शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश को जब शैक्षणिक हब बनाने के लिये कई निजी विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षण संस्थान खोले गये थे तब शिक्षा का बाजारीकरण किये जाने के आरोप लगे थे। यह आशंका जताई गयी थी कि इन संस्थानों में शैक्षणिक मानकों की अनुपालना नहीं की जायेगी और यह संस्थान शिक्षा के बिक्री केंद्र बनकर रह जायेंगे। इनमें छात्रों और अभिभावकों का उत्पीड़न होगा। इन आशंकाओं की गंभीरता को नापते हुए 2010 में इन संस्थानों पर निगरानी रखने के लिये नियामक आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग को यह जिम्मेदारी दी गयी थी कि वह इन संस्थानों में तैनात शैक्षणिक और प्रशासनिक स्टाफ को लेकर यह देख की स्टाफ तय मानकों के अनुसार है या नहीं। इन संस्थानों में पढ़ाये जा रहे विषयों में छात्रों की संख्या संतोषजनक है या नहीं। बच्चों के बैठने के लिये आवश्यक स्थान है या नहीं। जब कोई संस्थान तय मानकों के अनुरूप नहीं पाया जाता है तो उसे यह आयोग जुर्माना लगाकर तय समय तक अपनी कमियां पूरी करने के निर्देश देता है। यदि निर्देशों के बाद भी कमियां पूरी नहीं हो पाती हैं तो उससे वही पढ़ाई जाने वाले कोर्स तक छीनने की शक्तियां इस आयोग के पास हैं। कोर्सों में छात्रों की संख्या कभी ज्यादा करने और नये कोर्स देने की शक्तियां आयोग के पास हैं। आयोग अपने सारे कार्यों को अपनी वार्षिक रिपोर्ट में दर्ज करता है। यह रिपोर्ट सरकार से लेकर विधानसभा के पटल पर रखी जाती है। हर विश्वविद्यालय की संचालन समिति में विधानसभा की ओर से विधायक भी मनोनीत किये जाते हैं ताकि पूरी पारदर्शिता सुनिश्चित रहे।
2020 तक इस आयोग की कार्यप्रणाली लगभग ठीक चलती रही है। इसकी वार्षिक रिपोर्ट समय पर छपती रही है और सार्वजनिक होती रही है। लेकिन 2020 से इसकी रिपोर्ट नहीं छप रही है। जब इसी दौरान यह आयोग कई बड़े छोटे आयोजन कर चुका है जिनमें राज्यपाल, मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री तक शामिल हो चुके हैं। इन आयोजनों में निजी विश्वविद्यालयों की भागीदारी भी होती रही है। ऐसे आयोजनों को लेकर आर.टी.आई. एक्टिविस्ट कई जानकारियां भी हासिल कर चुके हैं। इन्हीं जानकारीयों से यह सामने आ चुका है की कई विश्वविद्यालयों को कई कोर्सों में इतनी इतनी सीटें दे दी गयी है जितनी कि वर्षों से चले आ रहे सरकारी संस्थानों में भी नहीं है इनमें शूलिनी विश्वविद्यालय तक का भी नाम सामने आ चुका है। इसी तरह ऊना के बाथू स्थित इण्डस इन्टरनैशनल विश्वविद्यालय की 4-8-2022 और फिर 30-1-2023 को हुई इन्सपैक्शन रिपोर्टों के अनुसार इसमें आयोग्य अध्यापक और केवल 56 प्रतिशत छात्रों द्वारा ही क्लासें लगाने का रिकॉर्ड रिपोर्ट में दर्ज है। रिपोर्ट में यह भी दर्ज है कि यह विश्वविद्यालय अध्यापकों को यू.जी.सी. के मानको अनुसार वेतन नहीं दे रहा है। इन कर्मियों के लिये शायद इसे जुर्माना भी लगाया गया है। मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री को एक अजय कुमार ने ईमेल से शिकायतें भी भेजी है। लेकिन नियामक आयोग ने अपनी रिपोर्टों को नजरअन्दाज करके इस विश्वविद्यालय को 2023-24 के लिये आर्टिफिशियल इंटेलिजैन्स, साईबर सिक्योरिटी, एलएलबी, फूड प्रोडक्शन, डी फार्मेसी और बीएएमएस जैसे महत्वपूर्ण कोर्स भी आवंटित कर दिये हैं। ऐसा क्यों और किस आधार पर किया गया है यह जांच का विषय है।
