शिमला/शैल। अनुराग ठाकुर मोदी सरकार में वित्त राज्य मंत्री बन गये हैं। वह वित्त मंत्री सीतारमण के साथ काम करेंगे। वित्त मन्त्रालय में मन्त्री के साथ वह अकेले राज्य मंत्री हैं। भारत सरकार सचिवालय की कार्य प्रणाली की समझ रखने वाले जानते हैं कि गृह और वित्त दो ऐसे मन्त्रालय हैं जहां पर बहुत सा काम राज्य मंत्री के स्तर पर ही निपटा दिया जाता है। इन मन्त्रालयों के राज्य मन्त्री एक तरह से स्वतन्त्र प्रभार वाले राज्य मन्त्रीयों से ज्यादा प्रभावी हो जाते हैं क्योंकि हर मन्त्रालय में संयुक्त सचिव स्तर का एक अधिकारी तैनात रहता है जो अपने सचिव को रिपोर्ट करने की बजाये सीधे वित्त सचिव को ही रिपोर्ट करता है। इस तरह हर मन्त्रालय के कामकाज की सूचना वित्त मन्त्रालय के पास आ जाती है। इस कार्य प्रणाली से स्पष्ट हो जाता है कि अनुराग ठाकुर को एक बहुत ही महत्वपूर्ण और संवदेनशील जिम्मेदारी दी गयी है। माना जा रहा है कि अनुराग ठाकुर को यह जिम्मेदारी उनके क्रिकेट के क्षेत्र में किये गये काम के आधार पर दी गयी है। उम्मीद की जा रही है कि हिमाचल प्रदेश जिस तरह के कर्ज के चक्रव्यूह में फंस चुका है उससे उबरने में अनुराग प्रदेश की मद्द करेंगे और सरकार के अनुपादक खर्चों पर भी लगाम लगायेंगे क्योंकि भारत सरकार का वित्त मन्त्रालय प्रदेश सरकार को इस संद्धर्भ में मार्च 2016 में ही पत्र लिखकर चेतावनी दे चुका है।
अनुराग की नियुक्ति के इस पक्ष से हटकर इसका राजनीतिक पक्ष प्रदेश के संद्धर्भ में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। अनुराग लगातार चौथी बार सांसद चुने गये हैं इस नाते संसदीय वरीयता के आधार पर वही मन्त्री पद के दायरे में आते थे क्योंकि पूर्व केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री और प्रदेश के राज्यसभा सांसद जगत प्रकाश नड्डा का नाम पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के लिये चर्चा में आ गया है। लेकिन इस सब के बावजूद प्रदेश के भाजपा नेतृत्व का एक बड़ा वर्ग अनुराग के स्थान पर कांगड़ा के सांसद किश्न कपूर को मन्त्री बनाये जाने का प्रयास कर रहा था। चर्चा है कि इस प्रयास को अपरोक्ष में कांग्रेस के वीरभद्र खेमे का भी पूरा सहयोग रहा है। क्योंकि वीरभद्र शासन में एचपीसीए को लेकर जिस तरह का राजनीतिक वातावरण प्रदेश में खड़ा हो गया था उसमें सभी जानते हैं कि उस दौरान विजिलैन्स के पास एचपीसीए और धूमल के आय से अधिक संपति मामले से हटकर और कोई मामला ही नही रह गया था। बल्कि वीरभद्र सिंह के अपने खिलाफ आय से अधिक संपति का मामला उनके केन्द्रिय मंत्री रहते ही खडा़ हो गया था और आज तक चल रहा है। उसके लिये वीरभद्र सीधे तौर पर अरूण जेटली, प्रेम कुमार धूमल तथा अनुराग ठाकुर को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं। यहां तक की दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायधीश के खिलाफ तो आनन्द चौहान और वीरभद्र लिखित में गंभीर आक्षेप लगा चुके हैं। प्रदेश की इस राजनीतिक पृष्ठभूमि की जानकारी रखने वाले अनुमान लगा सकते हैं कि इस परिदृश्य मे अनुराग के वित्त