शिमला/शैल। लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कभी भी हो सकता है और ऐलान के साथ आचार संहिता लागू हो जायेगी। इस परिदृश्य में अभी मुख्यमन्त्री के मीडिया सलाहकार द्वारा त्याग पत्र देकर चला जाना अपने में सवाल खड़े कर जाता है। क्योंकि चुनावों में मीडिया की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण और प्रभावी होती है यह सभी जानते हैं। अभी जयराम सरकार को सत्ता संभाले केवल एक वर्ष हुआ है। मुख्यमन्त्री के अपने सचिवालय में दो सलाहकार एक मीडिया और दूसरा राजनीतिक तैनात रहे हैं। इसी के साथ दो ही विशेष कार्याधिकारी तैनात हैं। यह चारों ही लोग सीधे मुख्यमन्त्री को ही जवाबदेह रहे हैं और इसी कारण से इन्हें मुख्यमन्त्री का विश्वस्त माना जाता है। लेकिन इस एक वर्ष में मुख्यमन्त्री के सचिवालय में किस तरह की कार्यशैली रही है इसका एक नमूना दोनों विशेष कार्यधिकारियों को लेकर लिखे गये खुले पत्र रहे हैं। इसी एक वर्ष में लोक संपर्क विभाग के निदेशक को भी बदल दिया गया। इस तरह निदेशक से लेकर सलाहकार तक का विभाग से हटना विभाग की कार्यशैली से लेकर सरकार की मीडिया नीति तक पर सवाल उठाता है।
सरकार की मीडिया नीति की एक झलक विधानसभा में आये एक सवाल के जवाब में सामने आ चुकी है। इस एक वर्ष में सरकार ने किन अखबारों और दूसरे माध्यमों को कितना विज्ञापन दिया है यह सामने आ चुका है। इसी से सरकार की मीडिया पाॅलिसी का खुलासा भी हो जाता है। इस बार जो मीडिया सलाहकार लगाया गया था वह मूलतः एक सक्रिय पत्रकार था। पत्रकारिता छोड़ कर सलाहकार का पद संभाला था। जबकि इससे पहले धूमल और वीरभद्र सरकारों के दौरान जो मीडिया सलाहकार रहे हैं उनका सक्रिय पत्रकारिता से कभी कोई ताल्लुक नही रहा है। ऐसे में फिर यह चर्चा चल पड़ी है कि क्या जयराम किसी भी ऐसे व्यक्ति को सलाहकार ला रहे हैं जिसका पत्रकारिता से कोई संबंध न रहा हो। वैसे चर्चा यह भी है कि वीरभद्र शासन की तर्ज पर किसी आईएएस अधिकारी को सेवानिवृति के बाद मीडिया सलाहकार के पदनाम से कोई बड़ी जिम्मेदारी देने की तैयारी की जा रही है। यह आम चर्चा है कि जयराम सरकार का ज्यादा काम कुछ आईएएस अधिकारियों के माध्यम से हो रहा है। इन अधिकारियों के आगे राजनीतिक नियुक्तियां कोई ज्यादा प्रभावी नही हो पा रही है।
इस परिदृश्य में यह संभावना बढ़ती जा रही है कि शायद कभी निकट भविष्य में सलाहकार का पद नही भरा जायेगा। इस लोकसभा चुनावों में यह भी स्पश्ट हो जायेगा कि जयराम की अफसरशाही कैसे मीडिया को मैनेज करती है। वैसे मीडिया सलाहकार के त्यागपत्रा से जयराम सरकार पर लग रहे ‘मण्डी प्रेम’ के आरोपों पर भी कुछ हद तक जवाब गया है।
शिमला/शैल।जयराम सरकार ने अभी विभिन्न उद्योगपत्तियों के साथ 159 एमओयू साईन करके प्रदेश में 17356 करोड़ का निवेश आने और 40,000 लोगों को रोजगार मिलने का एक बड़ा सपना प्रदेश की जनता करो परोसा है। यह सपना ज़मीन पर आकार ले पायेगा या जुमला होकर ही रह जायेगा। यह सवाल अभी से उठने लग पड़ा है। यह सवाल उद्योग विभाग के उस पत्र से उठा है जो विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव द्वारा सारे प्रशासकीय सचिवों को सात फरवरी को लिखा गया है। इस पत्र में सचिवों से कहा गया है
"You are, therefore, requested to take up with and invite the investors of projects which are in pipeline and/or in which EC or permission under section-118 of H.P. Tenancy and Land Reform Act stand signed/issued and request them to participate in the aforesaid 'MOU signing ceremony'. A copy of the suggested MoU is enclosed for your reference.
