प्रदेश में 261423 हैं गरीब परिवार
शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश में कई संपन्न राजपत्रित व्यक्ति भी बी पी एल कोटे में शामिल मिले हैं और इसकी योजनाओं का लाभ उठाते हुये सस्ता राशन तक लेते रहे हैं। जैसे ही यह जानकारी सामने आई तब सारे संबद्ध विभाग इस बारे में सजग और सक्रीय हुये। ऐसे लोगों की सूची जारी हुई और इन लोगो के खिलाफ कारवाई शुरू हुई। लेकिन बी पी एल योजना के इस दुरूपयोग से पूरी व्यवस्था पर कई गंभीर सवाल भी खड़े हो गये हैं। क्योंकि ऐसे भी कई मामले सामने आये हैं जहां सही में गरीब लोगों को बी पी एल में आने के लिये लम्बा संघर्ष भी करना पड़ा है। पिछले दिनों सरकार ने दावा किया था कि उसने एक लाख लोगों को बी पी एल से संपन्न लोगों की लाईन में लाने मे सफलता हासिल की है। इस संद्धर्भ में बी पी एल की पूरी चयन प्रक्रिया पर नजर डालना और इसके लिये तय मानकोे का आकलन करना आवश्यक हो जाता है।
बी पी एल चयन के लिये तेरह मानक तय किये गये हैं। इन सामान्य आर्थिक मानको के आधार पर परिवारों का सरक्षण किया जाता है और प्रत्येक मानक के लिये चार अंक दिये जाते हैं। यह तेरह मानक हैः
1. Size group of operational holding of land (क्रियाशील जोत की भूमि का आकार समूह)
2. Type of house (मकान का प्रकार)
3. Average availability of normal wear clothing (सामान्यतःपहनने के कपड़ों की उपलब्धता)
4. Food security (भोजन की सुनिश्चितता)
5. Sanitation (स्वच्छता)
6. Ownership of consumer durables (उपभोक्ता चिरस्थायी सामान का स्वामित्व)
7. Literacy status of the highest literate adult (उच्चतम साक्षर व्यस्क की साक्षरता की स्थिति)
8. Status of the household labour force (परिवार मजदूर बल की स्थिति)
9. Means of livelihood (आजीविका का साधन)
10. Status of Children (बच्चोें की स्थिति)
11. Type of indebtedness (ऋण की किस्म)
12. Reason for migration from household (परिवार में प्रवास का कारण)
13.Preference of assistance (सहायता की प्राथमिकता)
विभाग द्वारा जारी दिशा-निर्देश में यह भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि निम्न श्रेणी के परिवारों को (Exclusion Criteria) बी0पी0एल0 सूची में शामिल न किया जाएः- ऐसे परिवार जिनके पास 2 हैक्टेयर से ज्यादा असिंचित भूमि या 1 हैक्टेयर से ज्यादा सिंचित भूमि हो। ऐसे परिवार जिनके पास बडे़ आकार का पक्का घर हो। ऐसे परिवार जो आयकर देते हों। ऐसे परिवार जिनके पास चार पहिया वाहन जैसे कि कार, मोटर, जीप, टैªैैैक्टर, ट्रक और बस इत्यादि हों। ऐसे परिवार जिनकी वेतन, पैंशन, मानदेय, मजदूरी, व्यवसाय इत्यादि से नियमित मासिक आय मु0 2500/- रू0 से अधिक हो। परिवार से कोई सदस्य सरकारी नौकरी अथवा गैर सरकारी नौकरी में नियमित तौर पर या अनुबन्ध पर कार्यरत हो। विभाग द्वारा जारी अधिसूचना 13-07-2018 के संदर्भ में प्रत्येक बी0पी0एल0 परिवार के मुखिया से सादे कागज पर स्वयंसत्यापित करके उपरोक्त Exclusion