Thursday, 18 September 2025
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निगम की सत्ता पर कांग्रेस के कब्जे की संभावना बढ़ी

नेतृत्व की अस्पष्टता भारी पड़ेगी भाजपा पर

शिमला/शैल। नगर निगम चुनावों में जीत का सेहरा किसके सिर सजेगा यह स्थिति स्पष्ट होने की बजाये लगातार उलझती जा रही है। क्योंकि भाजपा और कांग्रेस दोनों बडे़ दावेदारों में अपने भीतर के असंतुष्टों/विद्रोहीयों की समस्या लगभग बनी हुई है। भाजपा ने जिस तरह से टिकट वितरण किया है उससे बहुत सारेे स्थानों पर उनकेे विद्रोही खुलकर सामने आ गये हैं। भाजपा ने कई वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को अनुशासनात्मक कारवाई के लिये नोटिस जारी कर दिये हैं। इस चुनाव के टिकट वितरण में ही पार्टी की गुटबंटी न चाहते हुए भी सामने आ गयी है जो निश्चित रूप से नुकसानदेह सिद्ध होगी। इसी गुटबंदी के कारण टिकट वितरण में परिवारवाद तक के आरोप लग गये। फिर आज तक निगम की सत्ता पर भाजपा का कब्जा नही हो पाया है। ऐसे में भाजपा को बहुमत मिल पाने की संभावनाएं बहुत कम होती जा रही हैं। हालांकि चुनाव प्रचार में भाजपा कांग्रेस के बहुत आगे चल हरी है।
कांग्रेस में सुक्खु-वीरभद्र विवाद के कारण पार्टी शुरू में यह फैसला ही नही ले पायी कि उसे उम्मीदवारों की अधिकृत सूचिजारी करनी चाहिये या नही। सबको अपने दम पर चुनाव लड़ने की छुट दे दी। लेकिन जब यह चर्चाे का विषय बना और सुक्खु-वीरभद्र को हाईकमान ने तलब किया तब नामांकन वापसी के दिन अधिकृतसूची जारी कर दी उसमें भी सारे वार्डो पर सहमति नही बन पायी। परिणामस्वरूप आधे से ज्यादा बार्डो में समानान्तर प्रत्याक्षी मौजूद हंै। फिर जिन मन्त्रीयों/विधायकों एवम अन्य नेताओं की चुनाव प्रचार से डियूटी लगायी गयी है वह अभी तक सामने आये नही हैं। सबके आने की उम्मीद भी नही है। कांगे्रस की इस स्थिति से स्पष्ट हो जाता है कि पार्टी अपने संख्याबल पर सत्ता पर काबिज नही हो पायेगी। हालांकि अब तक लगभग कांग्रेस का कब्जा निगम पर रहा है।
माकपा का पांच वर्ष निगम की सत्ता पर कब्जा रहा है और इस कब्जे के कारण ही आज तीस वार्डो से चुनाव लड़ रही है। माकपा ने चुनावी रणनीति के तहत करीब हर वार्ड में काफी वोटरों का पंजीकरण करवाया है। यह सारे वोटर माकपा के लिये ही मतदान करेगें यह तय है। इस रणनीति के तहत यह मानना गलत होगा कि माकपा के पाषर्दों की संख्या अब पहले से दोगुणी नही हो जायेगी फिर इस कार्यकाल में पानी आदि की जो समस्या रही हैं उसके लिये कांग्रेस और भाजपा भी बराबर के जिम्मेदार माने जायेंगे क्योंकि इनका संख्याबल माकपा से कहीं ज्यादा था।
इस परिदृश्य में निगम चुनाव का आकलन करते हुए यह सामने है कि निगम तीन विधानसभा क्षेत्रों शिमला, शिमला ग्रामीण और कुसुम्पटी में फैला है। शिमला ग्रामीण से वीरभद्र स्वयं हैं और कुसुम्पटी से अनिरूद्ध भी कांग्रेस के ही विधायक हैं करीब नौ वार्ड इन दो विधानसभा क्षेत्रों से हैं। माना जा रहा है कि इनमें बहुमत कांग्रेस के पक्ष में रहेगा और माकपा भाजपा यहां बराबरी पर रहेंगे। शिमला के 25 वार्ड हैं और पिछली बार भी इतने ही थे। पिछली बार भाजपा को यहां बहुमत मिला था। पिछली बार के निगम चुनावों के दौरान भाजपा की प्रदेश में सरकार थी। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी उस समय कौल सिंह थे। इसलिये उन चुनावों से वीरभद्र सिंह पर कोई सीधा राजनीतिक प्रभाव नही पड़ता था। बल्कि यह चुनाव हारने से वीरभद्र के प्रदेश अध्यक्ष बनने का दावा मजबूत हो गया और वह फिर बन भी गये। आज वीरभद्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री हैं सातवीं बार बनने का दावा कर रहें है। भाजपा नेतृत्व पिछले दो साल से सरकार गिरने के दावे करता आ रहा है जो सफल नही हुए हैं। वीरभद्र के मामलें भी एक मोड़ पर आकर रूक गये हैं और इसी कारण से इन चुनावों में भाजपा इनका जिक्र तक करने का साहस नही कर पा रही है। वीरभद्र निगम चुनावों की राजनीतिक अहमियत को समझते हैं और स्वयं मैदान में आ गये हैं। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि शिमला जंहा प्रदेश की राजधानी है वहीं जिले का मुख्यालय भी है। इस समय अवैध कब्जों के प्रकरण में शिमला सबसे ज्यादा प्रभावित है। यहां के बागवान सबसे ज्यादा पीडित होने वाले हैं। इनको अपने हितों की रक्षा का सबसे ज्यादा भरोसा वीरभद्र पर ही है। इसी भरोसे के कारण निगम पर सबसे ज्यादा कब्जा कांग्रेस का रहा है। विधानसभा चुनावों में भी जिले में कांग्रेस का पलड़ा इसी कारण भारी रहता रहा है। निगम के जिन वार्डों में शिमला जिले के वोटरों का बहुमत है वहां पर अक्सर कांग्रेस ही जीत दर्ज करती रही है क्योंकि यह मतदाता अन्त में वीरभद्र के संकेत पर ही मतदान करते हैं यह सर्वविदित है। आज भी राजनीतिक परिदृश्य पहले जैसा ही है। फिर भाजपा में नेतृत्व के प्रश्न पर कोई स्पष्टता नही उभर पायी है इस परिदृश्य में विश्लेष्कों का मानना है कि इन निगम चुनावों में भाजपा को सत्ता मिलना संभव नहीं है। यह हो सकता है कि यदि कांग्रेस को अपने दम पर 18 का आंकड़ा हासिल नही होता है तो माकपा के साथ मिलकर बहुमत बनाया जायेगा क्योंकि माकपा की भी राजनीतिक निकटता कांग्रेस के ही साथ है भाजपा के नही। ऐसे में साफ है कि अन्त में निगम पर फिर कांग्रेस का ही कब्जा होगा भले ही माकपा को भी कुछ हिस्सा मिल जाये।

नगर परिषद सोलन के अध्यक्ष पवन गुप्ता के प्रकरण में अब तक कोई कारवाई न होने से प्रशासन सवालों में

शिमला/शैल। सोलन नगर परिषद पर इस समय भाजपा का कब्जा है। जिले के वरिष्ठ भाजपा नेता पवन गुप्ता इसके अध्यक्ष हैं। वरिष्ठता के कारण ही शिमला संसदीय क्षेत्र के सांसद विरेन्द्र कश्यप और पूर्व स्वास्थ्य मन्त्री नाहन के विधायक डा. राजीव बिन्दल का भी उन्हे सहयोग/ समर्थन हासिल है। लेकिन जब से पवन गुप्ता पर अपने पद के दुरूपयोग और एक तरह की दबंगाई के आरोप लगे हैं इससे भाजपा नेतृत्व के सामने एक अजीब संकट खडा हो गया है। क्योंकि जिस तरह के आरोप पवन गुप्ता पर लगे हैं उनके चलते अब तक उनसे त्यागपत्रा लेकर कारवाई हो जानी चाहिये थी। क्योंकि एसडीएम ने अपनी जांच रिपोर्ट में इन आरोपों को सही पाया है।