You are also requested to inform the number and details of MoUs proposed to be signed in the by your department/organization, to this Office within a week.
This Memorandum of Understanding is made to facilitate M/s. for establishment of the aforesaid project in Himachal Pradesh in a time bound manner.
This MOU indicates the intention of the investor in brief about the proposed industry and the possible facilitation to be extended by the state Government and shall remain valid for a maximum period of 12 (twelve) months from the date of entering into MOU unless otherwise extended by second party. No separate notice will be required to be issued for this."
इस पत्र में सरकार द्वारा संभावित निवेशकों को उद्योग स्थापित करने के लिये यथा संभव सहायता का आश्वासन दिया गया है। लेकिन इस निवेशक मीट को जिस तरह से प्रचारित किया गया है उससे यह संदेश दिया गया है कि इतना निवेश प्रदेश को मिल गया है और 40000 लोगों को रोजगार मिलने ही वाला है। इस निवेशक मीट पर सरकार का खर्च हुआ है। आगे जो ऐसी ही मीट प्रस्तावित है उस पर भी खर्च होगा। प्रदेश में 1977 से औद्यौगिक क्षेत्र चिन्हित होते आये हैं। इन क्षेत्रों में उद्योग भी स्थापित हुए हैं। इन उद्योगों को हर तरह का सहयोग दिया गया है। प्रदेश का वित्त निगम, एसआईडीसी, जी आईसी और खादी एवम् ग्रामीण उद्योग बोर्ड, यह सारे अदारे इन उद्योगों को सहायता देते रहे हैं। लेकिन आज इन सारे अदारों की अपनी सेहत भी नाजुक होने के कगार पर पंहुच गयी है। बल्कि कुछ तो कभी भी बन्द होने की हालत तक पंहुच चुके हैं। लेकिन इस सबके बावजूद आज यदि यह आंकलन किया जाये कि कब कितने उद्योग स्थापित हुए और उनमें से अब कितने यहां चल रहे हैं तो शायद यह आंकड़े चैंकाने वाले होंगे।
हिमाचल में निवेशकों के आकर्षण का सबसे बड़ा कारण था यहां पर सस्ती और निर्बाध बिजली। क्योंकि आद्यौगिक क्षेत्र में हिमाचल की पहचान बिजली उत्पादक राज्य के रूप में देशभर में प्रचारित और प्रसारित थी। लेकिन इस निवेशक मीट के बाद प्रदेश में जिस तरह से बिजली के रेट बढ़ाये गये हैं। उनको लेकर बिजली बोर्ड के कर्मचारी संगठनों से लेकर आम आदमी तक इस पर रोष प्रकट कर रहा है और हो सकता है कि इसके लिये आन्दोलन की नौबत आ जाये। ऐसे में यह सीधा सवाल उठता है कि क्या इन बढ़ी हुई बिजली दरों का सामने रखकर निवेशक हिमाचल आने का रूख करेंगे। क्योंकि किसी भी उद्योग के लिये यह आवश्यक होता है कि जहां वह स्थापित हो रहा है वहां क्या उसके उत्पाद का पर्याप्त उपभोक्ता है। यदि उपभोक्ता नही है तो क्या उत्पादन के लिये सस्ते संसाधन हैं। क्या उद्योग विभाग ने इन बुनियादी आवश्यकताओं का कोई आंकलन करवाया है? शायद नहीं।
जो एम ओ यू साईन हुए हैं उनमें सिरमौर में प्रस्तावित सीमेन्ट उद्योग को लेकर भी एक है। जबकि प्रदेश सरकार ने जुलाई 2006 में चैपाल के गुम्मा - रोहाना में एक प्राईवेट कंपनी के साथ दो मिलियन टन क्लींकर और एक मिलियन टन सीमेन्ट के लिये एम ओ यू साईन किया था। इस एमओयू के मुताबिक कंपनी को माईनिंग लीज, फोरेस्ट क्लीयरैन्स, पर्यावरण क्लीयरैन्स आदि सबकुछ अपने खर्चे से हासिल करना था। उद्योग विभाग के जियोलोजिक विंग को संभावित लाईम स्टोन के रिर्जव आदि का आंकलन कंपनी के आग्रह और खर्च पर करना था। इसी तरह का एक एमओयू सितम्बर 2009 में सुन्दर नगर के लिये साईन हुआ था। दोनो जगह विभाग ने लाईम स्टोन के भण्डार का आंकलन करने के लिये अपनी मशीनरी और कर्मचारी लगा दिये थे। इस काम पर विभाग