Criteria पर ग्राम पंचायत में घोषणा पत्र दिये जाने का प्रावधान किया गया है। इसके अतिरिक्त हर वर्ष अप्रैल माह में होने वाली ग्राम सभा की प्रथम बैठक में ग्राम पंचायत की बी0पी0एल0 सूची की समीक्षा करने का निर्णय लिया गया है । बी0पी0एल0 में परिवारों का चयन हेतु ग्राम सभा स्वयं सक्षम है और चयन में मापदण्ड की अवहेलना के संदर्भ में विभाग के दिशा-निर्देशों में यह भी स्पष्ट किया गया है किःग्राम सभा द्वारा किये गये बी0पी0एल0 परिवारों के चयन बारे यदि कोई शिकायत अथवा आपत्ति हो तो एक माह के भीतर सम्बन्धित उपमण्डलाधिकारी (नागरिक) के पास अपील दायर की जा सकती है । उपमण्डलाधिकारी (नागरिक) के निर्णय से असंतुष्ट होने पर एक मास के भीतर उपायुक्त के पास आगामी अपील दायर की जा सकती है। गलत चयन से सम्बन्धित शिकायत मामलों में भी उपमण्डलाधिकारी (नागरिक) जांच उपरान्त ऐसे परिवारों के नाम बी0पी0एल0 सूची से काटने के आदेश जारी कर सकते हैं। यदि किसी मामले में जारी किया गया बी0पी0एल0 प्रमाण पत्र झूठा/गलत पाया जाता है तो उस स्थिति में सम्बन्धित पंचायत सचिव/पंचायत सहायक/ पंचायत प्रधान के विरूद्ध दण्डनीय कार्रवाई की जायेगी तथा जो व्यक्ति ऐसे प्रमाण पत्र का लाभ प्राप्त करेगा उसे सेवा से बर्खास्त किया जाएगा तथा उसके विरूद्व नियमानुसार आपराधिक मामला दर्ज किया जायेगा। सरकार के यह बी पी एल के मानक लम्बे समय से चलन में हैं लेकिन इस योजना के साथ मनरेगा योजना भी चलन में है और अब इसे शहर क्षेत्रों के लिये भी बढ़ा दिया गया है। इस योजना के तहत प्रत्येक व्यक्ति के वर्ष में 120 दिन का रोजगार सुनिश्चित है। इसमें दो सौ रूपये प्रति मजदूरी मिलता है। इस तरह मनरेगा में काम करने वाले मजदूर 1000 रूपये महीने के कमा लेते हैं और हजार कमाने वाला बी पी एल मानको में नही आता। फिर हा भूमिहीन का कम से कम दस कनाल(एक एकड़) जमीन बहुत पहले ही सरकारी योजना के तहत दी जा चुकी है। इस तरह मनरेगा में काम करने मासिक आय और एक एकड़ भूमि का मालिक होने के नाते क्या बी पी एल मानको में बाहर नही हो जाते हैं। जबकि व्यवहार में वह सही में ही बहुत गरीब है। यदि दो हैक्टेयर और एक हैक्टेयर के मानक पर चला जाये तो एक हैक्टेयर 25 कनाल का होता है। हिमाचल में बहुत कम परिवार होंगे जिनके पास 25 कनाल में सिंचाई होती होगी या वह 50 कनाल भूमि के मालिक होंगे। भूमि के इन मानक के आधार पर तो प्रदेश के आधे से भी ज्यादा लोग बी पी एल परिवार में आ जायेंगे। ऐसे में इन मानकों की नये सिरे से समीक्षा की जानी चाहिये।
कोरोना काल में
शिमला/शैल। कोरोना के कारण जब 24 मार्च को लाॅकडाऊन लगाकर पूरे देश को घरों में बन्द कर दिया गया था तब ऐसा करने की कोई पूर्व सूचना नही दी गयी थी। लेकिन इस घरबन्दी का किसी ने विरोध नही किया क्योंकि यह प्रधानमन्त्राी का आदेश-निर्देश था और जनता उन पर विश्वास करती थी। इसी विश्वास पर लोगों ने ताली/थाली बजाई, दीपक जलाये और ‘गो कोरोना गो’, के नारे लगाये इन सारे प्रयासों के बाद भी कोरोना समाप्त