पवन गुप्ता के खिलाफ सोलन के ही एक महेन्द्र कुमार वर्मा ने आरोप लगाये हैं । अतिरिक्त मुख्य सचिव शहरी विकास विभाग को भेजी शिकायत को अतिरिक्त सचिव ने जांच के लिये जिलाधीश सोलन को भेजा और डीसी ने एसडीएम को जांच की जिम्मेदारी सौंपी। एसडीएम ने 3.4.2017 को डीसी को भेजी रिपोर्ट में आरोपों को सही पाया है। महेन्द्र वर्मा का आरोप है कि उन्होने 2013 में अपने मकान की दो मंजिले स्वीकृत नक्शे से अधिक बना ली थी और रिटैन्शन पाॅलिसी के तहत उनके नियमितिकरण के लिये आवेदन किया था। लेकिन इस आवेदन पर कोई भी आदेश पारित होने से पहले ही नगर परिषद अध्यक्ष पवन गुप्ता ने अजय सहगल, पंकज सहगल, हरीश सहगल तथा परिषद के जेई एसडीओ और मजदूरों ने उसके मकान की छत आदि तोड़ दी। तोड़फोड़ की यह कारवाई सीसीटी कैमरे में भी दर्ज है। शिकायतकर्ता वर्मा के मुताबिक यह लोग उसके मकान को खरीदना चाहते थे। 26.7.2016 को अजय सहगल, पंकज सहगल और हरीश सहगल ने वर्मा को मकान की टाॅप मंजिल 25 लाख में उन्हे बेचने का आग्रह किया। जबकि वर्मा के मुताबिक इसकी कीमत एक करोड़ थी। इस तरह जब वर्मा ने यह मकान बेचने से इन्कार कर दिया तो उसे यह मकान तोड़ दिये जाने की धमकी मिल गयी और इस धमकी को अन्जाम भी दे दिया गया। वर्मा ने इस सबकी शिकायत सोलन पुलिस से की जिसे अनसुना कर दिया गया। हार कर वर्मा इस मामले को आई जी शिमला के संज्ञान में लाये और आईजी के निर्देशों पर इसमें 16.8.2016 को एफआईआर संख्या 183 दर्ज हुई जिस पर अभी अगली कारवाई अपेक्षित है।
दूूसरी ओर पवन गुप्ता का परिवार भी राजगढ़ रोड़ पर एक बहुमंजिला भवन का निर्माण अपने बेटे रोहित गुप्ता के नाम से कर रहा है। शिकायत के मुताबिक यह मंजिला भवन पूरी तरह अवैधता के साथ सारे नियमों कानूनों को अंगूठा दिखाकर बनाया जा रहा है। इस भवन के दो ब्लाॅक हैं जिनमें ईओएमसी के मुताबिक एक में 147.3% और दूसरे में 104.28% अवैधता है। ईओ की रिपोर्ट 4.1.2017 की है। जबकि कार्यकारी अभियन्ता द्वारा 20.3.2017 को सौंपी रिपोर्ट में 158% और 132.7% अवैधता पायी गयी है। पवन गैर हिमाचली और गैर कृषक हैं यह उन्होने इस जांच के दौरान स्वयं एमडीएम के पास स्वीकारा है। एसडीएम ने अपनी जांच रिपोर्ट में इसका उल्लेख किया है। यही नही पवन गुप्ता परिवार द्वारा किये जा रहे निर्माण से कोटला नाला के पास मीनस रोड़ भी आर डी 0850 से 0865 तक डैमेज हुआ है जिसकी क्षति पूर्ति के लिये लोक निर्माण विभाग ने उनके खिलाफ कारवाई को भी अंजाम दिया है।
इस पूरे प्रकरण की जांच में एसडीएम ने सारे सवंद्ध पक्षों को पूरे विस्तार से सुनने और उनके द्वारा पेश किये सारे साक्ष्यों/तथ्यों का निरीक्षण करने के बाद सारे आरोपों को सही पाया है। लेकिन 3.4.2017 को एसडीएम द्वारा भेजी गयी रिपोर्ट पर अभी तक कोई कारवाई सामने नहीं आयी है। एक नगर परिषद का अध्यक्ष किस हद तक अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करके दूसरे का नुकसान कर सकता इसका खुलासा एसडीएम की रिपोर्ट से हो जाता है। लेकिन इस रिपोर्ट के वाबजूद प्रशासनिक स्तर पर कोई कारवाई न होना और पार्टी नेतृत्व का भी इस पूरे प्रकरण पर खामोश रहना कई सवाल खडे़ कए जाता है।

निगम चुनावों के परिदृश्य में भाजपा का आरोप पत्र ही भाजपा से मांगेगा जवाब

                              टिकट आवंटन के बाद उभरी बगावत पड़ेगी भारी