का करीब 2.77 करोड़ रूपया खर्च हुआ है। जबकि दोनो कंपनियों से विभाग को केवल 89 लाख ही मिल पाये हैं। इन कंपनीयों को फोरेस्ट आदि की क्लीयरैन्स नही मिल पायी है और इस कारण से अगस्त 2017 से इन्होंने काम बन्द कर दिया है। जिस समय इन कंपनीयों के साथ एमओयू साईन हुए थे तब भी इसी तरह के बड़े निवेश और रोजगार का सपना देखा गया था लेकिन इस सपने का परिणाम आज यह है कि आज उद्योग विभाग का अपना करीब दो करोड़ रूपया इसमें डूब गया है। क्या 2006 और 2009 में साईन हुए इन एमओयू की जानकारी मुख्यमन्त्री और उद्योग मन्त्री को दी गयी है? यदि यह जानकारी मुख्यमन्त्री को है तो फिर यह जो निवेश सरकार का अपना डूब गया है उसकी भरपायी कैसे की जायेगी? भविष्य में निवेशकों के साथ इसी तरह का अनुभव न घटे इसको कैसे सुनिश्चित किया जायेगा। जिस तन्त्र के कारण इन कंपनीयों को वाच्छित क्लीयरैन्स नही मिल पाये हैं उसके खिलाफ क्या कारवाई की गयी है। औद्यौगिक निवेश से पहले सरकार को इन पक्षों पर गंभीरता से विचार करना होगा।
शिमला/शैल। पर्व मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह और उनके एलआईसी ऐजैन्ट आनन्द चौहान के खिलाफ अन्ततः दिल्ली की सीबीआई कोर्ट ने आय से अधिक संपत्ति मामले में आरोप तय कर दिये है। इसी मामले में वीरभद्र सिंह की पत्नी पूर्व सांसद प्रतिभा सिंह और अन्य नामजद अभियुक्तों के खिलाफ पहले ही आरोप तय हो चुके हैं। अब आरोप तय होने के बाद इस प्रकरण में नियमित कारवाई चलेगी। यदि इस मामले में कहीं वीरभद्र सिंह के खिलाफ कभी कोई फैसला आ जाता है तब इसमें सर्वोच्च न्यायालय तक अपीलों का दौर चलेगा और इस तरह कई दशकों तक मामला अदालतों में चलता रहेगा जैसे पंडित सुख राम का चल रहा है। यदि इसमें वीरभद्र के खिलाफ फैसला आ जाता है तब वीरभद्र भी सुखराम के साथ एक ही पायेदान पर आ खड़े होंगे। गौरतलब है कि इसी आय से अधिक संपत्ति मामले को ईडी भी धन शोंधन के तौर पर देख रहा है। बल्कि ईडी में तो वीरभद्र सिंह और प्रतिभा सिंह को छोड़कर अन्य कथित अभियुक्तों आनन्द चौहान और वक्कामुल्ला चन्द्रशेखर जैसे लोगों की तो जांच के दौरान गिरफ्रतारी भी हो चूकी है। ईडी के प्रकरण की भी जांच पूरी होने के बाद इसका चालान भी अदालत में दायर हो चुका है और उसमें अब आरोप तय होने की प्रक्रिया चलेगी। बल्कि धन शोधन मामले में एक समय ईडी वक्कामुल्ला चन्द्र शेखर की जमानत रद्द करने की गुहार तक भी लगा चुका है। इस आग्रह पर अदालत ने सख्ती दिखाते हुए ईडी से यहां तक पूछ लिया था कि वह वक्कामुल्ला को लेकर तो इतनी गंभीरता दिखा रहे हैं लेकिन इसी मामले के मूल अभियुक्त वीरभद्र सिंह को लेकर उसका आचरण भिन्न क्यों रहा है। ईडी जब अदालत की इस टिप्पणी का कोई संतोषजनक जवाब नही दे पाया था तब दिल्ली उच्च न्यायालय ने ईडीे के आग्रह को सिरे से ही खारिज कर दिया था। लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कांे में ईडी के जमानत रद्द करवाने के आग्रह को राजनीतिक अर्थों में देखा जा रहा है। बल्कि ईडी के इस आग्रह के बाद वीरभद्र और आनन्द चौहान के उन आरोपों को नये सिरे से एक अर्थ मिल जाता है जब उन्होने मामले की सुनवाई कर रहे जज के खिलाफ लिखित में पक्षपात करने के आरोप लगाये थे। इस पूरे परिदृश्य में वीरभद्र सिंह का यह सीबीआई और ईडी का मामला इन लोकसभा चुनावों के दौरान एक बार फिर केन्द्रिय मुद्दा बनने के मुकाम पर पहुंच गया है। स्मरणीय है कि भाजपा ने वीरभद्र के इस मामले को 2014 के लोकसभा चुनावों और फिर 2017 के विधानसभा चुनावों में खूब भुनाया था। यह आरोप लगाये थे कि वीरभद्र के तो पेड़ों पर भी नोट