नही हुआ है। बल्कि आज इतना बढ़ रहा है कि यह कहना संभव नही रह गया है कि इसका अन्तिम आंकड़ा क्या होगा और इससे छुटकारा कब मिलेगा। जब लाॅकडाऊन किया गया था तब इसका आंकड़ा केवल पांच सौ था और जब कई लाखों में पहंुच गया तब अनलाॅक शुरू कर दिया। अब अनलाॅक चार चल रहा है और सारे प्रतिबन्ध हटा लिये गये हैं। लाॅकडाऊन लगाने का तर्क था कि सोशल डिस्टैसिंग की अनुपालना करने से इसके प्रसार को रोका जा सकता है। सोशल डिस्टैन्सिंग एक अचूक हथियार हमारे प्रधानमन्त्री खोज लाये हैं जिस पर अन्तर्राष्ट्रीय जगत भी प्रंशसक बन गया है ऐसे कई दावे कई विदेशीयों के कथित प्रमाण पत्रों के माध्यम से किये गये थे। देश की जनता ने इस सबको बिना कोई सवाल किये मान लिया। अब अनलाक शुरू करने पर तर्क दिया गया कि आर्थिक गतिविधियों को लम्बे समय तक बन्द नहीं रखा जा सकता। लाकडाऊन का अर्थ व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। सरकार को राजस्व नही मिल रहा है। इन तर्कों को भी जनता ने बिना कोई प्रश्न किये मान लिया। लाकडाऊन में सारे शिक्षण संस्थान और धार्मिक स्थल बन्द कर दिये गये थे। इन्हें अब खोल दिया गया है। धार्मिक स्थलांें में बच्चों और बजुर्गों के जाने पर अभी भी प्रतिबन्ध है।
स्कूलों को खोल दिया गया है। अध्यापक और गैर शिक्षक स्टाफ स्कूल आयेंगे। लेकिन सभी एक साथ नही आयेंगे। आधा स्टाफ एक दिन आयेगा तो आधा दूसरे दिन आयेगा। कोई भी क्लास नियमित नही लगेगी। कक्षा नौंवी से बाहरवीं तक के छात्र स्कूल आयेंगे। यदि वह चाहें और उनके अभिभावक अनुमति दें। अभिभावकों की अनुमति के बिना छात्र स्कूल नहीं आयेंगे। स्कूल आकर वह अध्यापक से केवल मार्ग दर्शन ले सकेंगे रैग्युलर पढ़ाई नही होगी। स्कूलों के लिये जारी इन निर्देशों का अर्थ है कि बच्चों की जिम्मेदारी माता-पिता की ही होगी। सरकार और स्कूल प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। कोरोना का सामुदायिक प्रसार बढ़ रहा है यह लगातार बताया जा रहा है। इस महामारी की कोई दवा अभी तक नहीं बन पायी है और यह भी निश्चित नही है कि कब तक बन पायेगी। ऐसी वस्तुस्थिति में बच्चों को लेकर इस तरह के निर्देश जारी करने का क्या यह अर्थ नही हो जाता है कि सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से हाथ खींच लिये हैं और लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। जब संक्रमण बढ़ रहा है और दवाई कोई है नहीं तब कोई कैसे जोखिम उठाने की बात सोच पायेगा। जनता आज तक सरकार के हर फैसले को स्वीकार ही नहीं बल्कि उस पर विश्वास करती आयी है लेकिन आज जब सरकार जनता को उसके अपने हाल पर छोड़ने पर आ गयी है तब उसकी नीयत और नीति दोंनोे पर सवाल करना आवश्यक हो जाता है।
