मौत की भरपाई कोई निर्माण नहीं कर सकता यह समझना होगा
एन.जी.टी. के फैसले की अनुपालना क्यों नहीं हो रही?
सारा विनाश जल विद्युत परियोजनाओं और फोरलेन निर्माण क्षेत्रों में ही क्यों हुआ।
शिमला/शैल। इस बार भारी बरसात के कारण जो नुकसान हुआ है उससे प्रदेश का कोई जिला नहीं बचा है। सैकड़ो के हिसाब से इंसान और पशु मारे गये हैं। कई जगह पूरे के पूरे गांव तबाह हो गये हैं। पूरे नुकसान के पूरे आंकड़े आने में लम्बा समय लगेगा। सरकारी और निजी संपत्ति का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई करने में दसकांे लग जायेंगे। पूरे प्रदेश में सारे शिक्षण संस्थान एक साथ बन्द करने पड़े हैं। शिमला में ही एक मंदिर में एक साथ इतने लोगों का दब जाना और शहर की हर मुख्य सड़क का ब्लॉक हो जाना अपने में ही कुछ ऐसे सवाल खड़े कर जाता है जिन्हेें टालना भविष्य के और नुकसान को न्योता देना होगा। क्योंकि जिस शिमला को स्मार्ट बनाने की योजना पर काम चल रहा हो जब वही प्रकृति का बंधक होकर रह जाये तो यह सोचना ही पड़ेगा कि यह सब एक साथ कैसे घट गया? क्या इसके लिये हमारी नीतियां और महत्वकांशायें भी जिम्मेदार नहीं रही है। क्योंकि हिमाचल भूकंप जोन चार और पांच में आता है। विभिन्न संस्थानों के अध्ययन के आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश में हर माह छोटे स्तर के पांच भूकंप के झटके आते हैं। वाडिया संस्थान देहरादून के मुताबिक अक्तूबर 2021 से मार्च 2023 तक प्रदेश में भूकंप के 87 झटके आ चुके हैं। ऊना को छोड़कर हर जिले में यह झटके आये हैं। आंकड़ों के अनुसार चम्बा 26 मण्डी 15 किन्नौर 12 शिमला 11 कांगड़ा 7 लाहौल-स्पीति 4 कुल्लू 4 सिरमौर 3 हमीरपुर 2 बिलासपुर 2 सोलन 1 और ऊना 0। अध्ययन के अनुसार छोटे झटकों से भूस्खलन आता है।
इन आंकड़ों के साथ ही जल विद्युत अध्ययन और कार्यरत योजनाओं के आंकड़ों पर भी नजर डालना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि हिमाचल को जल विद्युत राज्य के रूप में प्रचारित और प्रसारित किया गया है। हिमाचल में 27436 मैगावाट जल विद्युत चिन्हित की गयी है। इसमें से 24000 मैगावाट का दोहन योग्य करार दिया गया है। 20912 मैगावाट की परियोजनाएं निर्माण के लिये आबंटित भी हो चुकी है और 10519 मैगावाट की परियोजनाएं उत्पादन में आ चुकी हैं। इन परियोजनाओं के निर्माण में जो बांध बनाये गये हैं जो सुरगंे निकाली गयी हैं उसमें हुये खनन से जो लाखों टन मलवा निकला है उसे कहां डाला गया? इनके लिये जो सड़क निर्माण हुआ उसमें जो पेड़ और पहाड़ काटे गये क्या उससे पर्यावरण प्रभावित नहीं हुआ? 2010 में प्रदेश उच्च न्यायालय में आयी एक याचिका में अदालत ने इस सबके अध्ययन के लिये एक शुक्ला कमेटी गठित की थी। उस कमेटी की रिपोर्ट में आया है की चम्बा में रावी पर बन रही परियोजनाओं में 65 किलोमीटर तक रावी अपने मूल स्वरूप से गायब है। इस रिपोर्ट के आधार पर अदालत ने जो दिशा-निर्देश सरकार और विद्युत निर्माता कंपनियों को दिये हैं उन पर आज तक कोई अमल नहीं हो पाया है।