शिमला/शैल। नगर निगम शिमला के चुनाव हो रहे हैं इसके लिये 16 जून को मतदान होगा। इस चुनाव में वामदल, भाजपा और कांग्रेस में त्रिकोणीय मुकाबला होने जा रहा है। यह सभी दल सभी सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। चुनाव उम्मीदवारों की सूची जारी करने में वामदलों ने पहल करके अपने विरोधीयों को इस संद्धर्भ में तो निश्चित रूप से पीछे छोड़ दिया है। नगर निगम में जीत का सेहरा किसके सिर सजता है यह तो 17 जून को चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा लेकिन यह तय है कि इन चुनावों का असर विधानसभा चुनावों पर भी पडे़गा। अभी जब मतदाता सूचियों को लेकर विवाद खड़ा हुआ और राज्य चुनाव आयोग द्वारा इन सूचियों को संशोधित करने के आदेश जारी करने पडे़ तब चुनाव आयोग के इस कदम को भाजपा ने प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दी तथा साथ ही राज्यपाल को एक आरोप पत्र भी सौंपा। इस आरोप पत्र में भाजपा ने वामदलों और प्रदेश की कांग्रेस सरकार को खूब घेरा है। अब उच्च न्यायालय के फैसले के बाद यह चुनाव घोषित हो गये है। ऐसे में भाजपा को अपने आरोप पत्र पर जांच और कारवाई करने की मांग का तो शायद ज्यादा समय नही है लेकिन अब अपने ही आरोप पत्र के मुद्दों पर कारवाई करने का भरोसा इसे शिमला की जनता को देना पडे़गा।
पानी शिमला शहर की सबसे बड़ी समस्या है जिसके चलते निगम प्रशासन पूरे शहर को हर रोज एक साथ पानी देने की स्थिति में कभी भी किसी भी सीजन में नहीं रहा है, बल्कि भाजपा शासन के दौरान भी शिमला को पानी लाने के प्रयास में एक बड़ी पाईप लाईन बिछाई गई थी जिसे आशियाना रेस्तरां के पास से रिज के टैंक से जोड़ा गया था। जिसमें कभी पानी आया ही नहीं। पानी के संद्धर्भ में कांग्रेस और भाजपा दोनों सरकारों की स्थिति एक जैसी ही रही है। पानी के बाद शहर की दूसरी बड़ी समस्या अवैध निमार्णों की है। शहर में 7000 से भी अधिक अवैध निर्माण है। हर सरकार में अवैध निर्माण होते रहे हैं। जिन्हें नियमित करने के लिये हर बार रिटैन्शन पाॅलिसीयां लायी जाती रही है। नौ बार ऐसा हो चुका है इस बार यह मामला प्रदेश उच्च न्यायालय में लंबित चल रहा है। शहर में फैले पीलिया को लेकर संवद्ध अधिकारियों के खिलाफ कारवाई किये जाने को लेकर भी आज तक मामला उच्च न्यायालय में लंबित चल रहा है। सरकार और निगम प्रशासन इन लोगों के खिलाफ अदालत से हटकर अपने स्तर पर विभागीय कारवाई को अंजाम दे सकते थे लेकिन ऐसा नहीं किया गया है। शहर मे सीवरेज के लिये भी एक समय बड़ा मास्टर प्लान तैयार किया गया था। आऊट सोर्स के नाम पर यह सर्वे एक दिल्ली की कंपनी से करवाया गया था, लेकिन यह सीवरेज प्लान आज तक अमली जामा नही ले पायी है। भाजपा ने निगम क्षेत्र मे हुए भ्रष्टाचार की जांच के लिये राज्यपाल को एक आरोप पत्र सौंप कर नगर की जनता का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है। ऐसे में उजागर किये गये इस भ्रष्टाचार पर सख्त कारवाई की वचनबद्धता क्या भाजपा शिमला की जनता को देगी या यह आरोप पत्र मात्र चुनावी प्रचार का मुद्दा होकर ही रह जायेगा इस पर शिमला की जनता की निगाहें लगी हुई है।