जब से कोरोना सामने आया है तभी से डाक्टरों का एक वर्ग इसे साधारण फ्लू बता रहा है। इसी वर्ग ने इसे फार्मा कंपनीयों का अन्तर्राष्ट्रीय षडयंत्र कहा है। जब किसी बिमारी को महामारी की संज्ञा दी जाती है तो ऐसा कुछ अध्ययनों के आधार पर किया जाता है। लेकिन कोरोना को लेकर ऐसा कोई अध्ययन सामने नही हैं। कारोना चीन ने फैलाया यह आरोप लगा है लेकिन अमरीका में बिल गेट्स ने ऐसी महामारी की घोषणा तीन साल पहले ही किस आधार पर कर दी थी पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। अमेरिका और चीन एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे और बाकि लोग इसी बहस का हिस्सा बनते रहे। किसी बीमारी का ईलाज खोजने के लिये उस बीमारी की गहन पड़ताल करनी पड़ती है इस पड़ताल के लिये मृतकों का पोस्टमार्टम किया जाता है। लेकिन हमारे यहां ऐसा नही किया गया। हमारे स्वास्थ्य मन्त्री स्वयं एक अच्छे डाक्टर हैं और वह जानते हैं कि पोस्टमार्टम कितना आवश्यक होता है दवाई खोजने के लिये फिर डा. हर्षवर्धन तो स्वयं विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक पदाधिकारी हैं। क्या देश को यह जानने का हक नही है कि पोस्टमार्टम क्यांे नहीं किये गये। क्या इसके बिना कोई दवाई खोज पाना संभव है? क्या अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर यह सवाल हमने उठाया है शायद नहीं क्या कोरोना को लेकर लिये गये आज तक के सारे फैसले अन्तः विरोधी नही रहे हैं। इसी अन्त विरोध का परिणाम है स्कूलों और बच्चों को लेकर लिया गया फैसला। ऐसा अन्तः विरोध तब आता है जब हम स्वयं स्थिति को लेकर स्पष्ट नही होते हैं। कुछ छिपाना चाहते हैं। कोरोना से पहले प्रतिवर्ष कितनी मौतें देश में होती रही है। यह केन्द्र सरकार के गृह विभाग की रिपोर्ट से सामने आ चुका है। 2015, 16 और 2017 तक के आंकड़े इस रिपोर्ट में जारी किये गये हैं। इसके मुताबिक 2017 में देश में 64 लाख से अधिक मौतें हुई हैं। हिमाचल का आंकड़ा ही चालीस हजार रहा है। क्या इस आंकड़े के साथ कोरोना काल के आकंड़ो की तुलना नही की जानी चाहिये। क्या इससे यह स्वभाविक सवाल नही उठता है कि शायद सच्च कुछ और है। आज अर्थव्यवस्था पूरी तरह तहस नहस हो चुकी है। अनलाक चार में भी बाज़ार 30ः से ज्यादा नही संभल पाया है और इसे सामान्य होने में लंबा समय लगेगा। क्योंकि सरकार का हर फैसला आम आदमी के विश्वास को बढ़ाने की बजाये उसके डर को बढ़ा रहा है। यह स्थिति आज आम आदमी को भगवान भरोसे छोड़ने की हो गयी है। यह विश्वास तब तक बहाल नहीं हो सकेगा जब तक सरकार यह नही मान लेती है कि उसके आकलन सही साबित नहीं हुए हैं।
आज कोरोना पर जब सरकार के निर्देश ही भ्रामकता और डर को बढ़ावा दे रहे हैं तो आम आदमी इस पर स्पष्ट कैसे हो पायेगा। जब बिना दवाई के ही इसके मरीज़ ठीक भी हो रहे हैं और इससे संक्रमित डाक्टरों की मौत भी हो रही है तब ऐसी व्यवहारिक सच्चाई के सामने आम आदमी एक सही राय कैसे बना पायेगा। क्योंकि यह भी सच है कि अकेले कोरोना से ही मरने वालों का आंकड़ा तो नहीं के बराबर है। ऐसे में यही उभरता है कि जब किसी अन्य बिमारी से ग्रसित व्यक्ति कोरोना से भी संक्रमित हो जाता है तब उसका बच पाना कठिन हो जाता है। यहां यह भी कड़वा सच है कि लाकडाऊन शुरू होते ही अस्पतालों में अन्य बिमारीयों के