Friday, 19 September 2025
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केंद्र के अस्पष्ट पत्रों से उलझा हाटी मामला

  • एक वर्ष में स्थिति स्पष्ट न कर पाना राज्य सरकार की असफलता
शिमला/शैल।हिमाचल के सिरमौर जिले के गिरीपार क्षेत्र के हाटियों को पचास वर्ष के लंबे संघर्ष के बाद भारत सरकार द्वारा संसद में संशोधन लाकर जो जनजातिय का दर्जा दिया था उसकी अनुपालना करवाने के लिए भी हाटी समुदाय को आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ रहा है। 154 पंचायतों के तीन लाख हाटीयों को आंदोलन का रास्ता इसलिए अपनाना पड़ा है कि 2022 में भाजपा शासन के दौरान केंद्र ने संविधान संशोधन करके हाटीयों को जनजातिय का दर्जा दिया था। लेकिन राज्य सरकार इस पर अब तक अमल करने के आदेश जारी नहीं कर पायी है। सरकार के अनुसार जो संशोधन राष्ट्रपति से हस्ताक्षरित होकर आया है उसमें कहा गया है कि गिरीपार रहने वाले सभी लोगों को जनजातिय का दर्जा हासिल होगा। लेकिन संबद्ध मन्त्रालय के अवर सचिव से जो पत्र राज्य सरकार को मिला है उसमें इस क्षेत्र में रहने वाले एस सी समाज को इससे बाहर रखा गया है। इसी के साथ केंद्र की ओर से यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इस फैसले को लागू करने का आधार वर्ष क्या होगा। ऐसे में यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या इन बिन्दुओं पर केंद्र सरकार से कोई स्पष्टीकरण आय बिना इस फैसले को लागू किया जा सकता है या नहीं। क्योंकि ऐसे मामलों में एक आधार वर्ष तो तय किया ही जाता है जो केंद्र ने न तो राष्ट्रपति को भेजें और न ही संसद से पारित संशोधन में स्पष्ट किया है तथा न ही अवर सचिव द्वारा भेजे गये पत्र मे। स्मरणीय है कि गिरी पार क्षेत्र के लोगों द्वारा जनजातीय दर्जा दिये जाने का मुद्दा 1967 में जौनसार बाबर को यह दर्जा मिलने के बाद उठाया जाना शुरू हुआ। क्योंकि दोनों क्षेत्रों की भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियां एक जैसी थी। विकास के नाम पर यह क्षेत्र पिछड़े हुये थे। जातिवाद और देव दोष जैसे संस्कृति से जकड़े हुये थे। खाप पंचायत की तर्ज पर खुम्वली के फैसलों से बंधा समाज था। लेकिन आज जब 2023 में इनको जनजाति का दर्जा दिया जा रहा है तब आधा शतक पहले की परिस्थितियां नहीं है। अब तो शायद दूसरे क्षेत्रों के लोग भी वहां के निवासी हो गये है। ऐसी वस्तुस्थिति में फैसले पर अमल के लिए एक आधार वर्ष चिन्हित होना आवश्यक है। दूसरी ओर जब वहां के रहने वाले अनुसूचित जाति के लोगों को भी जनजाति करार दे दिया गया तब उसमें रोष होना स्वाभाविक था। क्योंकि 1950 में अनुसूचित जाति और जनजाति का फैसला और वर्गीकरण हो गया था। इसके अनुसार अनुसूचित जाति को 15 % आरक्षण हासिल है जो इस क्षेत्र के इन लोगों को हासिल है परन्तु अब उन्हें भी जनजाति घोषित कर दिये जाने से उनके इस अधिकार में कटौती हो रही है। इसके लिए गिरी पार अनुसूचित जाति अधिकार संरक्षण समिति के मंच तले प्रदेश उच्च न्यायालय में केंद्र के फैसले को चुनौती दे दी गयी है। उच्च न्यायालय ने इस याचिका पर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार के तीन मंत्रालयों को नोटिस जारी कर दिया है । 18 दिसम्बर को यह मामला लगा है उधर आन्दोलन हाटी मंच ने इस फैसले पर दीपावली तक अमल करने के लिए राज्य सरकार को चेतावनी दे दी है। उसके बाद आन्दोलन के उग्र होने की घोषणा भी कर दी है। ऐसे में सुक्खु सरकार इस स्थिति से कैसे निपटती है यह देखना रोचक हो गया है। क्योंकि यह आन्दोलन उस समय आया है जब आगे लोकसभा चुनाव होने हैं।

