेशों से पूरी हुई है। इसमें यह महत्वपूर्ण है कि पहली जेआईटी केन्द्र की गाईडलाईनज़ पर विभाग के तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य सचिव तरूण श्रीधर के आदेशों पर गठित हुई थी। इस जेआईटी में निदेशक बवेजा ने कुछ और विशेषज्ञ शामिल करने का सुझाव दिया? क्या उनकी नजर में पहली जेआईटी सक्षम नही थी? बवेजा के निर्देशों पर दूसरी जेआईटी गठित होती है और उसमें तीन नये लोग शामिल कर लिये जाते हैं। क्या बवेजा के निर्देशों पर दूसरी जेआईटी में तीन नये विशेषज्ञ शामिल किये जाने आवश्यक थे? यदि यह आवश्यक थे और उन्हे शामिल भी कर लिया गया तो क्या इस दूसरी जेआईटी की रिपोर्ट भी बवेजा के समाने नही रखी जानी चाहिये थी? क्या निरीक्षण टीम के सदस्यों की योग्यता पर दोनों बार डा. बवेजा को सन्देह था या फिर उनकी मंशा कुछ और थी? यदि मुख्यमन्त्री वास्तव में इसकी जांच करवाते हंै तभी इन सारे सवालों का खुलासा हो पायेगा। वैसे इस प्रकरण के इस तरह चर्चा में आने से भविष्य में कोई भी निवेश करने के लिये आगे नही आयेगा।

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