ईलाज पर विराम लग गया था। इस विराम का अर्थ था कि इन मरीजों को भगवान और उनके अपने हाल पर छोड़ दिया गया था। आज ठीक उसी बिन्दु पर सरकार और प्रशासन आ खड़ा हुुआ है जब उसने बच्चों का स्कूल आना माता-पिता की स्वेच्छा पर छोड़ दिया है। इस स्वेच्छा के निर्देश से पूरी व्यवस्था की विश्वनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। ऐसे में यह ज्यादा व्यवहारिक होगा कि सरकार कोरोना को एक सामान्य फ्लू मानकर जनता में विश्वास बहाली का प्रयास करे।
शिमला/शैल। क्या प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह की ओर बढ़ रहा है? यह सवाल उठाना इसलिये प्रसांगिक हो जाता है क्योंकि हिमाचल प्रदेश भी उन राज्यों में शामिल है जिन्होंने केन्द्र द्वारा जीएसटी की क्षतिपूर्ति करने में असमर्थता दिखाने पर कर्ज लेने की सलाह को स्वीकार कर लिया है। हिमाचल की आर्थिक स्थिति यह है कि इसके कुल बजट का करीब 67% से प्राप्त होता है। राज्य के अपने संसाधनों से केवल 33% की ही उपलब्धता रह पाती हैै। कैग की वर्ष 2018- 19 की विधानसभा मेें रखी गयी रिपोर्ट के मुताबिक केन्द्रिय करों और शुल्कों का राज्यांश 18% और भारत सरकार से सहायतानुदान 49% मिला है। वर्ष 2020-21 का राज्य का कुल बजट 49 हज़ार करोड़ का है। इसके मुताबिक करीब 32 हज़ार करोड़ के लिये प्रदेश केन्द्र पर निर्भर रहेगा। ऐसे में जब केन्द्र राज्यों को उनका जीएसटी का हिस्सा देने में ही असमर्थता दिखा चुका है तो क्या उससे 67% की यह सहायता मिल पायेगी? क्या इस क्षतिपूर्ति के लिये राज्य सरकार ऋण उठायेगी और वह एफआरवीएम के मानकों के भीतर रह पायेगा यह एक बड़ा सवाल इस समय प्रदेश के समाने खड़ा है। लेकिन विडम्बना यह है कि इस सवाल पर विधानसभा के इस सत्र में कोई चर्चा नही हो पायी है।
मुख्यमन्त्री प्रदेश के वित्तमन्त्री भी हैं और पिछले दिनों यह कहा जाता रहा है कि प्रदेश सरकार के पास 12000 करोड़ की राशी अप्रयुक्त (Unspent) पड़ी हुई है। बल्कि इसके लिये जलशक्ति मन्त्री मेहन्द्र सिंह की अध्यक्षता में मन्त्रीयों की एक उप समिति भी बनी थी। महेन्द्र सिंह ने भी यह दावा किया था कि 12000 करोड़ का ऐसा धन सरकार के पास उपलब्ध है लेकिन इस विधानसभा सत्र में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री का इस संबंध में एक प्रश्न आया था। इस प्रश्न के उत्तर में बताया गया है कि विभिन्न विभागों में केवल 5156.25 करोड़ की ही अप्रयुक्त राशी है और इसमें वह राशी भी शामिल है जो विधायक निधि और रेडक्रास की विभागों के पास बतौर डिपोजिट पड़ी हुई है। इसी के साथ सदन में विधायक राजेन्द्र राणा का यह सवाल भी था कि सरकार ने इस वर्ष जनवरी से लेकर जुलाई तक कितना ऋण लिया है 31 जुलाई तक जीएसटी मे केन्द्र से क्या मिला है और कितना जीएसटी केन्द्र के पास बकाया है। इसके जवाब में बताया गया है कि जनवरी से जुलाई तक शुद्ध ऋण 2953 करोड़ है। वर्ष 2019-20 में 2477 जीएसटी के रूप में मिल चुके हैं और 2020-21 के लिये 1628 करोड़ का बकाया है। इसी कड़ी में विधायक हर्षवर्धन ने पूछा था कि इन छः महीनों में केन्द्र से कितना पैसा प्रदेश को मिला है। इसके जवाब में बताया गया है कि इस अवधि में केन्द्र से 11001 करोड़ मिले हैं जिनमें से 10974 करोड़ ग्रांट और 27 करोड़ ऋण के रूप में मिले हैं।