शिमला/शैल। प्रदेश इस समय कठिन वित्तीय स्थिति से गुजर रहा है यह सरकार द्वारा राज्य विधानसभा के पटल पर रखे गये श्वेत पत्र से सामने आया है। इस वित्तीय स्थिति के परिदृश्य में प्रदेश की स्थिति श्रीलंका जैसे होने की आशंका भी मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खु व्यक्त कर चुके हैं। अब प्रदेश में यह आपदा घट गयी है जिसमें करीब बारह हजार करोड़ का नुकसान हो चुका है। केंद्र सरकार से आश्वासनो से अधिक कुछ मिल नहीं पाया है। प्रदेश सरकार अपने संसाधन बढ़ाने के लिये सेवाओं और वस्तुओं के दाम बढ़ाने से अधिक कुछ सोच नहीं पा रही है। जबकि सरकार के पास तीन लाख एकड़ जमीन दो राजस्व भू अधिनियमों में हुये संशोधनों के माध्यम से आ चुकी है। लेकिन राज्य सरकार को यह जानकारी ही नहीं है कि उसकी यह जमीन है कहां पर। कहीं इस जमीन का लाभ कुछ अधिकारियों की मिली भगत से कुछ शातिर लोग ही तो नही उठा रहे हैं। क्योंकि जिस सरकार के पास तीन लाख एकड़ जमीन सरप्लस हो वह इतने बड़े कर्ज के चक्रव्यूह में कैसे फंस सकती है यह अपने में ही एक बड़ा सवाल बन जाता है।
स्मरणीय है कि देश की आजादी के बाद सरकार के पास सबसे बड़ा और प्रमुख सवाल भू-सुधारो का आया था। इन सुधारों के तहत 1953 में बड़ी जिमीदारी प्रथा उन्मूलन के लिये Abolition of Big Landed Estate Act. लाया गया था। इस अधिनियम के तहत सौ रूपये या इससे भू-लगान देने वालों की सरप्लस जमीने सरकार के पास चली गयी थी। इसमें कई राजे, राणे और बड़े ज़िमीदार प्रभावित हुये थे। इसके बाद 1971 में प्रदेश में लैण्ड सीलिंग एक्ट आया। 1974 में पारित हुआ यह एक्ट 1973 से लागू हुआ। इस अधिनियम के तहत प्रदेश में कोई भी व्यक्ति 300 कनाल/161 बीघे से अधिक जमीन नहीं रख सकता। इन दोनों अधिनियमों के तहत हिमाचल सरकार के पास तीन लाख एकड़ जमीन आयी है। यह सरकार ने सर्वाेच्च न्यायालय में एक समय आयी याचिका में स्वीकार किया हुआ है। जबकि इस याचिका से पहले 1975 में आपातकाल के दौरान हर भूमिहीन को दस-दस कनाल जमीन दी गई थी। ऐसी जमीनों पर उगे पेड़ों की मलकियत भी इन लोगों को दे दी गयी थी। इस जमीन को बेचने का अधिकार इन लोगों को नहीं दिया गया था ताकि यह लोग फिर से भूमिहीन न हो जायें। इसलिए आज भी यदि कोई धारा 118 के तहत अनुमति लेकर जमीन खरीदता या बेचता है तो उसे यह लिखना पड़ता है कि वह उस जमीन को बेचकर भूमिहीन तो नहीं हो रहा है।
हिमाचल का हर राजा इन कानूनों के दायरे में आया हुआ है। लेकिन अब जब सुक्खु सरकार लैण्ड सीलिंग एक्ट में संशोधन लेकर आयी है तो स्वभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि 1973 से लैण्ड सीलिंग अधिनियम लागू होने के बाद भी आज प्रदेश में किसी के पास भी तय सीमा से अधिक जमीन कैसे हो सकती है। निश्चित है कि यह संशोधन लाने पर सरकार ने इस दिशा में वांछित होमवर्क कर लिया होगा। क्योंकि शामलात जमीनें तो पंजाब और हिमाचल में एक अरसे से सरकार के पास चली गयी है। इन जमीनों को विलेज कॉमनलैण्ड कहा जाता है जिन्हें खरीदा या बेचा नहीं जा सकता। बल्कि सर्वाेच्च न्यायालय जनवरी 2011 में एक फैसले में यहां तक कह चुका है कि all though we have dismissed this appeal, it shall be listed before this court from time to time on dates (fixed by us) So that we can monitor implementation of our directions here in. List again before us on 3-5-2011 on which date all chief secretaries in India will submit their reports.