राज्य मन्त्री बनने के राजनीतिक अर्थ क्या हो सकते हैं। क्योंकि यह आम चर्चा रही है कि मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर के साथ वीरभद्र सिंह के राजनीतिक रिश्ते बहुत घनिष्ठ हैं। बल्कि जब वीरभद्र ने सितम्बर 2018 में ही मण्डी सीट से कांग्रेस का कोई भी मकरझण्डू चुनाव लड़ लेगा का ब्यान दिया था तभी से वीरभद्र के राजनीतिक इरादे चर्चा में आने शुरू हो गये थे जो ब्यानों में चुनावों के अन्त तक बने रहे।
बल्कि राजनीतिक विश्लेष्कों का तो यहां तक मानना है कि जंजैली प्रकरण में जहां वीरभद्र शासन के प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिये था वहां ऐसा न होकर इसमें धूमल की भूमिका होने का आरोप लग गया था। इस आरोप पर धूमल को सीआईडी जांच करवाने तक का ब्यान देना पड़ा था इस तरह का राजनीतिक आचरण प्रदेश में घट चुका है और इसी आचरण का परिणाम था कि इस चुनाव में कई नेताओं की भूमिका सवालों में रही है। इसी के प्रभाव तले एक बड़ा वर्ग यह प्रयास कर रहा था कि अनुराग की जगह किशन कपूर मन्त्री बन जायें। लेकिन यह प्रयास सफल नही हो सके हैं। परन्तु राजनीति में इस तरह के घटनाक्रमों के दूरगामी प्रभाव और परिणाम होते हैं। आज जिस ऐज और स्टेज पर अनुराग को वित्त राज्य मंत्री जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिल गयी है उसे उनके प्रदेश का भविष्य का नेता होने की ट्रेनिंग के रूप में देखा जा रहा है। इस नियुक्ति के साथ ही प्रदेश की राजनीति में नये समीकरणों के उभरने का अध्ययन शुरू हो जायेगा यह तय है।
क्या छात्रवृति घोटाले की जांच कुछ संस्थानों की साख पर प्रश्नचिन्ह लगाने की नीयत से है
जांचकर्ता पर उठे सवालों से उभरी आशंका
सीबीआई को सभी 266 संस्थानों की जांच करना हो जायेगी बाध्यता
शिमला/शैल। छात्रवृति घोटाले की जांच अब सीबीआई कर रही है। सीबीआई को यह जांच शिक्षा विभाग द्वारा दी गयी प्रारम्भिक जांच के आधार पर सौंपी गयी है। क्योंकि इसी जांच रिपोर्ट पर विभाग ने छोटा शिमला थाना में एफआईआर दर्ज करवायी थी। लेकिन प्रारम्भिक जांच कर्ता शक्ति भूषण ने जिस छात्र सतीश कुमार की शिकायत के आधार पर यह जांच शुरू की और आगे बढ़ाई उसी छात्र का एक शपथपत्र आया है। इस शपथपत्र में छात्र सतीश कुमार ने जांच अधिकारी शक्तिभूषण के खिलाफ आरोप लगाये हैं। आरोप है कि शक्तिभूषण ने डर और लालच देकर यह शिकायत हालिस की है। इसी शपथपत्र के साथ सिरमौर के साईवाला के एक भानू प्रताप को आरटीआई के तहत मिली सूचना भी सामने आयी है। इस सूचना में विभाग से यह पूछा गया था कि क्या छात्रवृति प्राप्त करने के लिये आधार नम्बर का होना अनिवार्य है? तो अधिसूचना की कापी उपलब्ध करवायी जाये। इस पर विभाग ने जवाब दिया है कि सूचना उपलब्ध नही है। आरटीआई में यह जानकारी भी मांगी गयी थी कि क्या छात्रवृति लेने के लिये मोबाईल नम्बर होना आश्वयक है। इसके जवाब में भी विभाग ने सूचना उपलब्ध नही है का ही जवाब दिया है। आरटीआई में यह सूचना 5 अक्तूबर 2018 को आयी है। विभाग के जवाब से साफ हो जाता है कि या तो आधार और मोबाईल नम्बर होने अनिवार्य नही हैं या फिर