राजधानी शिमला में ही अवैध निर्माणों को प्रोत्साहन देने के लिए नौ बार रिटैन्शन पॉलिसीयां लायी गयी हैं। प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर एन.जी.टी. और सर्वाेच्च न्यायालय तक इस पर गंभीर टिप्पणियां कर चुके हैं। दोषियों को नामतः चिन्हित करके उनके खिलाफ कड़ी कारवाई करने के निर्देश तक अदालत दे चुकी है। लेकिन किसी भी सरकार ने यह कारवाई करने का साहस नहीं किया है। सारी सरकारें इसके लिये बराबर की दोषी रही हैं। एन.जी.टी. ने नवम्बर 2016 में शिमला में नये निर्माण पर प्रतिबन्ध लगाया था। शिमला में ढाई मंजिल से अधिक का निर्माण नहीं किया जा सकता। लेकिन इसके बाबजूद अदालत में. आये रिकॉर्ड के मुताबिक तीस हजार के करीब अवैध निर्माण हो चुके हैं। इसी का संज्ञान लेते हुये शीर्ष अदालत ने शिमला प्लान को अभी अनुमोदित नहीं किया है। लेकिन सुक्खू सरकार ने भी अवैधता को आगे बढ़ाते हुये ऐटीक फ्लोर को रिहाईशी योग्य बनाने और बेसमैन्ट को खोलने के आदेश नगर निगम चुनाव में कर दिये। ए.जी.टी.का फैसला प्रदेश सरकार की अपनी रिपोर्ट पर आधारित है। तरुण कपूर जो इस समय प्रधानमंत्री के सलाहकार भी है उनकी रिपोर्ट एन.जी.टी. के फैसले का बड़ा आधार है।
यह सारी चर्चा इसलिये आवश्यक है क्योंकि इस आपदा में जो नुकसान है उसका बड़ा क्षेत्र जल विद्युत परियोजनाओं और फोरलेन सड़कों का निर्माण क्षेत्र रहा है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस विनाश के लिये सरकार की योजनायें सबसे ज्यादा जिम्मेदार रही है। क्योंकि भूकंप के लिये हुये अध्ययनों में साफ कहा गया है कि इसके लिये जलविद्युत परियोजनाओं और सड़क निर्माण परियोजनाओं के लिये हुआ अवैज्ञानिक खनन जिम्मेदार है। प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री ने भी इस विनाश के लिये अवैध खनन को जिम्मेदार ठहराया है। इस परिदृश्य में भविष्य के लिये जल विद्युत परियोजनाओं और फोरलेन सड़कों के निर्माण पर नये सिरे से विचार करना होगा। क्योंकि मौत की भरपाई कोई निर्माण नहीं कर सकता।
क्या कांग्रेस में उन विद्रोहियों की वापसी हो रही है जिन्होंने चुनावों में गद्दारी की है
शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने पिछले दिनों जल उपकर आयोग का गठन किया है। इसमें एक अध्यक्ष और तीन सदस्य नियुक्त किये गये हैं। आयोग का अध्यक्ष जल शक्ति विभाग से सेवानिवृत्त हुये सचिव अमिताभ अवस्थी को लगाया है। अवस्थी कांगड़ा के धर्मशाला के रहने वाले हैं जबकि तीनों सदस्य जिला शिमला के रहने वाले हैं। इनमें से धरेला सेवानिवृत्त इंजीनियर है और जोगिन्दर कवंर तथा अरुण शर्मा राजनीतिक कार्यकर्ता है। अरुण शर्मा एक समय शिमला कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। लेकिन जोगिन्दर कंवर कांग्रेस के पिछले विधानसभा चुनावों में मुखर विरोधी रहे हैं। पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष एवं विधायक कुलदीप राठौर के विरुद्ध उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी विजय पाल खाची का हर तरह से खुलकर समर्थन किया है। शिमला और अन्य स्थानों में पर भी उन्होंने चुनावों में भाजपा का खुलकर समर्थन किया है। जोगिन्दर कंवर कॉलेज और विश्वविद्यालय में शायद मुख्यमंत्री के निकट सहयोगी रहे हैं। वैसे जोगिन्दर कंवर एक अच्छे राजनीतिक कार्यकर्ता और भरोसेमंद मित्र माने जाते हैं। लेकिन जिस तरह से कांग्रेस के अन्दर इस ताजपोशी से सवाल उठे हैं यदि समय रहते उन्हें शान्त न किया गया तो कभी भी एक बड़ा विस्फोट सरकार और संगठन के बीच हो सकता है। क्योंकि सुक्खू की सरकार पर मित्रों की सरकार होने का जो आरोप विपक्ष लगा रहा था वही आज कांग्रेस के अपने भीतर से भी उठने लग पड़ा है।
