Friday, 19 September 2025
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क्या उप-मुख्यमंत्री को राहत मिलेगी एन.के.शर्मा बनाम देवी लाल मामले से उठी चर्चा

शिमला/शैल। उप-मुख्यमंत्री और मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर उच्च न्यायालय में सुनवाई चल रही है इस मामले में उपमुख्यमंत्री ने उनका नाम प्रतिवादियों की सूची से हटाने का आग्रह अदालत से किया हुआ है। उनके आग्रह पर बहस पूरी होने के बाद यह मामला फैसले के लिये रिजर्व कर दिया गया है। अब 4 नवम्बर को यह फैसला आयेगा। इस फैसले पर पूरे प्रदेश की निगाहें लगी हुई हैं। क्योंकि यह मामला भाजपा विधायकों द्वारा उठाया गया है। जबकि इस समय देश के विभिन्न राज्यों में 16 उप-मुख्यमंत्री पदस्थ हैं और अधिकांश भाजपा शासित राज्यों से ही हैं। स्मरणीय है कि उप-मुख्यमंत्री का पद ब्रिटिश काल से ही चला आ रहा है। बिहार में अनुराग नारायण सिन्हा 1937 से 1939 और फिर 1946 से 52 तक उप-मुख्यमंत्री रहे हैं। वैसे संविधान में उप-मुख्यमंत्री या उप-प्रधानमंत्री परिभाषित नहीं है। यह विवाद स्व.विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री काल में विवाद में आया था। उस समय जब राष्ट्रपति वेंकटरमन देवीलाल को पद की शपथ दिलाते स्वयं मंत्री शब्द का उच्चारण करें तो देवीलाल उप-प्रधानमंत्री शब्द का उच्चारण करें। उस समय एक एन.के.शर्मा इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गये थे। जस्टिस रंगनाथ मिश्रा की पीठ ने उस समय यह व्याख्या दी है कि That the oath should be viewed in two parts descriptive and substantial while the designation as Deputy Prime Minister is only descriptive the oath of office and secrecy which he (Devi Lal) under took is substantive and consequently does not vitiate the oath. सर्वाेच्च न्यायालय के इस फैसले के संद्धर्भ में उप-मुख्यमंत्री के मामले में क्या फैसला आता है यह देखना रोचक होगा। क्योंकि हरियाणा में जब दुष्यन्त चौटाला को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया था तब वह मामला भी अदालत में पहुंचा था और चौटाला को एन.के.शर्मा बनाम देवी लाल मामले के आधार पर ही राहत मिली थी। इस परिदृश्य में माना जा रहा है कि इस मामले में भी राहत मिल जाएगी।