कांग्रेस की गारंटियों पर भाजपा हुई आक्रामक

  • सुक्खू का व्यवस्था परिवर्तन हाईकमान के गले की फांस बना
  • डॉ. संबित पात्रा की वार्ता के बाद गारंटीयां बनी मूद्दा
  • जय राम, बिन्दल और अनुराग सभी हुए हमलावर

शिमला/शैल। क्या सुक्खू सरकार का व्यवस्था परिवर्तन और विधानसभा चुनाव में जारी की गयी गारंटीयों पर अब तक अमल न हो पाना अब हाईकमान के लिए भी राष्ट्रीय स्तर पर गले की फांस बनता जा रहा है। यह सवाल इसलिये प्रासंगिक हो गया है कि जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं उन राज्यों में भी कांग्रेस मतदाताओं से इसी तर्ज पर कुछ वायदे करने जा रही है। भाजपा कांग्रेस के वादों पर हिमाचल का उदाहरण देते हुए यह सवाल कर रही है कि जब हिमाचल में ही किये हुये वायदों पर अमल करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया जा सका है तो ऐसे में इन राज्यों में किये जा रहे वायदों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है। हिमाचल से ही ताल्लुक रखने वाले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और सूचना एवं प्रसारण तथा युवा सेवाएं और खेल मंत्री अनुराग ठाकुर इन गारंटीयों के नाम पर काफी आक्रामक हुये पड़े हैं। गौरतलब है कि प्रदेश में गारंटीयों को लेकर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष डॉ. राजीव बिन्दल और नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर ने जब प्रदेश में इन गारंटीयों को लेकर सुक्खू सरकार को घेरना शुरू किया तो इसका संज्ञान लेते हुये भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉक्टर संबित पात्रा ने भी प्रदेश का रुख कर लिया। डॉ. पात्रा ने सारी स्थिति का अध्ययन करके शिमला में एक पत्रकारवार्ता करके प्रदेश सरकार से गारंटीयों पर कड़े सवाल पूछ लिये। डॉ. पात्रा ने इन गारंटीयों को लेकर कांग्रेस की राष्ट्रीय महामंत्री प्रियंका गांधी को भी घेर दिया। क्योंकि कुछ गारंटीयों के वायदे उनसे भी करवा दिये गये थे। लेकिन डॉ. पात्रा के सवालों का जवाब प्रदेश सरकार और संगठन की ओर से कोई नहीं दे पाया। क्योंकि जमीनी सच्चाई यही है की गारंटीयों पर अमल की दृष्टि से कोई काम हुआ ही नहीं है।