विभाग को ही छात्रवृति योजना के नियमों की पूरी जानकारी नही है। ऐसे में जांचकर्ता द्वारा इसमें घोटाला होने का आरोप तब तक लगा पाना संभव नही हो सकता जब तक कि कुछ संवद्ध संस्थानों से इस बारे में जानकारी हालिस न कर ली जाती। इस संबंध में कुछ संस्थानों द्वारा विभाग को दिया गया एक ज्ञापन भी सामने आया है। इस ज्ञापन में यह शिकायत की गयी है कि इस कथित घोटाले के बारे में जांचकर्ता ने एक बार भी उनसे जानकारी हालिस करने का प्रयास नही किया है।
छात्रवृति योजना से 238089 छात्र लाभार्थी कहे जा रहे हैं। यह छात्र सभी 2772 संस्थानों से हैं। इनमें 2506 सरकारी और 266 प्राईवेट संस्थान हैं। 2506 सरकारी संस्थानों को 2013-14 से 2016-17 56,34,35168 और 266 प्राईवेट संस्थानों को 210,04,33703 रूपये छात्रवृति के आंवटित किये गये हैं। इस आंवटन से यह आभास करवाया जा रहा है कि छात्रवृति की 80% राशि प्राईवेट संस्थानों को ही आवंटित कर दी गयी और इसके पीछे घोटाले की मंशा रही है। इस पर प्राईवेट संस्थानों ने सरकार को सौंपे ज्ञापन में यह खुलासा किया है कि सरकारी संस्थानों में छात्रां से 3000 से 6000 तक फीस ली जाती है जबकि प्राईवेट संस्थानों द्वारा यही फीस 50,000 से 90,000 तक ली जाती है। स्वभाविक है कि जब सरकारी और प्राईवेट संस्थानों में फीस का इतना अन्तर है तो निश्चित रूप से फीस के अनुपात में प्राईवेट संस्थानों के लिये यह आवंटन ज्यादा रहेगा ही।
इस कथित घोटाले में यह सामने है कि इस छात्रवृति योजना के तहत सभी सरकारी और प्राईवेट संस्थानों को इस छात्रवृति का आवंटन हुआ है। जांच रिपोर्ट में यह आरोप नही है कि जिन दो दर्जन प्राईवेट संस्थानों की जांच की जा रही उन्हे इसके आवंटन के लिये कोई अपने ही अलग नियम बना लिये थे यदि सभी संस्थानों में एक जैसे ही नियमों और प्रक्रिया से छात्रवृति का आंवटन हुआ है तो फिर सभी संस्थानों की जांच क्यों नही। इस बहुचर्चित घोटाले में यह आरोप है कि कई कई छात्रों के लिये एक ही आधार और मोबाईल नम्बर का प्रयोग किया गया है। जब आरटीआई में दी गयी सूचना में यह कहा गया है कि आधार नम्बर और मोबाईल नम्बर अनिवार्य होने की कोई अधिसूचना ही नही है तब यह घोटाला होने का आधार कैसे बन गया? इसमें घोटाला तो तब बनेगा जब रिकार्ड पर दिखाया गया लाभार्थी यह कहे कि उसे छात्रवृति मिली ही नही है या फिर रिकार्ड पर दिखाया गया लाभार्थी फर्जी निकले। लेकिन ऐसा कोई आरोप जांच रिपोर्ट में नही लगाया गया है। ऐसे में यह सवाल और शंकाएं उठना स्वभाविक है कि क्या इन दो दर्जन संस्थानों को किसी तय योजना के तहत बदनाम करवाया जा रहा है। क्योंकि जिस भी प्राईवेट संस्थान पर किसी तरह के घपले का आरोप लगेगा वहां नये छात्रों द्वारा दाखिला लेने पर कई प्रश्न उठेंगे और संस्थान की साख प्रभावित होगी।