वित्तिय स्थिति के इस परिदृश्य में प्रदेश के बजट पर नजर डाली जाये तो 31 मार्च 2019 को प्रदेश का कर्ज 54000 करोड़ हो चुका है। इसके बाद वर्ष 2019-’20 के ऋण को अब तक जोड़ा जाये तो यह आंकड़ा अब 60,000 करोड़ के पार जा चुका है। फरवरी से जुलाई तक 10974 करोड़ ग्रांट के रूप में मिले हैं जिनमें निश्चित रूप से पिछले वित्त वर्ष 2018-19 का भी एक बड़ा हिस्सा रहा होगा। इस तरह चालू वित्त वर्ष के लिये पूरी ग्रांट नही मिल पायी है। सरकार जो अपने पास 12000 करोड़ के अप्रयुक्त धन की उपलब्धता की बात कर रही थी वह अब केवल 5156.25 करोड़ ही रह गया है। इसी में 7000 करोड़ का आकलन गड़बड़ा गया है। ऐसी स्थिति में बजटीय जिम्मेदारीयां पूरी करने के लिये यदि ऋणों का सहारा लिया जाता है तो वह प्रदेश के भविष्य के लिये घातक होगा। ऐसे में प्रदेश को केन्द्र की तर्ज पर अपने खर्चे कम करने के लिये कड़े फैसले लेने होंगे।
शिमला/शैल। जयराम मन्त्रीमण्डल में उनकी सहयोगी मन्त्री सरवीन चौधरी के खिलाफ उनके राजनीतिक प्रतिद्वन्दी पूर्व मन्त्री विजय सिंह मनकोटिया ने एक पत्रकार वार्ता में कहा है कि यदि जयराम सरकार उनके द्वारा लगाये आरोपों पर जांच नही करवाते हैं तो वह यह सारा मामला प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के सामने ले जायेंगे। मनकोटिया ने अपने आरोपों को पुनः दोहराते हुए इस आश्य के पत्र भी प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमन्त्री तक लिख दिये हैं। मनकोटिया की इस चुनौती के साथ ही सरकार की उलझन भी बढ़ गयी है। स्मरणीय है कि जब मनकोटिया ने पहली बार यह आरोप लगाये थे तब उन्होंने सरवीन चौधरी का नाम नही लिया था। लेकिन आरोप सामने आने के बाद जिस तरह से इस मामले पर चर्चा आगे बढ़ी उससे यह संकेत उभरे कि सरकार ने विधिवत यह मामला विजिलैन्स को सौंप दिया है और प्रारम्भिक जांच में आरोपों में दम पाया गया है। लेकिन जब विधानसभा सत्र में इसका जिक्र आया तो यह सामने आया कि सरकार ने इसमें फार्मल तरीके से कुछ नही किया है। विधानसभा की चर्चा में इस तरह की जानकारी आने के बाद ही मनकोटिया ने दूसरी बार यह हमला बोला है और प्रधानमन्त्री तक जाने की बात की है।
मनकोटिया ने अब सीधे सरवीण पर नाम लेकर हमला बोला है। सरवीन के प्रति, उनके बेटे, भाई और भाई की पत्नी सभी पर जमीनें खरीदने के आरोप लगाये हैं। आरोपों में यह संकेत दिया है कि इन लोगों ने सक्षम और स्वतन्त्र आय स्त्रोत न होते हुए सर्कल रेट से कम कीमत पर यह जमीने खरीदी हैं। लेकिन इन आरोपों को प्रमाणित करने के कोई दस्तावेजी़ साक्ष्य साथ नही लगाये हैं। सरवीन के सीए पर भी आरोप लगाया गया है कि उसके परिजनों को कुछ सरकारी विभागों में नौकरीयां भी दी गयी