बल्कि जिस व्यवस्था परिवर्तन को एक बड़े नारे के रूप में उछाला गया था आज कांग्रेस के मंत्री और दूसरे नेता इस व्यवस्था परिवर्तन को परिभाषित करने से भी डर रहे हैं। क्योंकि व्यवहारिक तौर पर यह व्यवस्था परिवर्तन पिछली भाजपा सरकार द्वारा चलाई गई व्यवस्था को ही ढोये रखने का पर्याय बन कर रह गया है। आज आम सवाल पूछा जा रहा है कि जिन अधिकारियों को लेकर कांग्रेस बतौर विपक्ष कड़े सवाल सदन में उठा चुकी है वही अधिकारी इस सरकार के भी अति विश्वस्तों की सूची में पहले स्थान पर हैं। सत्ता परिवर्तन होते ही बड़े स्तर पर पहले दस दिन में ही प्रशासनिक फेरबदल हो जाता था और जनता में भी सत्ता परिवर्तन का सन्देश चला जाता था। लेकिन व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर इस सरकार ने शिमला के जिलाधीश तक को नहीं बदला। इसी व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर यह सरकार कांग्रेस द्वारा विधानसभा चुनावों के दौरान जारी किये गये आरोप पत्र को आज तक विजिलैन्स को जांच के लिये नहीं भेज पायी है। भ्रष्टाचार को संरक्षण देना शायद इस सरकार की नीयत और नीति दोनों बन गयी है। जिस पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष राजेंद्र राणा को विधानसभा में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के भ्रष्टाचार को लेकर पूछे गये अपने ही सवाल को अन्तिम क्षणों में वापस लेना पड़ा हो वहां भ्रष्टाचार की क्या स्थिति होगी और भ्रष्टाचारी कितने पावरफुल होंगे इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
आज हिमाचल सरकार कांग्रेस की कार्यपद्धति और उसके चुनावी वायदों की व्यवहारिकता का ऐसा प्रमाण पत्र राष्ट्रीय स्तर पर अपने आप ही खड़ा हो गया जिसका कोई जवाब किसी नेता के पास नहीं रह गया है। इस समय कांग्रेस का कोई भी छोटा बड़ा नेता भाजपा के खिलाफ एक शब्द भी बोल पाने की स्थिति में नहीं रहा गया है। जिन सवालों पर यही कांग्रेस भाजपा को सदन में घेरती थी आज एक भी सवाल पूछने का सहास नही कर पा रही है। आज राष्ट्रीय स्तर पर मनीष सिसोदिया की जमानत याचिका सुप्रीम कोर्ट में खारिज होने से विपक्षी राजनीति के समीकरणों में जो बदलाव आया उसके परिदृश्य में कांग्रेस को अपनी राज्य सरकारों पर कड़ी नजर रखने की आवश्यकता है क्योंकि इन्हीं सरकारों की कारगुजारी राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के लिए गुण दोष सिद्ध होंगी। क्योंकि भाजपा ने सुक्खू सरकार की कथनी और करनी को ऐसे समय राष्ट्रीय प्रश्न बना दिया है जब मुख्यमंत्री स्वस्थ्य कारणों से एम्स में दाखिल है और भाजपा के किसी भी सवाल का सीधे जवाब देने की स्थिति में नहीं है। पांच राज्यों का चुनाव जीतने के लिये भाजपा जिस तरह की गेम प्ले करने पर आ गयी है उसके परिदृश्य में हिमाचल में भी भाजपा द्वारा ऑपरेशन कमल की विसात बिछाने को नजरअन्दाज करना आसान नहीं होगा। क्योंकि मुख्य संसदीय सचिवों का मामला प्रदेश उच्च न्यायालय में चल ही रहा है।