जगपाल सिंह एवं अन्य बनाम स्टेट ऑफ पंजाब एवं अन्य मामला विलेज कॉमनलैंण्ड को लेकर था। कोर्ट के इस फैसले पर हिमाचल से भी रिपोर्ट गयी होगी और हिमाचल में भी विलेज कॉमन लैण्ड की खरीद बेच नहीं हो रही होगी। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के यह निर्देश प्रशासन के हर स्तर तक फील्ड में गये होंगे।
इस परिप्रेक्ष्य में यदि सरकार इस तीन लाख एकड़ जमीन को चिन्हित करके उसका सदुपयोग करती है तो उसे बढ़ते कर्ज से बाहर निकलने का रास्ता मिल जायेगा। लेकिन इवैक्यू प्रॉपर्टी के मामले की तरह नहीं जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने प्रदेश सरकार को जुर्माना लगाया है। कई जगह में ऐसी भी रिकॉर्ड पर रिपोर्ट है जहां विलेज कॉमन लैण्ड को अधिग्रहण करके सरकार प्राईवेट लोगों को सरकारी जमीन का ही मुआवजा दे रही है। जबकि यह जमीनें भूमिहीनों और एस सी, एस टी में बंटनी थी।
शिमला/शैल। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खु ने वर्ष 2017 में नादौन विधानसभा क्षेत्र के गांव जड़ौत के एक भाई बहन निशु ठाकुर और ईशा ठाकुर एवं धर्मशाला खनियारा के प्रवीण शर्मा तथा नादौन के कपिल बस्सी के खिलाफ शिमला के चक्कर स्थित ए सी जे एम की अदालत में एक मानहानि का मामला दायर किया था। इस मामले की पेशी अभी 16-9-2023 को लगी थी। इस पेशी पर अदालत में प्रवीण शर्मा को समन्न तालीम करवाने और अन्य को मामले के वांछित दस्तावेज उपलब्ध करवाने के सख्त निर्देश दिये हैं। यह मामला छः वर्ष पहले दायर हुआ था और इन छः वर्षों में सभी कथित अभियुक्तों को सर्विस न हो पाना तथा उन्हें मामले से जुड़े दस्तावेज ही उपलब्ध न हो पाना न्यायिक व्यवस्था को लेकर बहुत कुछ कह जाता है।
इस मामले में सुखविंदर सिंह सुक्खु द्वारा दायर शिकायत के मुताबिक निशु और ईशा भाई बहन ने 20-9-2016 और 23-9-2016 को हमीरपुर के होटल हमीर में एक पत्रकार वार्ता करके सुखविंदर सिंह सुक्खु के खिलाफ अवैध खनन और अपने भाई के नाम 800 कनाल जमीन खरीदने तथा बाद में उसे अपने नाम ट्रांसफर करवाने का आरोप लगाया था। पत्रकार वार्ता खूब छपी थी जिस पर कई लोगों ने सवाल पूछने शुरू कर दिये थे। इससे आहत होकर सुखविंदर सिंह सुक्खु ने अदालत जाने का फैसला लिया। अदालत जाने से पहले इन्हें बाकायदा एडवोकेट अनूप रत्न के माध्यम से नोटिस सर्व किया गया। परन्तु नोटिस पर क्षमा याचना न करने पर वकील राजन काहोल के माध्यम से शिमला की अदालत में मानहानि का मामला दायर करने की स्थिति पहुंची और पिछले छः वर्ष से यह मामला इस चाल से चल रहा है।