उगते हैं। ऐसे में इन लोकसभा चुनावों में यह प्रकरण किस तरह से उठाया जाता है यह देखना दिलचस्प होगा। सीबीआई में यह मामला लगभग एक दशक तक रहा है। जिस भाजपा ने इसे दो बार चुनावों भुनाया वह अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में वीरभद्र सिंह और प्रतिभा सिंह को एक दिन के लिये भी गिरफ्तार नही कर पाये यह एक कडवा सच है। ईडी अदालत के सवाल का कोई जवाब तक नही दे पाया। जबकि वीरभद्र और आनन्द चौहान के पक्षपात को लेकर अदालत पर लगाये आरोप आज भी यथास्थिति खड़े हैं यही नही अब जब सीबीआई अदालत में इस प्रकरण में आरोप तय होने की स्थिति आयी तब वीरभद्र और प्रतिभा सिंह ने सीबीआई के अधिकार क्षेत्र को ही उच्च न्यायालय में यह कह चुनौती दे दी कि जांच ऐजैन्सी को यह मामला किसी भी सरकार ने नही भेजा है और न ही किसी सरकार से इसमें मुकद्दमा चलाने की अनुमति ली गयी है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने वीरभद्र के इस आग्रह के बाद चालान को न तो रद्द किया और न ही कारवाई को स्टे किया। लेकिन इस पर सीबीआई से जवाब अवश्य मांग लिया है। अब यदि वीरभद्र का यह तर्क सही पाया जाता है तो एक बार फिर सीबीआई स्वयं आरोपों के घेरे में आ जायेगी। क्योंकि सीबीआई ऐसे अपने ही तौर पर किसी भी मामले की जांच शुरू नही कर सकती है। इसी के साथ जब ऐसे मामलों में चालान दायर किया जाता है तब चालान के साथ ही मुकद्दमा चलाने की अनुमति भी संलगन करनी पड़ती है। वीरभद्र के मुताबिक ऐसा कुछ भी नही है। जांच ऐजैन्सी की जांच के बाद चालान तैयार और दायर हो जाने के बाद भी सरकार ऐसे मामलों को वापिस ले सकती है। सरकार के अनुमति न देने पर ही मामला खत्म हो जाता है। जयराम सरकार ने ही विधानसभा अध्यक्ष डाॅ. बिन्दल का मामला तो उस स्टेज पर वापिस लिया है जब कि उसमें अभियोजन पक्ष की गवाहियां तक हो चुकी थी। फिर वीरभद्र के मामले में तो सीबीआई और ईडी दोनों के आचरण को लेकर जांच के दौरान ही आरोप लगते रहे हैं। उच्च न्यायालय तक ईडी के आचरण पर सवाल उठ चुका है। फिर बिन्दल के मामले के सामने वीरभद्र का मामला बहुत छोटा पड़ जाता है।
इस तरह वीरभद्र का मामला एक ऐसे मोड पर पंहुच चुका है जहां से भाजपा को भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी कथित प्रतिबद्धता का लाभ उठाने के लिये कोई जगह नही रह जाती है। बल्कि इस बार कांग्रेस के पास भाजपा पर राजनीतिक प्रतिशोध लेने के आरोप लगाने के लिये यही मामला एक बड़ा हथियार बन जाता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार भ्रष्टाचार किसी भी दल का मुद्दा बन पाता है या नही।
The Joomla! content management system lets you create webpages of various types using extensions. There are 5 basic types of extensions: components, modules, templates, languages, and plugins. Your website includes the extensions you need to create a basic website in English, but thousands of additional extensions of all types are available. The Joomla! Extensions Directory is the largest directory of Joomla! extensions.
We search the whole countryside for the best fruit growers.
You can let each supplier have a page that he or she can edit. To see this in action you will need to create a users who is in the suppliers group.
Create one page in the growers category for that user and make that supplier the author of the page. That user will be able to edit his or her page.
This illustrates the use of the Edit Own permission.