भाजपा ने एशियन विकास बैंक के ऋण से किये जा रहे शिमला के सौंदर्यकरण पर भी गंभीर सवाल उठाये हैं। निश्चित रूप से सौन्दर्यकरण के नाम पर इस 260 करोड़ के ऋण का आपराधिक दुरूपयोग हो रहा है। शहर के दोनो चर्चों की रिपेयर के लिये ही 24 करोड़ का अनुबन्ध किया गया है। इस अनुबन्ध का दस्तावेज शैल बहुत पहले ही अपने पाठकों के सामने रख चुका है। भाजपा ने अपने आरोप पत्र में भी इस मुद्दे को उजागर किया है। सौन्दर्यकरण के इस काम के एक बड़े भाग को जो ठेकेदार अंजाम दे रहा है उसने पिछले दिनों जब प्रधानमन्त्री मोदी शिमला आये थे भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली है। उसकी पत्नी ने भी जो कभी शिमला की मेयर रह चुकी है भाजपा की सदस्य बन गयी है। बहुत संभव है कि महिला के नाम पर वह शिमला से विधान सभा के लिये भाजपा की उम्मीदवार हों। इन लोगों के सहयोग से शिमला में सौन्दर्यकरण के नाम पर हो रहे भ्रष्टाचार को और भी विस्तार से जनता के सामने ला सकती है। इस परिदृश्य में क्या भाजपा अपने इस आरोप पत्र पर कारवाई करने की वचनबद्धता शिमला की जनता को दे पायेगी या नही इस पर सबकी निगाहें लगी हुई है।
इसी के साथ निगम चुनावों में जिस तरह से भाजपा ने टिकटों का आवंटन किया है उससे आधा दर्जन से अधिक बार्डो में बगावत के स्वर मुखर हो गये हैं टिकट आवंटन में योग्यता को दर किनार करने से लेकर परिवारवाद तक के आरोप लग गये हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं में उभरी इसी बगावत से एक ही सन्देश जा रहा है कि पार्टी नेतृत्व भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर मिली सफलता से यह व्यवहार करने पर उत्तर आया है कि ’जीताऊं’ की परिभाषा केवल नेता विशेष के प्रति वफादारी ही है। यह व्यक्तिगत वफादारी का पैमाना जब टिकट पाने का आधार बन जाता है तब संगठन को नुकसान पहुंचना तय बन जाता है। इन निगम चुनावों में टिकट के आवंटन का आधार यही व्यक्तिगत वफादारी रही है। जिसके कारण पहले दिन से बगावत के स्वर मुखर हो गये हैं।

सुक्खु-वीरभद्र की लीडरशिप में निगम चुनावों से भागी कांग्रेस लड़ने वालों को छोड़ा अपने हाल पर

शिमला/शैल। नगर निगम शिमला के चुनावों में कांग्रेस की ओर से उम्मीदवारो की कोई अधिकारिक सूची जारी नही की गयी है। जबकि भाजपा और माकपा ने वाकायदा अपने-अपने उम्मीदवारों की सूचियां जारी की है। उम्मीदवारों की अधिकारिक सूची जारी न करने को लेकर कांग्रेस का तर्क है कि जब पार्टी के चुनाव चिन्ह पर यह चुनाव लड़े ही नही जा रहे हैं तो फिर पार्टी की ओर से सूची क्यों जारी की जाये। पार्टी चिन्ह की स्थिति तो सारी पार्टियों के लिये एक बराबर है लेकिन अन्य किसी भी पार्टी ने कांगे्रस का अनुसरण नहीं किया है। कांग्रेस का तर्क पार्टी के अपने ही कार्यकर्ताओं के गले नही उतर रहा है क्योंकि एक वार्ड में कांग्रेस के ही एक से अधिक सदस्य चुनाव में उम्मीदवार हो सकते है। ऐसे में पार्टी की ओर से न तो इन चुनावोें के लिये उम्मीदवारों को कोई चुनाव सामग्री उपलब्ध करवाई जायेगी न ही कोई आर्थिक सहायता दी जायेगी। इसी कारण से इन चुनावों के लिये पार्टी कोई अपना ऐजैन्डा भी घोषित नहीं कर पायेगी। चुनावों में यदि भाजपा और माकपा की ओर से सरकार और संगठन से कोई सवाल पूछे जाते हैं या कोई आरोप लगाये जाते हैं तो उनका उम्मीदवारो की ओर से कोई अधिकारिक जवाब तक भी नही जा पायेगा। पार्टी का कोई भी नेता चुनाव प्रचार के लिये नही आ पायेगा क्योंकि संगठन की ओर से किसी की भी अधिकारिक जिम्मेदारी रहेगी ही नही। चुनाव जीतने के बाद यदि यह लोग कोई पासा बदल लेते हैं तो उन्हे पार्टी की ओर से रोकना या उनके खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कारवाई कर पाना संभव नहीं होगा। अधिकारिक तौर पर निगम चुनावों में पार्टी एकदम लावारिस रहेगी।