सी.बी.आई. की जांच हुई अस्वीकार आरोप तय होने पर पहुंचा चिदम्बरम मामला

प्रबोध सक्सेना भी हैं इसमें सह अभियुक्त

  • यदि सक्सेना पर आरोप तय हो जाते हैं तो क्या सुक्खु उन्हें पद से हटा पायेंगे।
  • इस मामले में जल्द आरोप तय होने की संभावना है क्योंकि तीन वर्षों से इसी प्रीचार्ज स्टेज पर है यह मामला
शिमला/शैल। वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री पी.चिदम्बरम और अन्य 14 के खिलाफ 15-5-2017 को सी.बी.आई. में दर्ज हुआ मामला अब अदालत में आरोप तय होने के कगार पर पहुंच गया है। इस मामले में हिमाचल के मुख्य सचिव प्रबोध सक्सेना भी सह अभियुक्त हैं। जिस समय 2007 में आई.एन.एक्स.मीडिया को 305 करोड़ का विदेशी निवेश लेने की अनुमति वित्त मंत्रालय द्वारा दी गयी थी उस समय प्रबोध सक्सेना भी विदेशी निवेश संबर्द्धन बोर्ड में तैनात थे। इसलिए वित्त मन्त्री के साथ इस कार्यालय में तैनात कुछ कर्मचारियों/अधिकारियों को भी इस मामले में सीबीआई ने सह अभियुक्त बना रखा है। 2017 में दर्ज हुये इस मामले में सी.बी.आई. अदालत में आरोप पत्र दायर कर चुकी है। लेकिन इसमें आरोप तय होने से पूर्व ही कीर्ति चिदम्बरम ने सी.बी.आई. द्वारा संज्ञान में लिये गये दस्तावेजों का अवलोकन करने की गुहार अदालत से लगा दी। मार्च 2021 में सी.बी.आई. अदालत ने इस आग्रह को स्वीकार करते हुये दस्तावेजों के अवलोकन की अनुमति दे दी। सी.बी.आई. ने इसका विरोध करते हुये दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील दायर कर दी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने नवम्बर 21 को सी.बी.आई. की अपील को खारिज कर दिया। इस पर सी.बी.आई. सर्वाच्च न्यायालय में चली गयी और जुलाई 2023 में सर्वाच्च न्यायालय ने भी सी.बी.आई. की याचिका को अस्वीकार कर दिया। इस तरह यह मामला फिर सी.बी.आई. के ट्रायल कोर्ट में पहुंच गया और इसमें आरोप बनते हैं या नहीं इस पर बहस होनी है। यह है सुप्रीम कोर्ट का फैसला 1. We find no reason to interfere with the impugned order passed by the High Court. The Special Leave Petition is, accordingly, dismissed.
2. Pending interlocutory application(s) is/are disposed of.
पी.चिदम्बरम कांग्रेस के बड़े नेता हैं और इस समय देश की राजनीति जिस तर्ज पर चल रही है उसको देखते हुये इस मामले की अहमियत बढ़ जाती है। माना जा रहा है कि इस मामले को इतना लम्बा भी अदालत में के माध्यम से राजनीतिक उद्देश्यों के लिये ही किया गया है ताकि चुनाव में कांग्रेस नेताओं को भ्रष्ट प्रचारित करने के लिये इसका उपयोग किया जा सके। ऐसे में यदि इस मामले में आरोप तय हो जाते हैं तो इसका प्रभाव हिमाचल के प्रशासन और राजनीति पर भी पड़ेगा। क्योंकि प्रबोध सक्सेना भी इसमें सह अभियुक्त है यदि उनके खिलाफ आरोप तय हो जाते हैं तब भी क्या मुख्यमंत्री उन्हें अपना मुख्य सचिव बनाये रखते हैं या नहीं। यह सवाल इसलिये अहम हो जाता है की सुक्खु सरकार ने चार वरिष्ठों को नजरअंदाज करके सक्सेना को पदोनित किया था।
जबकि प्रदेश की जिस वित्तीय स्थिति पर यह सरकार श्वेत पत्र लेकर आयी है उसमें अधिकांश समय तक सक्सेना ही प्रदेश के वित्त सचिव रहे हैं। सक्सेना सुक्खु के विश्वसनीय अधिकारी हैं यह तो एक समय वायरल हुये व्हाट्सएप मैसेज से भी स्पष्ट हो गया था। इसलिये आज सक्सेना के स्थान पर किसी दूसरे को नियुक्त कर पाना सुक्खु के लिये सहज नहीं माना जा रहा है।