जल उपकर अधिनियम सुक्खू सरकार ने ही पारित किया है। लेकिन भारत सरकार ने इस अधिनियम को गैर कानूनी और असंवैधानिक करार देते हुये केन्द्र के स्वामित्व वाली जल विद्युत परियोजनाओं के प्रबंधन को बाकायदा पत्र भेजकर यह उपकर न देने और इसका पुरजोर विरोध करने का निर्देश दिया है। सरकार के मुताबिक कुछ प्राइवेट सैक्टर के उत्पादकों ने यह उपकर लागू करने पर सहमति जताई है। लेकिन कुछ उत्पादकों ने इस अधिनियम को उच्च न्यायालय में चुनौती भी दे रखी है और मामला अदालत के विचार अधीन है। इस अधिनियम को उच्च न्यायालय ने स्टे नहीं किया है इसीलिए सरकार जल उपकर आयोग का गठन कर पायी है। यदि उच्च न्यायालय इस अधिनियम के पक्ष में भी निर्णय देता है तो भी यह मामला अपील में सर्वाेच्च न्यायालय जायेगा। क्योंकि केन्द्र सरकार इसका विरोध कर रही है। जिन राज्यों ने ऐसा जल उपकर लगा रखा है वहां पर शायद केन्द्र के सीधे स्वामित्व वाली परियोजनाएं नहीं है। पंजाब और हरियाणा की सरकारें भी इस उपकर का विरोध कर रही हैं। अभी हिमाचल सरकार ने किसी भी जल विद्युत उत्पादक को जल उपकर के बिल नहीं भेजे हैं। माना जा रहा है कि यह उपकर देने वाली हिमाचल सरकार के स्वामित्व वाली परियोजनाएं ही न रह जायें। वैसे भी जल उपकर आयोग का दखल तो इस उपकर के तहत उत्पादक को दिये जाने वाले बिल और जल शक्ति विभाग के मध्य आये किसी विवाद पर ही शुरू होगा। ऐसे में इस उपकर के माध्यम से जो राजस्व जुटाने की योजना बनायी गयी थी उसे पूरा होने में लम्बा समय लगेगा। तब तक यह आयोग एक राजनीतिक बहस का विषय होकर ही रह जायेगा।
इस परिदृश्य में सरकार पर अपनो के ही जो आक्षेप आने शुरू हो गये हैं उनके परिणाम गंभीर होने की आशंका बढ़ती जा रही है। क्योंकि अब तक सरकार ने जितनी गैर विधायकों की ताजपोशीयां की हैं उनमें शायद 95ः से भी अधिक अकेले जिला शिमला से ही है। यह सवाल उठ रहा है कि क्या जिला शिमला के बाहर कांग्रेस संगठन और कार्यकर्ता है ही नहीं? यह भी चर्चा है कि इतनी सारी ताजपोशीयां शिमला से ही करके यहां के चुने हुये विधायकों के खिलाफ भी समानान्तर सत्ता केन्द्र तो नहीं खड़े किये जा रहे हैं। क्योंकि लोगों को मुख्यमंत्री से काम करवाने के लिये यह सत्ता केन्द्र आसानी से उपलब्ध रहेंगे। इसी के माध्यम से लोगों का अपने मंत्रियों विधायकों के पास या हॉली लॉज जाना भी कम हो जायेगा। इस समय यह आरोप तो मंत्रियों से भी आने शुरू हो गये हैं कि मुख्यमंत्री की अप्रूवल के बाद भी सचिव और विभागाध्यक्ष के स्तर पर इनके काम नहीं हो रहे हैं। शायद सारे अधिकारी मुख्यमंत्री ने अपने ही पास केंद्रित कर रखे हैं।