शिमला नगर निगम के चुनाव राजनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं बल्कि इन चुनावों को एक तरह से विधानसभा के मिनी चुनाव माना जाता है। इन चुनावों के थोड़े समय बाद ही विधानसभा के चुनाव आने है। पार्टी वीरभद्र के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ कर पुनः सत्ता में वापसी के दावे कर रही है। वीरभद्र को सातवीं बार मुख्यमन्त्री बनाने के सपने संजोये जा रहे हैं लेकिन जो पार्टी राजधानी नगर की निगम के चुनाव सीधे लड़ने का साहस नही कर पायी है वह विधानसभा चुनावों में अपनी क्या एकजुटता दिखा पायेगी। मजे की बात तो यह है कि हाईकमान की ओर से प्रदेश का प्रभार संभाल रही महामन्त्री अंबिका सोनी भी इन चुनावों की राजनीतिक गंभीरता का आकलन नही कर सकी है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुक्खु और मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह जैसा अनुभवी राजनेता भी इस स्थिति का आकलन नहीं कर पाया है।
पार्टी की इस स्थिति के लिये आज मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह और पार्टी अध्यक्ष सुक्खु के बीच जो छत्तीस का आंकड़ा चल रहा है उसे जिम्मेदार माना जा रहा है। इन चुनावों में सरकार और संगठन के ऊपर सारा विपक्ष खुलकर हमला करेगा। सीधी चुनौती दी जायेगी कि जो पार्टी निगम चुनावों का सामना नही कर पायी है वह विधानसभा चुनावों में क्या मुंह लेकर उतरेगी। निगम चुनावों से इस तरह भागकर सुक्खु ने 18 विधायकों का समर्थन जुटा कर जो अपनी स्थिति को सुरक्षित किया था इस रणनीति से उस सुरक्षा पर नये सिरे से प्रश्नचिन्ह लगने की नौबत आ जायेगी। कांग्रेस के इस बिखराव और शीर्ष नेतृत्व की कलह से निश्चित रूप से पार्टी के कार्यकर्ताओं के मनोबल पर प्रतिकूल असर पड़ना तय है। यदि इन निगम चुनावों के बाद पार्टी के इस फैसले की समीक्षा की जायेगी तो तय है कि शीर्ष नेतृत्व में से किसी एक की बलि चढ़ जायेगी क्योंकि निगम चुनावों की गंभीरता का आकलन करके ही भाजपा ने प्रधानमन्त्री मोदी की शिमला में रैली तक करवा दी, लेकिन कांग्रेस अधिकारिक रूप से चुनाव लड़ने का साहस ही नही जुटा पायी। ऐसे में बहुत संभव है कि कांग्रेस का प्रतिबद्ध वोटर इस स्थिति को देखकर माकपा को समर्थन देने का फैसला लेने पर मजबूर हो जाये, यदि ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस की इस भीतरी अराजकता का पूरा-पूरा लाभ भाजपा को मिल जायेगा।

वीरभद्र का विरोध ही बना सुक्खु की ताकत

                                  18 विधायकों ने किया सुक्खु का समर्थन
शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह एक लम्बे अरसे से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ठाकुर सुखविन्दर सिंह सुक्खु को हटवाने का प्रयास करते आ रहे हैं। संगठन की कार्य प्रणाली से लेकर पदाधिकारियों तक वीरभद्र सिंह के निशाने पर रहते आ रहें है। कभी पिछले दिनों विधायक दल की विशेष बैठक में भी जहां विधायकों ने वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में विश्वास दिखाकर अगला विधानसभा चुनाव भी उन्ही के नेतृत्व में लड़ने का संकल्प लिया वहीं पर कांग्रेस अध्यक्ष को लेकर भी कुछ लोगों ने सवाल उठाये। इसके बाद जब जीएसटी विधेयक पारित करने के लिये विधानसभा का दो दिन के लिये विशेष सत्र बुलाया गया था तब भी विधायकों के हस्ताक्षर करवाये गये थे। इस बार भी मुख्यमन्त्री पर विश्वास के नाम पर ही यह हस्ताक्षर वाई सरकुलेेशन करवाये गये और 31 विधायकों ने हस्ताक्षर कर दिये।