सुक्खु सरकार का पत्रकारों को तोहफा पांच गुणा बढ़ाये मकानों के किराये

  • क्या 65 वर्ष से अधिक के नहीं कर सकते पत्रकारिता
  • क्या यह कांग्रेस की राष्ट्रीय नीति का हिस्सा है
  • क्या विज्ञापनों में भेदभाव कर सकती है सरकार
शिमला/शैल। सुक्खु सरकार ने 16 अगस्त को लिये एक फैसले के पत्रकारों के लिए सरकारी आवास आबंटन नियमों में संशोधन करके उनके किराये में पांच गुणा वृद्धि कर दी है। इसी के साथ प्रस्थापित पत्रकारों की शैक्षणिक योग्यता और आयु प्रमाण पत्र भी मांग लिये हैं। चर्चा है कि 65 वर्ष से अधिक की आयु वालों से आवास खालीकरवा लिये जायेंगे। वैसे जब पत्रकारों को आवास आबंटित होते हैं तब उन्हें ऐसी आयु सीमा की कोई बंदिश नहीं बतायी जाती। क्योंकि पत्रकार कोई सरकारी कर्मचारी तो होता नहीं है। वैसे पत्रकारों को सरकार कोई सुविधा प्रदान करेगी ही ऐसा भी कोई नियम नहीं है। पत्रकार और पत्रकारिता की लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्या अहमियत होती है इसका अन्दाजा इसी से लग जाता है की पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा पिल्लर की संज्ञा हासिल है। सरकार की नीतियों की प्रासंगिकता और व्यवहारिकता पर तीखे सवाल पूछना यह पत्रकार का धर्म और कर्म माना जाता है। समाज के हर उत्पीड़ित की आवाज सार्वजनिक रूप से सरकार के सामने रखना पत्रकार से ही अपेक्षित रहता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ बेबाकी से आवाज उठाना पत्रकार से ही उम्मीद की जाती है। इसीलिये किसी समय यह कहा गया था की ‘‘गर तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो’’ पत्रकार सरकार का प्रचारक नहीं होता है। परन्तु आज की सरकारों को तो शायद गोदी मीडिया पसन्द है और उनकी आवश्यकता है। इसलिये सुक्खु सरकार ने भी मीडिया को गोदी बनाने की दिशा में यह कदम उठाया है। यह अलग बात है कि कांग्रेस पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ गोदी मीडिया कर्मियों को चिन्हित करके उनके बहिष्कार का फैसला लिया है। परन्तु सुक्खु तो व्यवस्था बदलने चले हैं और इसकी शुरुआत पत्रकारों से ही की जा रही है ताकि सरकार में फैली अराजकता और भ्रष्टाचार को दिये जा रहे संरक्षण पर कोई आवाज न उठ सके। इसलिये सुक्खु सरकार का कोई मंत्री या कांग्रेस संगठन का कोई भी पदाधिकारी इस पर कुछ नहीं बोल रहा है।
16 अगस्त को जो नीति संशोधन किया गया है उसमें साप्ताहिक समाचार पत्रों का कोई जिक्र ही नहीं किया गया है। क्योंकि इस सरकार ने सबसे पहले साप्ताहिक समाचार पत्रों के विज्ञापन ही बन्द कर दिये। इस सरकार के सलाहकारों और निति नियन्ताओं को यह नहीं पता की साप्ताहिक समाचार पत्रों के लिये भारत सरकार ने अलग से नीति बना रखी है। प्रचार-प्रसार के लिये साप्ताहिक पत्रों की वेबसाइट बनाने की सुविधा दे रखी है। साप्ताहिक पत्रों का भी डीएवीपी विज्ञापनों के लिये पंजीकरण और दर निर्धारण करता है। क्योंकि साप्ताहिक पत्रों का विषय विश्लेषण रहता है न की सूचना देना। यह साप्ताहिक पत्र ही थे जिन्होंने पिछली सरकारों का विश्लेषण करते हुये उनकी हार की गणना की थी। लेकिन सुक्खु सरकार साप्ताहिक समाचार पत्रों का गला घोंटकर उनको बन्द करवाना चाहती है।
पत्रकारिता एक ऐसा क्षेत्र है जहां व्यक्ति अंतिम क्षण तक सक्रिय रहता है क्योंकि उसके अनुभव और लेखन में तथ्यपरक वृद्धि होती रहती है। लेकिन सुक्खु सरकार मीडिया को गोदी बनाने के लिये उससे सुविधायें छीनने पर आ गयी है। जबकि विज्ञापनों को लेकर प्रेस परिषद और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। क्योंकि विज्ञापनों पर होने वाला खर्च किसी राजनीतिक दल या नेता का व्यक्तिगत पैसा नहीं होता है। उसके आबंटन और खर्च में पारदर्शिता रहना आवश्यक है। लेकिन सुक्खु सरकार तीखे सवाल पूछने वालों का गला घोंटना चाहती है। जबकि यही सरकार अपना साप्ताहिक पत्र प्रकाशित कर रही है। गोदी में बैठने की भूमिका निभाने वालों को एक-एक अंक में लाखों के विज्ञापन दे रही है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार तीखे सवाल पूछने वालों को सबक सिखाने की नीयत से यह संशोधन लेकर आयी है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या इसे बैक डेट से लागू किया जा सकता है? क्या पत्रकार सरकार के नौकर है या अपने संस्थान के। क्या संस्थाओं को सरकार इस तरह से नियंत्रित कर सकती है। जो प्रश्न पत्रकारों से जानकारी के नाम पर पूछे जा रहे हैं क्या वह उनके संस्थाओं से नहीं पूछे जाने चाहिए? क्या सरकार संस्थान के बिना किसी पत्रकार को मान्यता देती है? क्या कोई भी नियम 65 वर्ष से ऊपर के व्यक्ति को सक्रिय पत्रकारिता से रोक सकता है? जब संस्थान के बिना पत्रकार को मानता नहीं दी जा सकती तब क्या हक संस्थान का नहीं होना चाहिए कि वह अपने किस व्यक्ति को सरकारी सुविधा देना चाहता है? सुक्खु सरकार ने जिस तरह से पत्रकारों का गला दबाने की चाल चली है क्या वह कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय नीति है यह सवाल भी आने वाले समय में पूछा जायेगा।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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