दायर शिकायत के अनुसार भाई के नाम 800 कनाल जमीन खरीदने का आरोप बहुत गंभीर और संवेदनशील है। क्योंकि हिमाचल में 1973 से लैण्ड सीलिंग एक्ट लागू है। इस एक्ट के अनुसार प्रदेश में कोई भी व्यक्ति 315 कनाल से ज्यादा जमीन अपने पास रख ही नहीं सकता है और जब रख ही नहीं सकता है तो बेचेगा कैसे। फिर राजस्व अधिकारी 800 कनाल की रजिस्ट्री कैसे कर लेगा? इस परिप्रेक्ष में पहली ही नजर में यह आरोप सही नहीं लगता क्योंकि इतनी जमीन की रजिस्ट्री होना ही अपने में कई फ्रंट खोल देता है।
जहां तक अवैध खनन का प्रश्न है तो क्षेत्र के रहने वाले लोग जानते हैं कि गांव जड़ौत में मान खड्ड पर स्टोन क्रशर और मिक्सर का एक प्लांट काफी वर्षों तक वहां ऑपरेट करता रहा है और उस प्लांट से पर्यावरण के नुकसान के साथ ही स्थानीय लोगों के हक प्रभावित हो रहे थे। क्योंकि इसी स्थान पर कई गांवों का शमशान भी था। लोगों की जमीने भी खराब हो रही थी। संयोगवश यह प्लांट सुखविंदर सिंह के गांव के पास ही था। क्षेत्र का जनप्रतिनिधि होने के नाते लोग इसकी शिकायत सुक्खु से भी करते रहे हैं। लेकिन जब प्लांट मालिकों पर सुखविंदर सिंह ंके कहने समझाने का कोई असर नहीं हुआ तब इन लोगों को एन.जी.टी. में जाना पड़ा। एन.जी.टी. ने शिकायत पर एस.डी.एम. नादौन से रिपोर्ट तलब की। एस.डी.एम. ने अपनी रिपोर्ट में कह दिया कि कुछ भी अवैध नहीं हो रहा है। एस.डी.एम. की रिपोर्ट पर एतराज उठने पर एन.जी.टी. ने एक कमिश्नर नियुक्त करके उससे रिपोर्ट तलब कर ली। कमिश्नर की रिपोर्ट में अवैधता प्रमाणित हो गयी। इस रिपोर्ट पर एन.जी.टी. ने इस प्लांट को तुरन्त प्रभाव से हटाने के निर्देश दिये और इन निर्देशों के बाद यह प्लांट वहां से उठा दिया गया।
ऐसे में अब यह मानहानि का मामला एक रोचक मोड़ पर आ पहुंचा है। यदि 800 कनाल की खरीद के दस्तावेज अदालत में आ जाते हैं तो पूरा मामला ही बदल जायेगा। क्योंकि लैण्ड सीलिंग की सीमा में इतनी जमीन खरीदने का प्रावधान ही नहीं है। फिर यदि राजस्व रिकॉर्ड पर यह जमीन ताबे हकूक बर्तन बर्तनदारान पायी जाती है तो स्थिति और भी बदल जायेगी क्योंकि इस इन्दराज की जमीन विलेज कॉमललैण्ड मानी जाती है जिसे न बेचा जा सकता है और न ही उसे तक्सीम किया जा सकता है। ऐसी जमीन का प्राइवेट मालिक नहीं हो सकता है। ऐसे में इस मानहानि मामले पर पूरे प्रदेश की निगाहें लग गयी हैं।
यह है एन.जी.टी. का आदेश
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