यहां तक चर्चाएं चल पड़ी हैं कि कल तक जो विधायक आगामी मंत्रिमंडल विस्तार में जगह पाने के लिये प्रयास कर रहे थे अब वह भी मन्त्री बनने के ज्यादा इच्छुक नहीं रह गये हैं। माना जा रहा है कि आने वाले लोकसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के बीच काफी तनावपूर्ण राजनीतिक स्थितियां बनेंगी। एक-एक सीट के लिये मारकाट होगी। भाजपा अभी से आक्रामक होती जा रही है। जबकि कांग्रेस के पास भाजपा के खिलाफ कुछ नहीं है। जो आरोप कल तक बतौर विपक्ष कांग्रेस भाजपा पर सदन के भीतर और बाहर हमले करती थी उन हमलों की धार इन आठ माह में बुरी तरह पूर्ण हो चुकी है क्योंकि सरकार व्यवस्था बदलने में लगी थी। इसी सूत्र के कारण आज भी कांग्रेस कार्यकर्ता स्वयं ही आश्वस्त नहीं हो पा रहा है कि सही में सत्ता बदल चुकी है। सरकार ने अपने आठ माह के कार्यकाल में अपनों से ज्यादा भाजपाइयों के हितों की रक्षा की है। शिमला कांग्रेस का सबसे मजबूत दुर्ग माना जाता था लेकिन अनुपात से अधिक ताजपोशीयों ने इस दुर्ग को भी अन्दर से खोखला कर दिया। इसका असर पूरे प्रदेश पर पढ़ने जा रहा है। क्योंकि जितना प्रतिनिधित्व अकेले शिमला को दे दिया गया उतना अन्य जिलों को दिया जाना संभव ही नहीं होगा। इसके परिणाम स्वरूप कल लोकसभा चुनावों में न विधायकों और न कार्यकर्ताओं के पास कुछ परोसने को होगा। हां यह माना जा रहा है की जोगिन्दर कंवर की ताजपोशी के बाद कांग्रेस के हर उस विद्रोही की वापसी का मार्ग प्रशस्त हो गया है जिस पर चुनावों में पार्टी के साथ गद्दारी करने के आरोप लगे हैं।
कार्यकर्ताओं की अनदेखी पर प्रतिभा के बाद राठौर भी हुये मुखर
जिन लोगों ने चुनावों में कांग्रेस को विरोध किया उनकी ताजपोशी क्यों और कैसे आम आदमी को महंगाई और बेरोजगारी के अतिरिक्त कुछ नहीं दे पायी यह सरकार बेरोजगार युवा होने लगे लामबन्द मित्रों की ही सरकार होकर रह गयी सुक्खू सरकार कार्यकर्ताओं और समर्थकों पर बने मामले तक वापस नहीं हुये
शिमला/शैल। सुक्खू सरकार को सत्ता में आये अभी आठ माह का ही समय हुआ है। लेकिन इस अल्पकाल में ही यह सरकार अपनों के ही निशाने पर आ गयी है। यह निशाना भी किसी और ने नहीं बल्कि पार्टी की अध्यक्षा एवं सांसद प्रतिभा सिंह तथा पूर्व प्रदेश अध्यक्ष एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता विधायक कुलदीप राठौर ने साधा है। सरकार पर कार्यकर्ताओं की अनदेखी किये जाने का आरोप है। प्रतिभा सिंह यह शिकायत राष्ट्रीय अध्यक्ष खड़गे से दिल्ली में मुलाकात करके उनके संज्ञान में ला चुकी है। कुलदीप राठौर ने शिमला में एक पत्रकार वार्ता में मुख्यमंत्री से मांग की है कि जिन सैकड़ों कार्यकर्ताओं के दम पर पार्टी सत्ता में आयी है उन्हें उचित मान सम्मान दिया जाना चाहिये। राठौर ने कहा है कि पिछली सरकार के खिलाफ धरने प्रदर्शनों में भाग लेने के लिए दर्जनों कार्यकर्ताओं के खिलाफ मामले बने जो अब तक वापस ले लिए जाने चाहिए लेकिन ऐसा हुआ नहीं है राठौर के मुताबिक उनके अपने खिलाफ भी कई मामले बने हैं। लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह ने तो अधिकारियों को लक्ष्मण रेखा न लांघने की चेतावनी देते हुये यहां तक कहा है कि जो प्रस्ताव विभाग की ओर से सरकार को भेजे जाते हैं वह दिल्ली पहुंचते-पहुंचते कैसे बदल जाते हैं।