शिमला/शैल। सातवें चरण के मतदान के साथ ही चुनावी प्रक्रिया का एक सबसे बड़ा हिस्सा पूरा हो गया है। अब केवल मतगणना और उसका परिणाम शेष है। अन्तिम चरण का चुनाव प्रचार थमने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह ने पार्टी मुख्यालय में एक पत्रकार वार्ता को भी संबोधित किया। इस संबोधन में प्रधानमंत्री ने एक तरह से अपने ही मन की बात इस वार्ता में रखी क्योंकि उन्हांने पत्रकारों का एक भी सवाल नही लिया और जब सवाल ही नही लिया तो जवाब का प्रश्न ही नही उठता। हां इस पत्रकार वार्ता में प्रधानमन्त्री ने देश की जनता का धन्यवाद किया और दावा किया कि वह पुनः पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में वापिस आ रहे हैं। प्रधानमंत्री का यह दावा कितना पूरा होता है यह परिणाम आने पर ही पता लगेगा। लेकिन इस वार्ता में जिस तरह से प्रधानमंत्री को प्रज्ञा ठाकुर के गोडसे को देशभक्त बताने वाले ब्यान पर निरूत्तर होना पड़ा है। उससे भाजपा का जो चेहरा देश के सामने आया है उसने पूरे चुनाव और उसके परिणामों पर एक गंभीर सवालिया निशान लगा दिया है।
इस पृष्ठभूमि में यदि पूरे चुनाव का आकलन किया जाये तो सबसे पहले यह सामने आता है कि चुनाव भाजपा में केवल दो व्यक्तियों प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष के गिर्द ही केन्द्रित रहा है। इसी के साथ यह भी सामने आया है कि इस चुनाव में पार्टी ने प्रिन्ट मीडिया की बजाये सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर ज्यादा निर्भरता रखी। तीसरा तथ्य यह रहा है कि भाजपा ने चुनाव में आम आदमी के मुद्दों बेरोज़गारी, मंहगाई और भ्रष्टाचार को अपने प्रचार में कहीं भी केन्द्र में नही आने दिया। भाजपा के एक भी स्टार प्रचारक ने इन मुद्दों पर न तो अपने चुनावी भाषणों में और न ही पत्रकार वार्ताओं में चर्चा में आने दिया। जबकि कांग्रेस ने इन्ही मुद्दों पर सबसे ज्यादा अपने को केन्द्रित रखा। भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र में भी इन मुद्दों को प्रमुखता नही दी गयी है। जबकि कांग्रेस के घोषणा पत्र का केन्द्र बिन्दु ही यही मुद्दे हैं। भाजपा हर चरण के साथ मुद्दे बदलती रही है और अन्त तक आते-आते उसने विपक्ष की गालीयों की गिनती भी जनता के सामने मुद्दा बनाकर पेश कर दिया। इस चुनाव में प्रधानमंत्री ने बालाकोट की एयर स्ट्राईक, सर्जिकल स्ट्राईक, जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों के खिलाफ कारवाई, राष्ट्रवाद और प्रज्ञा ठाकुर को उम्मीदवार बनाकर ‘‘भगवा आतंकवाद’’ के सम्बोधन को मुद्दा बनाकर हिन्दुवोटों का ध्रुवीकरण करने के प्रयास के गिर्द ही पूरे चुनाव प्रचार को केन्द्रित रखा है। इसलिये यह आकलन करना महत्वपूर्ण हो जाता है कि इस ध्रुवीकरण का अन्तिम परिणाम क्या हो सकता है।
इस ध्रुवीकरण का आकलन करने से पहले 2014 के चुनावों से लेकर अब तक के घटनाक्रमों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। 