हैं। इसी के साथ चुनाव क्षेत्र के विकास को भी नजरअन्दाज करने के आरोप लगाये गये हैं। इन आरोपों की जांच के लिये आयकर विभाग से भी सहयोग लेने की आवश्यकता होगी। क्योंकि यदि यह लोग आयकरदाता नहीं है तो आरोपो की दिशा ही बदल जाती है और उसके लिये आयकर में अलग से शिकायत जायेगी। आयकरदाता होने की स्थिति में वह जमीन खरीदने के लिये पात्र हैं और यही देखा जायेगा कि आयकर के मुताबिक उनके स्त्रोत वैध हैं या नही। सीए के परिजनों को नौकरी मिलने में संबधित विभागों की प्रक्रिया की जांच होगी। सरवीन उन विभागों की मन्त्री नही रही है। सर्कल रेट से कम पर रजिस्ट्री होने में राजस्व विभाग की प्रक्रिया जांच में आयेगी। क्या विजिलैन्स इन सारे कोणों से मामले को देख पाया है यह अभी स्पष्ट नही है।
लेकिन इस मामले का राजनीतिक स्वरूप अब गंभीर हो जायेगा यह तय है क्योंकि मनकोटिया की प्रतिष्ठा अब दाव पर आ गयी है। सरकार के लिये अपनी साख का सवाल हो जायेगा। मामले की जांच पूरी होने में सरकार का पूरा कार्यकाल निकल जायेगा। बिना पूरी जांच के मन्त्री के खिलाफ कारवाई करना यह दर्शायेगा कि इस पृष्ठभूमि में सरकार में ही बैठे कुछ लोगों की भूमिका है। ऐसे में आने वाले समय में और भी कई बड़े लोगों पर इससे भी गंभीर आरोप लगने की संभावनाओं से इन्कार नही किया जा सकता।
शिमला/शैल। क्या प्रदेश कांग्रेस के संगठन में भी कुछ बदलाव होने जा रहे हैं? यह सवाल इन दिनों चर्चा का केन्द्र बना हुआ है। यह चर्चा इसलिये चली है क्योंकि प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले दो नेता आनन्द शर्मा और आशा कुमारी जो केन्द्रिय संगठन में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा रहे थे उनके दायित्वों में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिला है। यह माना जा रहा है कि इस बदलाव से आन्नद शर्मा का राजनीतिक कद काफी हद तक कम हुआ है। इसी तरह आशा कुमारी को भी यदि कोई और जिम्मेदारी साथ में नही दी जाती है तो वर्तमान को उसके कद में भी कटौती ही माना जायेगा। लेकिन कुछ हल्कों में यह क्यास लगाये जा रहे हैं कि उन्हे प्रदेश कांग्रेस का अगला अध्यक्ष बनाया जा रहा है। इसके लिये तर्क यह दिया जा रहा है कि आशा कुमारी के पास पंजाब का प्रभार काफी समय से चला आ रहा था इसलिये वहां से उनका बदला जाना तय था। पंजाब में उन्होंने अपना कार्यभार पूरी सफलता के साथ निभाया है। अपने इसी अनुभव के नाते वह सीडब्ल्यूसी तक पंहुची है और उनके अनुभव का पूरा लाभ उठाने के लिये हाईकमान उन्हे प्रदेश में यह नयी जिम्मेदारी दे सकता है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रदेश कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष कुलदीप राठौर को यह जिम्मेदारी दिलाने में आनन्द शर्मा, वीरभद्र सिंह, आशा कुमारी और मुकेश अग्निहोत्री सबकी बराबर की भागीदारी रही है। लेकिन अब जब कांग्रेस के 23वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर संगठन में प्रभावी फेरबदल करने का सुझाव दिया