लेकिन जब यह हस्ताक्षरित प्रस्ताव कांग्रेस हाईकमान के पास प्रभारी के माध्यम से पहुंचाया गया तब इसका मसौदा बदलकर यह प्रस्ताव सुक्खु को बदलने का मांगपत्र बन गया। इस तरह प्रस्ताव का मसौदा बदलने से फिर विधायकों में रोष फैल गया। यह रोष इतना बढ़ा कि एक बार भी कुछ विधायकों में समर्थन का प्रस्ताव तैयार कर दिया और इस प्रस्ताव पर 18 विधायको ने अपने हस्ताक्षर कर दिये। सूत्रों की माने तो इस प्रस्ताव में स्पष्ट कहा गया कि पहले प्रस्ताव की उन्हे सही जानकारी नही दी गयी थी। यदि सही जानाकरी होती तो वह ऐसे प्रस्ताव पर कतई हस्ताक्षर न करते। सुक्खु के समर्थन में 18 विधायकों के आ जाने से एक बार फिर वीरभद्र सिंह की रणनीति की करारी हार हुई है।
इस परिदृश्य में यह सवाल उभरना स्वाभाविक है कि वीरभद्र और उनके कुछ विश्वस्त लोग बार- बार सुक्खु को हटवाने क्यों प्रयास कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि वीरभद्र के इस कार्यकाल में विभिन्न निगमो/वार्डोे में जितनी राजनीतिक ताजपोशीयां हुई है उनके कारण करीब चालीस विधानसभा हल्कों में समानान्तर सत्ता केन्द्र बन गये हैं। इनमें ताजपोशीयां पाये सभी लोग आने वाला विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं। यह भी सार्वजनिक हो चुका है कि ताजपोशीयां पाने वाले अधिकांश लोग विक्रमादित्य सिंह के समर्थन से इस मुकाम तक पहुंचे है। यह भी जगजाहिर है कि इन्ही लोगों ने वीरभद्र बिग्रेड का गठन किया था जिसे भंग करके अब एक एनजीओ की शक्ल दी गयी है। यह एनजीओ भी एक प्रकार से समानान्तर राजनीतिक मंच है। इसके लोग भी विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते हैं लेकिन इसी एनजीओ के अध्यक्ष ने कुल्लु में सूक्खु के खिलाफ मानहानि का मामला दायर कर रखा है। जिसका सीधा अर्थ है कि सुक्खु तो बतौर कांग्रेस अध्यक्ष टिकट के लिये ऐेसे लोगों के नाम का अनुमोदन करेगा नही। संभवतः इसी स्थिति को भांपते हुए विक्रमादित्य भी कई बार यह ब्यान दे चुके हैं कि केवल जीतने की संभावना रखने वालो को ही टिकट दिया जाना चाहिये लेकिन जीत की संभावना की क्या परिभाषा है इसका कोई खुलासा नही किया गया है। ऐसे में केवल व्यक्तिगत वफादारी ही इसकी कसौटी रह जाती है। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक वीरभद्र की रक्षा की मंशा से ही बार-बार सुक्खु को हटवाने का प्रयास करते आ रहे हैं। क्योंकि केवल पार्टी अध्यक्ष बनकर ही इन लोगों का टिकट के लिये अनुमोदन किया जा सकता है और यदि ऐसा न हो पाया तो संगठन में एक बड़ा विघटन भी शक्ल ले सकता है लेकिन इस समय वीरभद्र सिंह का यह सुक्खु विरोध ही सुक्खु की राजनीतिक ताकत बन गया है। क्योंकि वीरभद्र के विरोध का दम रखने वाला ही दूसरों की रक्षा कर पायेगा।

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