2014 के चुनावों से पहले कालेधन और भ्रष्टाचार को लेकर जो जनधारणा रामदेव और अन्ना हजा़रे के आन्दोलनों के माध्यम से तैयार हुई थी उसका सबसे अधिक लाभ भाजपा को मिला था क्योंकि इस जनधारणा को ‘अच्छे दिनों ’’ का भरोसा दिखाया गया था। लेकिन आज न तो अच्छे दिन ही आये हैं और न ही रामदेव और अन्ना के आन्दोलन हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद जितने विधानसभा चुनाव हुए हैं उनमें भाजपा को हरियाणा, उत्तराखण्ड और हिमाचल को छोड़कर कहीं भी अपने दम पर बहुमत नही मिला है। जहां भी भाजपा ने सरकारें बनायी हैं वहां चुनाव परिणामों के बाद गठबंधन बनाये गये और तब सरकारें बनी। बिहार में लालू-नितिश के गठबन्धन को तोड़कर भाजपा-नितिश गठबन्धन सत्ता में आया। उत्तरप्रदेश में हिन्दु-मुस्लिम धु्रवीकरण से प्रदेश में सरकार बनी लेकिन जैसे ही इस धु्रुवीकरण की राजनीति को समझकर सपा-बसपा एक हुए वैसे ही उत्तर प्रदेश उपचुनाव भाजपा हार गयी 2014 के बाद लोकसभा का हर उपचुनाव भाजपा हारी है यह एक तथ्य है। इसके बाद गुजरात और कर्नाटक में कांग्रेस की स्थिति सुधरी। कर्नाटक में तो जेडी(एस) और कांग्रेस ने सरकार बना ली। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीगढ़ की सरकारें भाजपा के हाथ से निकल गयी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 2014 के चुनावों के बाद से मतदाता लगातार भाजपा से दूर होता गया है।
भाजपा का सबसे बड़ा शक्ति केन्द्र आरएसएस है। क्योंकि भाजपा संघ परिवार की एक राजनीतिक ईकाई है। संघ का पूरा विचार-दर्शन हिन्दुत्व के गिर्द केन्द्रित है यह सब जानते हैं। इस विचार-दर्शन की सफलता के लिये सघं के सैंकड़ो कार्यकर्ताओं ने अपनी गृहस्थी तक नही बसाई है। मुस्लिम समुदाय को लेकर संघ का अपना एक विशेष विचार दर्शन और धारणा है यह सब जानते हैं। इस धारणा से कितने सहमत भी हैं यह एक अलग प्रश्न है। लेकिन इस धारणा के प्रतीक रूप में सामने आये मुद्दे अयोध्या में राम मन्दिर का निर्माण, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाना और मुस्लिमों पर युनिफाईड सिविल कोड लागू करना हर स्वयं सेवक का प्रमुख मुद्दा रहा है। दिसम्बर 1992 में इसी राम मन्दिर के निर्माण के लिये भाजपा ने अपनी राज्य सरकारों की आहूति दे दी थी। 1992 के बाद से राम मन्दिर हर चुनाव में मुख्य मुद्दा रहा है। 2014 के चुनाव में भी था। इसी हिन्दुत्व के ऐजैण्डे पर भाजपा को अपने ही तौर 283 सीटें मिल गयी थी और पूरा एनडीए 332 तक पंहुच गया था। 2014 में जो बहुमत भाजपा को मिला था वह शायद निकट भविष्य में दूसरी बार नही मिलेगा। लेकिन इतने प्रचण्ड बहुमत के बाद भी भाजपा हिन्दु ऐजैण्डे के एक भी मुद्दे को अमली शक्ल नही दे पायी है। जिस तीन तलाक के बिल को लोकसभा में पास करवाया उसे बाद में राज्यसभा में पेश नही किया गया। इस तरह मोदी सरकार में संघ को सबसे आहत के रूप में देखा जा रहा है। क्योंकि संघ के कार्यकर्ताओं ने ही सरकार की नीयत और नीति पर सवाल उठाने शुरू कर दिये हैं। शायद इन्ही सवालों के कारण पिछले कुछ अरसे से टीवी चैनलों की बहस में संघ के बुद्धिजिवि नही देखे जा रहे हैं। बल्कि संघ प्रमुख मोहन भागवत और राम माधव के ब्यानां को भी इसी सबका परिणाम माना जा रहा है। क्योंकि जो बहुमत इस बार मोदी के पास था उससे किसी भी ऐजैण्डे को कार्य रूप देना बहुत सहज था। इस तरह यदि मोदी सरकार के काम काज पर इस दृष्टि से नजर डाली जाये तो यह लगता है कि शायद इस बार मोदी पुनःप्रधानमन्त्री न बन पाये।
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