घातक होगा प्रतिभा सिंह की चिन्ता और चेतावनी को नजर अन्दाज करना

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने पिछले वर्ष दिसम्बर में प्रदेश की सत्ता संभाली थी उस समय केवल मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री का ही शपथ ग्रहण हुआ था। एक माह बाद जनवरी में मंत्रिमंडल का विस्तार और इसमें तीन मंत्री पद खाली छोड़ दिये गये थे। लेकिन इस विस्तार से पहले छः मुख्य संसदीय सचिवों को मुख्यमंत्री ने शपथ दिला दी। जब मुख्यमंत्री का चयन हुआ था तब सुक्खू के साथ ही मुकेश अगनिहोत्री और हौली लॉज से प्रतिभा सिंह का नाम भी दावेदारों के रूप में चर्चा में आया था। लेकिन उस समय यह चर्चा भी बाहर आ गयी थी कि 20-21 विधायकों ने हाई कमान के प्रतिनिधियों को यह संकेत दे दिया था कि यदि सुक्खू को मुख्यमंत्री न बनाया गया तो वह पार्टी से बगावत कर देंगे। उस समय इन चर्चाओं को ज्यादा अधिमान नहीं दिया गया था। क्योंकि कांग्रेस के विधायकों को उस समय प्रदेश से बाहर ले जाने या किसी स्थान पर ऑपरेशन कमल के डर से बंधक बनाकर रखने की नौबत नहीं आयी थी। उस समय भाजपा की ओर से प्रत्यक्ष ऐसा कोई आचरण भी नहीं किया गया जिससे यह लगता कि भाजपा कुछ गड़बड़ कर सकती है।
लेकिन सरकार बनने के बाद से लेकर आज तक कांग्रेस का संगठन और उसके वरिष्ठ कार्यकर्ता जिस नजरअन्दाजी के साये में चल रहे हैं वह अब कांग्रेस अध्यक्षा प्रतिभा सिंह की मुखरता के मुकाम पर आ पहुंची है। कार्यकर्ताओं की अनदेखी को वह राष्ट्रीय अध्यक्ष खड़गे और अन्य के संज्ञान में कई बार ला चुकी है। प्रदेश में संगठन पूरी तरह निष्क्रिय चल रहा है। जिस तरह से मुख्यमंत्री ने कुछ गैर विधायकों की ताजपोशियां कर रखी हैं उससे यही संकेत और संदेश गया है कि जब सुक्खू बतौर कांग्रेस अध्यक्ष एक कठिन राजनीतिक दौर से गुजर रहे थे उस समय जिन मित्रों ने उनका साथ दिया था इस समय वही लोग उनकी प्राथमिकता हैं। उस समय भी एक हस्ताक्षर अभियान चला था। एक एन.जी.ओ. के अध्यक्ष और सुक्खू में हुआ राजनीतिक टकराव अदालत तक भी जा पहुंचा था। बल्कि उसी दौरान जब सुक्खू ने भाजपा पर शिमला सोलन और बिलासपुर में 15 करोड़ की जमीन खरीदने का आरोप एक पत्रकार वार्ता में लगाया। लेकिन इस आरोप की डिटेल जारी होने से पहले ही हमीरपुर में विधायक विजय अग्निहोत्री, नरेन्द्र ठाकुर, जिला अध्यक्ष अनिल ठाकुर और महामंत्री राजेश ठाकुर व अजय शर्मा ने एक संयुक्त प्रेस ब्यान में सुक्खू के खिलाफ कई गंभीर आरोप लगा दिये। लेकिन दोनों ओर से यह आरोप ब्यानों से आगे नहीं बढ़े।
राजनीतिक विश्लेष्कों की नजर में इस समय कांग्रेस संगठन और सरकार के रिश्ते जो आकार लेते नजर आ रहे हैं उनका आकलन करने के लिए पूर्व में घटित इन स्थितियों को संज्ञान में रखना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि विधायकों की शपथ से पहले ही प्रोटेम स्पीकर द्वारा जयराम को नेता प्रतिपक्ष बना देना और उसके बाद मंत्रिमंडल बनते ही एक दर्जन भाजपा विधायकों द्वारा मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को उच्च न्यायालय में चुनौती दिया जाना एक सुविचारित योजना का हिस्सा माना जा रहा है। क्योंकि जब पूर्व में ऐसी नियुक्तियों को उच्च न्यायालय पहले ही निरस्त कर चुका है और उस पर सर्वाेच्च न्यायालय जुलाई 2017 में ही अपनी मोहर लगा चुका है। यह सब संज्ञान में होने के बावजूद ऐसी नियुक्तियां का किया जाना ही अपने में कई सवालों और संदेहों को जन्म देता है। ऐसी राजनीतिक वस्तुस्थिति में संगठन और सरकार में आकार लेता टकराव गंभीर माना जा रहा है। क्योंकि विश्लेष्कों की नजर में स्वर्गीय वीरभद्र सिंह की राजनीतिक विरासत को अभी इन लोकसभा चुनावों के बाद अगले विधानसभा चुनाव में भी अप्रसांगिक नहीं किया जा सकता। अभी जो कुछ घट रहा है उससे इन लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का रास्ता आसान नजर नहीं आ रहा है।

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