सुक्खू सरकार के खिलाफ यह आम आदमी की शिकायत है कि उसके काम नहीं हो रहे हैं। यह पता ही नहीं चलता कि उनके प्रतिवेदन कहां चले जाते हैं। कुछ मंत्रियों की भी यही शिकायत है कि विभाग में सचिव और निदेशक के स्तर पर उनके आदेशों की अनुपालना नहीं हो रही है। चर्चा है कि मंत्री जब अपने विभाग के सचिव की शिकायत लेकर मुख्यमंत्री के पास गये और सचिव को बदलने का आग्रह किया तो मुख्यमंत्री ने सचिव को बदलने की बजाये मंत्री का ही विभाग बदलने की पेशकश कर दी। सरकार में शक्तियों के इस जुबानी केंद्रीयकरण पर उस समय मोहर लग गयी जब एक बड़े अधिकारी को मुख्यमंत्री ने डांट लगा दी। चर्चा है कि बड़े अधिकारी के कार्यालय में मुख्यमंत्री से अनुमति प्राप्त कुछ आवेदन/प्रतिवेदन आगामी अनुपालना के लिये पहुंचे थे। अधिकारी ने उन पर तुरन्त प्रभाव से अमल कर दिया। अमल करने की रिपोर्ट लेकर अधिकारी मुख्यमंत्री को सूचित करने उनके कार्यालय पहुंच गये। मुख्यमंत्री से मिलने गये तो उन्हें पी.एस. के कमरे में प्रतीक्षा करने के लिये कह दिया। कुछ समय बाद मुख्यमंत्री वहां आये और अधिकारी को डांट दिया कि उनसे बिना पूछे उनकी अनुमतियों पर अमल कैसे कर दिया। वह तो हरके आवेदन पर अप्रूवल कर देते हैं लेकिन करना वही होता है जिसका वह संदेश करें। मुख्यमंत्री कार्यालय में घटा यह किस्सा सचिवालय के गलियारों से लेकर स्कैंडल तक हर एक की जुबान पर है। मुख्यमंत्री को इस तरह के केंद्रीयकरण की आवश्यकता क्यों आ पड़ी है इसको लेकर अटकलों का बाजार गर्म है और शायद यह दिल्ली दरबार तक भी पहुंच चुका है।
इस समय सरकार बनने के बाद जितने गैर विधायकों की ताजपोशी की गयी है उनका एक ही मानदण्ड रहा है मुख्यमंत्री से व्यक्तिगत मित्रता। इस मित्रता में दो-चार ऐसे लोग भी हैं जो भाजपा के समर्थक और कांग्रेस के विरोधी रहे हैं। चुनावों में ऐसे लोगों ने कुछ स्थानों पर कांग्रेस प्रत्याशियों का खुलकर विरोध किया है। इस पर तो यहां तक चर्चा चल पड़ी है कि ऐसा किसी निश्चित योजना के तहत तो नहीं किया गया था। माना जा रहा है कि जल्द ही इस दिशा में कोई बड़ा खुलासा सामने आने वाला है। शायद इसी वस्तुस्थिति के कारण हाईकमान के रणनीतिकार के सर्वे से लेकर एक टी.वी. चैनल और ज्योतिष की भविष्यवाणीयों तक में आ रहा है कि आने वाले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस प्रदेश की चारों सीटें हार जायेगी। इन आकलन में इसलिये दम लग रहा है क्योंकि यह सरकार आठ माह में सात हजार करोड़ का कर्ज लेने के बाद भी आम आदमी को महंगाई और बेरोजगारी के अतिरिक्त कुछ नहीं दे पायी है। बेरोजगार युवा सरकार के खिलाफ लामबन्द होने लग गया है। विपक्ष सरकार पर हमलावर होना शुरू हो गया है। भाजपा यह आरोप लगा रही है कि यह तो केवल मित्रों की सरकार है आम आदमी से इसका कोई लेना देना नहीं है। कोई भी कांग्रेस नेता भाजपा के आरोपों का कारगर जवाब नहीं दे पा रहा है। अब यह देखना शेष है कि कांग्रेस हाईकमान इस स्थिति का क्या संज्ञान लेती है। क्योंकि सरकार अभी जनता को दी गारंटीयों पर कुछ ज्यादा नहीं कर पायी है। ओल्ड पैन्शन को लेकर भी निगमों/बोर्डों के कर्मचारियों के प्रति अभी सरकार स्थिति स्पष्ट नहीं कर पायी है। कर्मचारी इस पर आन्दोलन तक की बात कर रहे हैं। हिमाचल सरकार की व्यवहारिक स्थिति को यदि भाजपा ने प्रदेश से बाहर भी उठा दिया तो पार्टी के लिये एक बड़ा संकट खड़ा हो जायेगा। क्योंकि हिमाचल सरकार पिछली भाजपा सरकार के प्रति जिस तरह का नरम रुख लेकर चल रही है उससे कई तरह के सवाल उठने लगे पड़े हैं।
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