था तो उनमें आनन्द शर्मा भी शामिल थे। आनन्द शर्मा के इसमें शामिल होने पर प्रदेश में प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं उभरी और संगठन के वरिष्ठ उपाध्यक्ष केहर सिंह खाची ने वाकायदा एक प्रैस ब्यान जारी करके शिमला के कुछ नेताओं ने उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कारवाई की मांग कर दी। लेकिन इस मांग को अन्य लोगों का समर्थन नही मिल पाया और यह मांग इसी पर दम तोड़ गयी। लेकिन सूत्रों की माने तो खाची ने जो मोर्चा आनन्द के खिलाफ खोला है उसमें कई बड़े नेता भी शामिल हो गये हैं। चर्चा है कि इन लोगों ने हाईकमान को एक पत्र भेजकर जहां आनन्द शर्मा के प्रदेश में जनाधार को लेकर गंभीर सवाल उठाये हैं वहीं पर कुछ पुराने प्रसंग भी ताजा किये हैं जब प्रदेश में कांग्रेस के एक बडे़ वर्ग द्वारा इकट्ठे शरद पवार की एनसीपी में जाने की तैयारी कर ली थी। शरद पवार के साथ जाने की चर्चाएं प्रदेश में पूर्व में दो बार उठ चुकी है। एक बार तो यहां तक चर्चा आ गयी थी कि शरद पवार ने इस नये बनने वाले ग्रुप को विधानसभा चुनावों में भारी आर्थिक सहायता का आश्वासन देने के साथ ही पहली किश्त भी दे दी है। शरद पवार के साथ जिन लोगों के जाने की चर्चाएं चली थी वह सभी लोग संयोगवश वीरभद्र सिंह के ही समर्थक थे। बल्कि इसे वीरभद्र ही रणनीति का एक हिस्सा माना जा रहा था। इस सबमें उस समय आनन्द शर्मा और हर्ष महाजन की सक्रिय भूमिकाएं बड़ी चर्चित रही है। माना जा रहा है कि इस आश्य के खुलासे का जो पत्र हाईकमान को भेजा गया है वह प्रदेश अध्यक्ष राठौर की पूरी जानकारी में रहा है। इस पत्र के जाने से आनन्द सहित कई नेता राठौर से नाराज़ भी हो गये हैं।
इस परिदृश्य में प्रदेश संगठन के नेतृत्व में बदलाव किया जाता है या नही यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन यह तय है कि प्रदेश में कांग्रेस भाजपा से तब तक सत्ता नही छीन पायेगी जब तक वह भाजपा को उसी की भाषा में जवाब देने की रणनीति पर नही चलती है। पुराना अनुभव यह स्पष्ट करता है कि हर चुनाव से पहले भाजपा कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय प्रचारित करने में पूरी ताकत लगा देती है सत्ता में आने पर उन आरोपों के साक्ष्य जुटाती है और उनके दम कुछ लोगों को अपने साथ मिलाने में भी सफल हो जाती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदारी से लड़ाई लड़ना और उसे अन्तिम अंजाम तक पहुंचाना भाजपा का सरकार में आकर कभी भी ऐजैण्डा नही रहा है। जयराम सरकार भी इसी ऐजैण्डे पर काम कर रही है। यदि कांग्रेस भाजपा की इस रणनीति को अभी से समझकर इस पर अपनी कारगर नीति नही बनाती है तो उसे चुनावों मे लगातार चौथी हार भी मिल जाये तो इसमें कोई हैरानी नही होगी। क्योंकि आज कांग्रेस नेतृत्व के एक बड़े वर्ग पर यह आरोप लगना शुरू हो गया है कि वह भाजपा के खिलाफ केवल रस्मअदायगी के लिये मुद्दे उठा रही है। जनता में कांगेस नेतृत्व अभी भी अपना विश्वास बना पाने में सफल नही हो रहा है।